आँखों के कार्य – भाग ३

हमने आँखों की बाह्य व आंतरिक रचना का अध्ययन किया। अब हम देखेंगे कि आँखें किस तरह कार्य करती हैं। यदि कोई पूंछे कि आँखों का काम क्या हैं तो हम तुरंत जवाब देंगे कि देखना। हमारी नजरों के सामने जो जो कुछ आता हैं, उसे हम देखते हैं। यदि हमारी आँखों के सामने कोई ऐसी चीज रखें कि जो हमें दिखायी पड़ती हो तो उस समय निश्चित रुप से क्या होता है? ये हम दखेंगे।

हम सबने कैमरा देखा है और उसका उपयोग भी किया है। हमारी आँखों को कैमरा की उपमा दी जाती है। कैमरा की कार्यपद्धती और आँखों की कार्यपद्धती साधारणतः एक ही जैसी हैं कैमरा में सामने की ओर एक पतला परदा होता है तथा उसमें छोटा-बड़ा कर सकनेवाला अथवा एक स्थिर आकार का छिद्र होता है। उसके पीछे भिंग (लेन्स) होती है तथा उसके पीछे पटल अथवा फिल्म होती है। किसी भी वस्तु से आनेवाली प्रकाश किरणें ऍपरचर में से कैमरे में घुसती हैं  व बीच के भिंग (लेन्स) से दूसरी ओर जाकर पीछे के पटल पर वस्तु की प्रतिमा बनाती है, तैयार करती है। ऐसा सब कुछ भौतिकशास्त्र के प्रकाशकिरण व प्रकाश के नियमों के अनुसार ही होता है। अपनी आँखों की रचना का अध्ययन करते समय हमने देखा कि इसमें भी कैमरे की ही तरह ऍपरचर होता है जिसे हम आँख की पुतली कहते हैं। उसके पीछे आँख की भिंग (लेन्स) व सबसे पीछे रेटिना अथवा रेटायना दृष्टिपटल होता है। इसके अलावा हमारी आँखों के सामने कारनियां नामक पारदर्शक परदा होता है। भिंग के दोनों ओर भिन्न भिन्न द्रव पदार्थ होते हैं। कैमरा व अपनी आँखों में ये दो महत्त्वपूणर्न अंतर हैं।

आँखों से हमें कैसी दिखायी देता है, यह समझने के पहले भौतिकशास्त्र के प्रकाश के गुणधर्म व नियमों की जानकारी संक्षेप में समझना आवश्यक है।

1) प्रकाश का परावर्तन

प्रकाश की किरणें जब किसी अपारदर्शक पदार्थ पर पडती हैं /वस्तु पर पड़ती हैं तब उनका परावर्तन होता है। उस वस्तु से वे दूसरी ओर नहीं निकलती।

2) प्रकाश का वक्रीभवन

किसी पारदर्शक पदार्थ (हवा-कांच इत्यादि) से गुजरते समय अर्थात माध्यम बदलते समय पारदर्शक पदार्थ के बगल में पहुँचने पर आगे चलकर अपना मार्ग बदल देती हैं। अर्थात वक्र होती है। इसीलिये इसे वक्रीभवन कहा जाता है। परंतु इसका अपवाद है। यदि ये किरणें किसी वस्तु के किनारों पर पड़ती हैं तो उनका वक्रीभवन नहीं होता है और वे सीधे निकल जाती है।

वक्रीभवन का गुणधर्म आँखों के लिये उपयोगी होता है। आँखों का मुख्य पारदर्शक वस्तु अर्थात आँख की भिंग। इस भिंग से अंदर प्रवेश करते समय प्रकाशकिरणों का वक्रीभवन होता है व उससे ही पीछे के दृष्टिपटल पर आंखों के सामने की वस्तु की प्रतिमा बनती है। तात्पर्य यह है कि आँख के सामने की वस्तु की प्रतिमा तैयार होने में इस भिंग का प्रमुख हाथ है / होता है। यहाँ पर भिंग का उल्लेख आया है। अतः भिंग के प्रकार व उसके कारण होने वाले प्रकाशकिरणों के व्रकीभवन के बारे में जानकारी हासिल करेंगे।
भिंग (लेन्स) प्रमुखतः तीन प्रकार के होते हैं।

  1. बर्हिगोल भिंग
  2. अंतर्गोल भिंग
  3. दंडगोल भिंग

इन सभी भिंगों से प्रकाश किरणों का प्रवास अलग अलग होता है। बर्हिगोल भिंग से बाहर निकलने वाली प्रकाश किरणें एक निश्चित अंतर पर स्थित एक बिंदु पर एक दूसरे से मिल जाती हैं। यह बिन्दु भिंग की मोटाई के अनुसार भिन्न भिन्न दूरी पर होता हैं। अंतर्गोल भिंग से बाहर निकलने वाली प्रकाश किरणें एक-दूसरे दूर जाती हैं। दंडगोल भिंग प्रकाश किरणों का वक्रीभवन एक ही समान स्तर पर करता है। अब हम देखेंगे कि बर्हिगोल भिंग प्रतिमा कैसी बनती है।

Composition of eyes

उपरोक्त आकृति को देखने से यह पता चलता है कि बर्हिगोल भिंग (कॉन्केव्ह लेन्स) के कारण किसी भी वस्तु की प्रतिमा उलटी पडती है तथा बांया भाग दाया दिखायी देता है व दायां भाग बाया दिखायी देता है। हमने देखा है कि अपनी आँखों के भिंग (लेन्स), कॉरनिया का आकार भी बर्हिगोल होता है। फलस्वरुप अपनी आँखों के दृष्टिपटल पर पड़नेवाली वस्तु की प्रतिमा भी उलटी ही बनती है। अब प्रश्न उठता है कि फिर हमें वस्तु अपनी वास्तविक अवस्था में कैसी दिखायी देती है। उलई क्यों नहीं दिखायी देती? इसका सरल उत्तर यह है कि हमारे मस्तिष्क की उन पेशियों को जो दृष्टि पर नियंत्रण रखती हैं, यह प्रतिमा सीधी ही दिखायी देती है और इसीलिये हमारे आँखों के सामने की प्रत्येक वसतु हमें उसके वास्तविक स्वरुप में ही दिखायी देती है।

अब तक हमने अपनी आँखों की रचना,उसका भौतिक शास्त्र व दृष्टिपटल पर प्रतिमा कैसे पड़ती है, इसका अध्ययन किया। परंतु हमारी आँखों की एक विशेषता है। अपनी आँखों का भिंग (लेन्स) अपनी आँखों की वक्रीभवन की शक्ती आवश्यकता नुसार कम या ज्यादा कर सकता है। इसे अंग्रेजी में ऍकोमोडेशन ऑफ आईज कहते हैं। यह कैसा गुणधर्म है ओर इससे हमें क्या लाभ है, अब हम इसका अध्ययन करेंगे।

प्रत्येक बर्हिगोल भिंग की प्रकाशकिरणों को वक्रीभवन करने की एक ताकत अथवा शक्ति होती है। भिंग जितना मोटा (अर्थात दोनों ओर से ज्यादा गोलाकार) उतनी ही उसकी वक्रीभवन की शक्ती ज्यादा तथा भिंग जितना सपाट अथवा पतला, उतनी ही उसकी ताकत कम होती है। फलस्वरुप उस भिंग से वस्तु की बननेवाली प्रतिमा कितने अंतर पर बनेगी यह तय होता है। वक्रीभवन की यह शक्ति डायऑक्टर से मापी जाती है।

सामान्यतः जब आँखें कोई भी काम नहीं कर रही होती हैं, तो उस समय आँखों के भिंग की शक्ति २० डायऑक्टर होती है और इस समय भिंग पतला / सपाट अवस्था में होता है। आवश्यकतानुसार यह भिंग मोटा होता रहता है तथा उसके वक्रीभवन की शक्ती ३४ डायऑक्टर तब बढ़ जाती है। इसका फायदा ऐसे होता है कि सपाट अवस्था में भिंग दूर की वस्तु की प्रतिमा सुस्पष्ट बनाता है। फलस्वरुप हम वो वस्तु स्पष्ट रुप से देख पाते हैं। परंतु ऐसी अवस्था में नजदीक की वस्तु स्पष्ट नहीं दिखायी देती। जब भिंग की वक्रीभवन शक्ती बढ़ जाती है। अर्थात वो मोटा हो जाता है तो नजदीक की वस्तु स्पष्ट दिखायी देती है। इस गुणधर्म का ही दूसरा महत्त्वपूर्ण उपयोग यह है कि जब कोई चल वस्तु दूर से जैसे जैसे अपने नजदीक आने लगती है , वैसे वैसे अपनी आँखों का भिंग मोटा होता जाता है। फलस्वरुप वो वस्तु उतनी ही स्पष्ट दिखायी देती रहती है।

प्रेसवायोपिया

बढ़ती उम्र के कारण भिंग का यह ऑकोमोडेन का गुणधर्म / शक्ती कम कम होते रहती हैं। २० से ३४, १४ डायऑक्टर की शक्ती उम्र के पचासवे साल में दो डायऑक्टर तक नीचे गिर जाती है और उम्र के सत्तरवें साल तक भिंग की यह शक्ती पूरी तरह समाप्त हो जाती है। इस उम्र के बाद आँख का भिंग मोटा-पतला कुछ भी न होकर हमेशा एक ही मोटाई का हो जाता है। फलस्वरुप दूरकी व नजदीक की वस्तु पर दृष्टि स्थिर करने की आँखों की क्षमता समाप्त हो जाती है। इसको ही प्रेसबायोपिया कहते हैं। इस स्थिती में वह व्यक्ति कुछ निश्चित  दूरी पर स्थिर वस्तु ही स्पष्ट देख सकता है। इस त्रुटि को दूर करने के लिये उस व्यक्ति को दूर का और नजदीक का देखने के लिये दो भिंग (टू लेन्स) का नजदीक का चष्मा लगाना पड़ता है।

अगले लेख में हम देखेंगे कि दृष्टि के अन्य दोष कौन कौन से हैं।

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