हृदय व रक्ताभिसरण संस्था – ०५

अब तक हमने रक्ताभिसरण संस्था की सर्वसाधारण रचना का अध्ययन किया। इस रचना में आरटरी और वेन का सीधा संबंध नहीं होता। केशवाहिनियों के जाल के द्वारा ही ये एक दूसरे के संपर्क में आती हैं। परन्तु शरीर के कुछ भागों में इन दो प्रकार की रक्तवाहिनियों को सीधा जोड़ा जाता है। इनके बीच में केशवाहिनियों का जाल नहीं होता। केशवाहिनियों के जालों को bypass करनेवाले इस जोड़ को vascular shunt अथवा आरटिओरिओ-विनस जोड़ कहते हैं। इसके तीन प्रकार निम्नलिखित हैं –

आरटरी और वेन१) थरोफेअर चॅनल्स  :- सभी केशवाहिनियाँ इन आर्टिरिओल्स की अंतिम शाखायें (Terminal branches) होती हैं। कुछ स्थानों पर आर्टिरिओल्स के बगल से शाखा निकलती है। केशवाहिनियों की तुलना में इनकी थैली बड़ी होती हैं। ये रक्तवाहिनियाँ भी सूक्ष्म रक्ताभिसरण में सहभागी होती हैं। इनके माध्यम से पेशी व रक्त के बीच विभिन्न प्रकार के घटकों का आदान-प्रदान होता है। आर्टिरिओल के पास जहाँ से इनकी शुरुआत होती है वहाँ पर एक ‘स्फिंक्टर’ होता है। वह इस रक्तवाहिनी से बहने वाले रक्तप्रवाह पर नियंत्रण रखता है। इन चॅनेल्स में से पुन: केशवाहिनियाँ निकलती हैं। शरीर के जिन-जिन अवयवों में ऐसे चॅनल्स होते हैं उन-उन भागों की आवश्यकता पर इन केशवाहिनियों की संख्या निर्भर करती है। उदाहरणार्थ – स्केलेटल स्नायु में इनसे निकलनेवाली केशवाहिनियों के जाले बड़े होते हैं, वहीं, फेफड़ों और आँखों में वे छोटे होते हैं।

२) आरटरी और वेन का साधारण जोड़ :- छोटी आरटरीज व छोटी वेन्स के बीच में यह सीधा संपर्क होता है। इन्हें जोड़ने वाली यह रक्तवाहिनी कभी सीधी तो कभी चंद्राकार होती हैं। इसकी थैली छोटी तथा संकरी होती है। इस रक्तवाहिनी पर सिंपथेटिक चेतातंतु कार्य करते हैं। इसमें से बहनेवाला रक्त केशवाहिनियों में न जाकर सीधे वेन्स में बहता है। आवश्यकतानुसार ये रक्तवाहिनियाँ खुलती हैं और बंद होती हैं और इसे चेतातंतु नियंत्रित करते हैं। नाक, जीभ, आँतों व थायरॉइड ग्रंथी (ग्लँड) इत्यादि स्थानों पर इस प्रकार का जोड़ पाया जाता है।

३) आरटरी और वेन का वैशिष्टयपूर्ण जोड़ :- इस प्रकार का जोड़ प्राय: हाथ-पैर – उनमें भी हाथ के पंजों एवं तलुओं में पाया जाता है। इस जोड़ को (Glomera) कहते हैं। त्वचा की मुख्यवाहिनी से इसकी शाखा निकलती है, जो मुख्यवाहिनी के समकोणीय होती हैं। इस जोड़-वाहिनी से पुन: छोटी दो रक्तवाहिनियाँ निकलती हैं तथा त्वचा की डरमिस में छोटी जाली तैयार करती हैं। इस जाले के दूसरी ओर भी रक्तवाहिनी अचानक बड़ी हो जाती हैं। एक मोड़ लेती है और ङ्गिर संकरी हो जाती है। यह संकरा भाग डरमल वेन से जोड़ा जाता है। यह इस प्रकार का जोड़ शरीर के तापमान को नियंत्रित रखने के लिये होता है। उदा. यदि शरीर का तापमान अचानक बंद हो जाये तो इस मार्ग से बड़ी मात्रा में रक्त बहने लगता है व त्वचा के माध्यम से उष्णता को बाहर निकालने का कार्य करती है। तात्पर्य यह है कि हमारी शरीर से उष्णता बाहर निकालने का साधन है।

उपरोक्त प्रकार का जोड़ नवजात शिशु व वृद्ध लोगों में अत्यंत कम मात्रा में पाया जाता है। इसके कारण इन दोनों उम्रों में शरीर की तापनियंत्रक शक्ती कमजोर हो जाती है।

रक्तवाहिनियाँ पूरे शरीर में रक्त की आपूर्ति करती है। परंतु इन रक्तवाहिनियों को रक्त की आपूर्ति करती हैं। परंतु इन रक्तवाहिनियों को रक्त की आपूर्ति भला कौन करता हैं? रक्तवाहिनियों की दीवारों की पेशियों के द्वारा विविध प्रकार के घटकों की आपूर्ति दो प्रकार से होती है –

१) रक्तवाहिनियों में उपस्थित रक्त के डिफ्यूजन की सहायता से।
२) प्रत्येक रक्तवाहिनियों में रक्त की आपूर्ति करनेवाली छोटी-छोटी रक्तवाहिनियाँ होती है। इन्हें वासा वेसोरम (Vasa Vasorum) कहते हैं।

प्रत्येक रक्तवाहिनी से ये छोटी वासा वेसोरम बाहर निकलती हैं और अपने बगल की रक्तवाहिनी को रक्त की आपूर्ति करती हैं।

रक्तवाहनियों को चेतातंतु की आपूर्ति सिंपथेटिक चेतातंतू में से होती है। ये चेतातंतु प्रमुख रूप से स्नायुमय आरटरीज और उस में भी आर्टिरिओलस पर कार्य करते हैं। इन चेतातंतुओं के कार्यों के फलस्वरूप ये रक्तवाहिनियाँ संकरी होते हैं। इसे वासोकन्स्ट्रिक्शन (vasoconstriction) कहते हैं। इसके कारण इसमें प्रवाहित होने वाले रक्त का विरोध होता है और उसकी गति कम हो जाती है। चेतातंतु का दूसरा कार्य इन रक्तवाहिनियों की दीवारों में टोन (खिंचाव) को स्थिर रखना है। इसके फलस्वरूप ये अचानक नहीं दबती हैं।

पहले की रक्तवाहिनियों से नयी रक्तवाहिनियों के तैयार होने की प्रक्रिया को अॅँजिओजेनोसिस (Angiogenesis) कहते हैं। प्रत्येक अवयव की प्राकृतिक वृद्धि, अप्राकृतिक वृद्धि अथवा कॅन्सर की गांठ में भी अॅँजिओजेनेसिस की प्रक्रिया होती रहती है।

(क्रमश:)

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