आँखों की बिमारियाँ (Eye-diseases)

आज के लेख का विषय हैं दृष्टि के दोष (Eye-diseases)। पिछले लेख में हमने प्रेसबायोपिया के बारे में अध्ययन किया। उम्र के अनुसार हर किसी की आँखों में उत्पन्न होनेवाला यह बदलाव है। इसीलिये इसे दोष नहीं कहा जा कसता। अब हम जिन दोषों /बीमारियों की चर्चा करेंगे वे किसीभी उम्र में किसी को भी हो सकते हैं।

eye-diseases

आँखों की रचना का अध्ययन करते समय हमने देखा कि अपनी आँखों में सामने से दृष्टिपटल की ओर जाते समय कतार से कारनिया, ऍक्कीअस, ह्युमर, भिंग व व्हिट्रिअस ह्युमर ऐसे भाग होते हैं। ये सभी भाग पारदर्शक होते हैं तथा इन सभी भागों की स्वयं की प्रकाशकिरणों का वक्रीभवन करने की अलग अलग क्षमता होती है। परंतु आँखों के भिंग की वक्रीभवन क्षमता तथा अन्य भागों की अलग अलग वक्रीभवन की क्षमता में ज्यादा अंतर नहीं होने के कारण समझने के लिये आसान बनाने के लिये, इन सभी भागों की वक्रीभवन की क्षमताओं का औसत निकालकर एक ही क्षमता मान ली जाती है। अब हम दृष्टि के वक्रीभवन के दोषों का अध्ययन करेंगे। परंतु उससे पहले हम देखेंगे कि सामान्य दृष्टि का क्या तात्पर्य है।

इमेझेपिया अथवा सामान्य दृष्टि आँखों के भिंग, ज्यादा से ज्यादा सपाट होते हुये अथवा भिंग के आकार को निश्चित करनेवाले सिलिअरी स्नायु पूरी तरह फैली अवस्था में होते हुये भी हम दूर की वस्तु स्पष्ट रुप से देख सकते हैं। ऐसी दृष्टि को सामान्य दृष्टि कहा जाता है। अतः जदीक की चीजें देखने के लिये हमें दृष्टि ऍकोमोडेट करनी पड़ती है। जिसके बारे में हमने पिछले लेख में दृष्टि के एक गुणधर्म के रुप में जानकारी ली है। दृष्टि के दोष (Eye-diseases) कुल तीन प्रकार के होते हैं।

१) दीर्घदृष्टि /दूरदृष्टि अथवा हैपरोपिया :

ऐसे दोष वाला व्यक्ति दूर स्थित वस्तु को देख सकता है। परंतु नजदीक की वस्तु को स्पष्ट रुप से नहीं देख सकता। ऐसा क्यों होता है? निम्नलिखित दो में से किसी भी एक कारण के फलस्वरुप कुछ व्यक्तियों का आँखों का संपूर्ण गोला आवश्यकता से छोटा होता है। वहीं दूसरा कारण कुछ व्यक्तियों के भिंग की वक्रीभवन क्षमता काफ़ी कम होती है। फलस्वरुप सामने की वस्तु की प्रतिमा दृष्टिपटल पर पड़ने की बजाए दृष्टिपटल के पीछे पड़ती है। ऐसी स्थिती में सामने की वस्तु की प्रतिमा को दृष्टिपटल पर स्पष्ट लाने के लिये, आँखों को दूर की वस्तु स्पष्ट रुप से दिखायी देने के लिये अपनी अकोमोडेशन क्षमता का प्रयोग करना पड़ता है। ऍकोमोडेशन शक्ती की भी एक निश्चित सीमा होती है। उससे ज्यादा का ऍकोमोडेशन आँखें बरदास्त नहीं कर सकती। नजदीक की वस्तुओं को स्पष्ट रुप से देखने के लिये आँखों को यह ऍकोमोडेशन की शक्ती का प्रयोग करना पड़ता है। यह हमने पिछले लेख में पढ़ा है। एक बार ऍकोमोडेशन की क्षमता पार हो जाने के बाद आँखें नजदीक की वस्तु को भी स्पष्टरुप से नहीं देख सकती। ऐसे दोष युक्त व्यक्ति में प्रेसबायोपिया हो जाने के बाद वे व्यक्ति दूर पर स्थिति वस्तु को भी स्पष्ट रुप से नहीं देख सकता।

२) लघु दृष्टि अथवा मायोपिया :

ऐसा दोषयुक्त व्यक्ति सिर्फ नजदीक की वस्तु को ही स्पष्ट रुप से देख सकता है और दूर की वस्तु को देख ही नहीं सकता। इस दोष के कारण सामने की वस्तु की प्रतिमा आँखों में दृष्टिपटल के आगे अथवा सामने पड़ती है। इसके भी दो कारण हो सकते हैं। एक यह कि आँखों का गोला जरुरत से ज्यादा लम्बा होता है अथवा आँखों के भिंग पूरी तरह सपाट अथवा पतलें नहीं होते। उनकी वक्रीभवन क्षमता आँखों की सामान्य अवस्था में भी आवश्यकता से ज्यादा होती है। ऐसा दोषयुक्त व्यक्ति नजदीक की वस्तु को स्पष्ट रुप से देख सकता है। परंतु दूर की वस्तु देख पाने की एक निश्चित सीमा होती है। उस सीमा से बाहर ज्यादा दूरी पर स्थित वस्तु को वो स्पष्ट रुप से नहीं देख सकता।

उपरोक्त वर्णित दोष योग्य भिंग (लेन्स) चष्मा के रुप में लगाकर दूर अथवा ठीक किये जा सकते हैं। लघुदृष्टी वाले व्यक्ति में भिंग की वक्रीभवन क्षमता ज्यादा होती है। उसे कम नहीं किया जा सकता। ऐसी अवस्था में आंखों के सामने अंतर्गोल (कॉन्केव्ह लेन्स) रखने से प्रकाशकिरणों का वक्रीभवन कम किया जा सकता है तथा यह दोष कम किया जा सकता है। इसीलिये इस दोष को दूर करने के लिये चष्मा में अंतर्गोल भिंग (कोन्केव्ह लेन्स) का उपयोग किया जाता है।

दीर्घदृष्टी वाले व्यक्तियों में भिंग (लेन्स) की वक्रीभवन क्षमता क्षीण अथवा कम होती है। अब आँखों के सामने दूसरा बर्हिगोल भिंग (कॉनव्हेक्स लेन्स) रखकर यह क्षमता बढायी जा सकती है। इसीलिये ऐसे दोष को दूर करने के लिये चष्मा में बहिर्गोल भिंग उपयोग में लाये जाते हैं।

३) एस्टिगमॅटिझम अथवा अस्टिगमॅटिझम :

इस दोष के चलते एक ही वस्तु की प्रतिमा आँखों में दो अलग अलग स्थानों पर पड़ती है। फलस्वरुप वो वस्तु धुंधली दिखायी देती है। ऐसा दोष भिंग के कारण न होकर कॉरनिया के दोष के कारण होता है। कारनियां हमेशा गोलाकार न रहकर किसी भी तो एक स्थान पर बाकी के हिस्से की तुलना में ज्यादा गोलाकार होता है। ऐसी दृष्टि में आँखों की ऍकोमोडेशन शक्ती भी यह दोष दूर नहीं कर सकती। चष्मा लगाकर ही यह दोष दूर किया जा सकता हैं इसके लिये चष्मा में दंडगोलाकृती भिंग (सिलेंड्रिकल लेन्स) का उपयोग करते हैं।

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