रक्त एवं रक्तघटक – ४७

पिछले लेख में हम ने लाल पेशियों की निर्मिति के बारे में जानकारी प्राप्त की। आज हम हिमोग्लोबिन एवं शरीर में लोह की मेटाबोलिझम इन के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगें।

लाल रक्तपेशियां निर्मिति प्रक्रिया के दौरान अनेक अवस्थाओं से गुजरती हैं। अस्थि-मज्जा से रक्त तक के प्रवास में ये परिवर्तन घटित होते हैं। इन सभी अवस्थाओं में इन पेशियों में हिमोग्लोबिन तैयार होती रहती है। प्रत्येक हिमोग्लोबिन मॉलीक्युल चार जंजीरों से बना होता है। ये जंजीरें हैं अल्फ़ा, बीटा, गॅमा और डेल्टा। नॉर्मल प्रौढ़ व्यक्ति में उपस्थित हिमोग्लोबिन को हिमोग्लोबिन अ कहते हैं। इसमें अल्फ़ा की दो और बीटा की दो जंजीरे होती हैं।

हिमोग्लोबिन की प्रत्येक जंजीर में लोहे (Iron) का एक अणु होता है। इसीलिए हिमोग्लोबिन के प्रत्येक मॉलीक्युल में लोहे के चार अणु होते हैं। लोहे का प्रत्येक अणु प्राणवायु के एक मॉलेक्युल प्राणवायु के चार मॉलीक्युल (प्राणवायु के आठ अणु) अपने साथ लेकर चलता है।

प्राणवायु हिमोग्लोबिन के लोहे के अणु से जोड़ा जाता है। यह जोड़ अत्यंत ढ़ीला एवं फ़ौरन खुल जानेवाला (loose & reversible) होता है। इसमें लोहें के अणु के साथ प्राणवायु का एक मॉलीक्युल जोड़ा जाता हैं। जोड़ के ढ़ीला होने के कारण ङ्गेङ्गड़ों के द्वारा ली गयी प्राणवायु पेशियों तक पहुँचायी जाती है।

उपरोक्त विवेचन से हम समझ सकते हैं कि लोह और हिमोग्लोबिन का अन्योन्य संबंध हैं। अब हम संक्षेप में यह देखेंगे कि आहार के माध्यम से शरीर में आया लोह आगे किस तरह प्रवास करता है।

शरीर में लोह का चयापचय :-
शरीर की हिमोग्लोबिन, मायोग्लोबिन और अन्य महत्त्वपूर्ण एन्झाइम्स में लोह होता है। अपने शरीर में कुल चार से पाँच ग्राम लोह होता है। इनमें से ६५% लोह हिमोग्लोबिन में होता है, ४% मायोग्लोबिन में मायोग्लोबिन में होता है। १% लोह पेशियों को प्राणवायु का उपयोग करने में सहायता करनेवाले विभिन्न एन्झाइम्स में होता है तथा ०.१% लोह प्लाझ्मा में ‘ट्रान्सफ़रिन’ के रूप में होता है। शेष १५% से ३०% प्रतिशत लोह शरीर में यकृत पेशी व रेटिक्युलोएन्डोथेलियम संस्था में जमा रहता है। इसका भंडारण ‘फ़ेरिटिन’ के रूप में होता है।

अन्न में उपस्थित लोह, छोटी आंतोद्वारा शोषित किया जाता है। रक्त में प्रवेश करने के साथ ही रक्त में उपस्थित अ‍ॅपोट्रान्सफ़रिन नामक प्रथिन के साथ इसका ढ़ीला जोड़ तैयार हो जाता है। इसी को अब ‘ट्रान्सफ़रिन’ कहा जाता है। इसी ट्रान्सफ़रिन से ही शरीर की प्रत्येक पेशी को लोह की आपूर्ति होती है। लोह की शेष ज्यादा मात्रा यकृत में जमा की जाती है। शरीर की पेशियों में लोह ट्रान्सफ़रिन से अलग हो जाता है तथा पेशियों के अ‍ॅपाफ़ेरिटिन नामक प्रथिन से संयुग होता है। इस संयुग को फ़ेरिटिन कहते हैं।

आँतें
लोह + अ‍ॅपोट्रान्सफ़रिन = ट्रान्सफ़रिन – अ‍ॅपोट्रान्सफ़रिन
यदि यकृत पेशी के अ‍ॅपोफ़ेरिटिन के पूरी तरह लोह से संयुक्त हो जाने के बाद भी लोह शेष बचता है तो यह लोह हिमोसिडरिन नामक संयुग के रूप में जमा किया जाता है। यह संयुग पानी में नहीं घुलता है।

रक्त में लोह की मात्रा कम हो जाने पर फ़ेरिटिन में से फ़ौरन लोह की आपूर्ति की जाती है। यह लोह पुन: ट्रान्सफ़रिन के रूप में रक्त में रहता है और जिस पेशी में लोह की आपूर्ति की आवश्यकता होती है, उस पेशी में पहुँचाया जाता है। ऐसी आपातकालीन स्थिती में हिमोसिडरिन में जमा लोह का उपयोग शरीर नहीं कर सकता।

ट्रान्सफ़रिन और लाल रक्त पेशियों में एक अलग ही नाता होता है। अस्थिमज्जा में तैय्यार हो रही लाल रक्त पेशियों का पेशी आवरण और ट्रान्सफ़रिन इन में अत्यंत शक्तिशाली आकर्षण होता है। रक्त में ट्रान्सफ़रिन इस पेशी के आवरण में से पेशियों में शोषण किया जाता है। वहाँ पर लोह अलग हो जाता है। इसका प्रयोग हिमोग्लोबिन को तैयार करने के लिये किया जाता है। लोहविरहित ट्रान्सफ़रिन फ़ीर से रक्त में छोड दिया जाता है। कुछ व्यक्तियों में ट्रान्सफ़रिन की कमी होती है। ऐसे व्यक्तियों में लाल पेशियों को होनेवाली लोह की आपूर्ति अपर्याप्त साबित होती है। ऐसी पेशियों में हिमोग्लोबिन की मात्रा नॉर्मल मात्रा से कम होती है। इस पांडुरोग को हायपोक्रोमिक (हायपो= कमी) अ‍ॅनिमिया कहते हैं।

लाल रक्त पेशियों का जीवनकाल पूरा हो जाने के बाद ये पेशियाँ नष्ट हो जाती हैं। पेशी में उपस्थित हिमोग्लोबिन का लोह पुन: मुक्त हो जाता है। यह लोह ट्रान्सफ़रिन के माध्यम से पुन: यकृत पेशियों में पहुँच जाता है और फ़ेरिटिन के रूप में जमा किया जाता है। यही लोह फ़ीर से हिमोग्लोबिन तैयार करने के लिए उपयोग में लाया जाता है।

शरीर से प्रतिदिन साधारणत: ०.६ मिलीग्राम लोह विष़्ठा के माध्यम से बाहर निकाला जाता है। यदि किन्हीं कारणों से रक्तस्त्राव होता है (बवासीर, अल्सर आदि विकार) तो शरीर के बाहर निकलनेवाले लोह की मात्रा बढ़ जाती है। स्त्रियों में मासिक धर्म के दौरान साधारणत: १.३ मिलीग्राम से ज्यादा लोह शरीर के बाहर निकाला जाता है।

रक्त में लोह का शोषण छोटी आँतों के द्वारा होता है। शरीर में लोह की मात्रा कम हो जाने पर लोह के शोषण की मात्रा बढ़ जाती है और शरीर में लोह की मात्रा ज़्यादा हो जाने पर शोषण कम हो जाता है।

शरीर की सभी अ‍ॅपोफ़ेरिटिन और अ‍ॅपोट्रान्सफ़रिन लोह से भर जाने के बाद आँतों की पेशियों द्वारा लोह का रक्त में स्वीकार नहीं किया जाता। लेकिन आँतों की पेशीयों में लोह का भंडारण बढ़ जाता है। ये पेशियां सप्ताह में होनेवाले लोह शोषण को रोक देती हैं। इस सबके परिणाम के रूप में लोह शोषण घट जाता है और इस लोह को मल के द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है। ऐसा होने के बावजूद भी यदि कोई व्यक्ति आवश्यकता से ज़्यादा लोह आहार में लेता है तो वह लोह हिमोसिडरिन के स्वरूप में जमा होता है। यह हिमोसिडरिन पेशियों के लिए खतरनाक साबित हो सकता है।
(क्रमश:-)

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