रक्त एवं रक्तघटक -५७

आज तक हमने रक्त की विभिन्न पेशियों की जानकारी प्राप्त की। उनके कार्यों को समझा। रक्तपेशियों की सविस्तर जानकारी प्राप्त की। अब हम रक्त से संबंधित अन्य बातों की जानकारी प्राप्त करेंगे।

‘रक्त’ शब्द सुनते ही या पढ़ते ही हमें रक्तस्त्राव, रक्त-दान इत्यादि की याद आ जाती है। इसी के साथ एक और बात याद आती है वो है ‘रक्तसमूह’(रक्तगट)। यदि किसी व्यक्ति को रक्त की आवश्यकता होती है तो सबसे पहले उसका रक्त-समूह पूछा जाता हैं। उसके बाद उसी रक्त-समूह का रक्त उसे दिया जाता है। रक्तदान के समय आयी हुई रक्त की प्रत्येक बोतल के रक्त का रक्त-समूह सबसे पहले निश्‍चित किया जाता है। जिस व्यक्ति को रक्त चढ़ाया जाता है। यदि किसी अन्य रक्त-समूह का रक्त उसे चढ़ा दिया जाये तो वो उसके लिए हानिकारक साबित हो सकता है।

रक्तगट

आजकल लगभग सभी लोगों को अपना-अपना रक्त-समूह ज्ञात होता है। रक्त-समूह का तात्पर्य क्या हैं? वो कैसे निश्‍चित किया जाता हैं? मेरे रक्त से मिलनेवाले रक्त से क्या तात्पर्य हैं? ना मिलनेवाले(mismatched) रक्त के कारण मेरे प्राणों को धोखा कैसे निर्माण हो सकता है? इत्यादि के बारे में अब हम जानकारी प्राप्त करेंगे।

अपने शरीर की प्रतिकार शक्ति (immune system) का अध्ययन करते समय हमने देखा कि हमारे रक्त में विविध प्रकार की अँटिबॉडीज होती है। अँटिबॉडीज और अँटिजेन में प्रतिक्रिया होती हैं। अँटिजेन -अँटिबॉडी का रक्त से नजदीकी रिश्ता होता हैं। हम सबके रक्त की लाल पेशियों के अकारण पर विभिन्न प्रकार के अँटिजेन्स होते हैं और रक्त के द्राव में यानी प्लाझ्मा में अँटिबॉडीज होती हैं। अँटिजेन-अँटिबॉडी प्रतिक्रिया घटित करनेवाले सैकड़ो अँटिजेन्स रक्तपेशियों के आवरण पर होते हैं। इनमें से साधारणत: तीस अँटिजेन्स सभी में होते हैं। इनमें सिर्फ दो समूहों के अँटिजेन्स का रक्त-समूह से संबंध होता है। हम यहाँ सिर्फउनके बारे में ही जानकारी प्राप्त करेंगे। ये दो समूह हैं O-A-B समूह और Rh समूह। इसीलिए हमारा रक्त-समूह इन दोनों समूहों पर ही आधारित होता है।

यदि हम आ़ठ-दस लोगों से उनका रक्त-समूह पूछे तो कोई बतायेगा कि A पॉझिटिव्ह, कोई B पॉझिटिव्ह, तो कोई कहेगा O निगेटिव्ह। यानि हम अपने रक्त-समूह दो प्रकार से बताते हैं। A,B,O यह उस O-A-B इस समूह के साथ संबंध दर्शाते हैं तथा पॉझिटिव्ह और निगेटिव्ह Rh समूह से संबंध दर्शाता है। इन दोनों समूहों के बार में हम संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करेंगे।

१) O, A, B रक्त समूह :-
हमारे रक्त की लाल पेशियों के आवरण पर A और B ये दो अँटिजेन्स पाये जाते हैं। इसे अग्लुटिनोजेन (Agglutinogen) भी कहते हैं। इसका कारण यह है कि जब इस अँटिजेन्स की प्रतिक्रिया अँटिबॉडिज पर होती है, तब लाल रक्त रक्तपेशियां एक साथ आकर एक गोला बना लेती है। इसे अग्लुटिनेशन भी कहते हैं। यदि किसी भी व्यक्ति को उसके रक्त-समूह से ना मिलनेवाला रक्त चढ़ा दिया जाए तो उसके रक्त की लाल रक्तपेशियां रक्तवाहनियों में ऐसा गोला बना लेती है जो प्राणों के लिए धोखादायक साबित होता हैं।

लाल रक्तपेशियों पर ये अग्लुटिनोजेन्स माता-पिता से वंशपरंपरागत रूप से मिलते हैं। इसे जेनेटिक (गुणसूत्र) इनहेरिटन्स कहते हैं। किसी भी लाल रक्तपेशियों पर इनमें से एक अग्लुटिनोजेन होती हैं, किसी-किसी की रक्त पेशियों पर दोनों अग्लुटिनोजेन्स रहते हैं तथा किसी-किसी की रक्तपेशियों पर इनमें से कोई भी अग्लुटिनोजेन नहीं होती हैं। इसी आधार पर उस व्यक्ति का रक्त समूह इस प्रकार निश्‍चित किया जाता हैं।
संसार में सबसे ज्यादा व्यक्ति O रक्त-समूहवाले होते हैं। इसके बाद A, B और AB का क्रम आता है।

अब हम देखेंगे कि वंश परंपरा के आधार पर गुणसूत्रों के आधार पर रक्तसमूह कैसे तय होता है। O, A और B गुणसूत्र हमारा रक्त-समूह तय करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के शरीर की पेशीयों में क्रोमोसोम्स पर इन तीनों में से कोई भी दो गुणसूत्र (gencs) होते हैं। तीन गुणसूत्रों में से दो-दो गुणसूत्रों की तीन जोड़ियां बनती हैं। जैसे OO, OA, AA, OB, BB और AB। इन जोड़ियों में से एक गुणसूत्र माँ से और एक गुणसूत्र पिता से मिलता है। OO जोड़ीवाले व्यक्ति का रक्त-समूह O होता है। OA और AA में से कोई भी जोड़ी हो तो रक्तसमूह A होता है। OB और BB में से कोई भी जोड़ी हो तो रक्तसमूह B होता है। यदि AB इस तरह जोड़ी हो तो रक्तसमूह AB होता है।

हम सभी की रक्त पेशी पर जो अग्लुटिनोजेन होती है उसके विरूद्ध अँटिबॉडी अथवा अग्लुटिनिन हमारे प्लाझ्मा में होती हैं। उदाहरणार्थ जिस व्यक्ति का रक्तसमूह A हैं, उसकी रक्तपेशी पर A अग्लुटिनोजेन होती है तो रक्त के प्लाझ्मा में अँटी B अँटिबॉडी अथवा अग्लुटिनिन होती है। इसी प्रकार B रक्तसमूह के व्यक्ति में अँटि A अँटिबॉडि होती हैं। O रक्तसमूह के व्यक्ति में अँटि A और अँटि B दोनों अँटिबॉडिज होती हैं तथा AB रक्तसमूहवाले व्यक्ति में कोई भी अँटिबॉडी (रक्तसमूह से संबंधित) नहीं होती हैं।

नवजात अर्भक में रक्तसमूह से संबंधित अँटिबॉडिज लगभग नहीं होती हैं। जन्म के दूसरे महीने के बाद इन अँटिबॉडिज का बनना शुरु हो जाता है। उम्र के आ़ठवे से लेकर दसवे वर्ष तक इनकी संख्या बढ़ती जाती है व उसके बाद पुन: इनकी संख्या घटती जाती है।

O रक्तसमूहवाले व्यक्तियों में रक्तपेशी पर अँटिजेन नहीं होते हैं तथा AB रक्तसमूहवाले व्यक्तियों के प्लाझ्मा में अँटिबॉडिज नहीं होती हैं। किसी भी व्यक्ति के रक्त-समूह को तय करते समय इन अँटिजेन, अँटिबॉडिज प्रतिक्रिया का उपयोग किया जाता है।

किसी भी व्यक्ति को रक्त-समूह की जाँच करते समय उस व्यक्ति के रक्त की लालपेशियों को अलग कर लिया जाता हैं। उन्हें सादे सलाइन से धो लिया जाता है। काँचपट्टी (स्लाईड) पर एक जगह अँटि A अँटिबॉडीज युक्त सिरम की एक बूंद ली जाती है और दूसरी जगह अँटि B अँटिबॉडिजवाले सिरम की एक बूंद ली जाती हैं। इन सिरम की बूँदों पर एक-एक बूंद प्रक्रिया की गयी लाल रक्तपेशियों की एक बूंद मिला दी जाती है। कुछ मिनटों के बाद सूक्ष्मदर्शी में काँचपट्टी की जाँच की जाती है। यदि अँटि अ सिरम में ड़ाली हुयी रक्तपेशियों का गोला बन जाता है तो रक्तसमूह A अँटि B में हो जाने के कारण रक्त-समूह B, A और B दोनों में गोला बन जाता है तो रक्तसमूह AB और यदि दोनों जगहों पर गोला नहीं बनता है तो रक्तसमूह O निश्‍चित किया जाता है।

आज हम ने O, A, B रक्तसमूह के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त की। कल के लेख में हम Rh समूह के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे।
(क्रमश:-)

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