स्नायुसंस्था – १४

अब तक हमनें स्केलेटल स्नायु की रचना व कार्यो का अध्ययन किया। शरीर के आंतरिक अवयवों के स्मूथ स्नायुओं की रचना का हमनें अध्ययन किया। अब हम उनके कार्यो का अध्ययन करेंगे।

कार्य व रचना के आधार पर स्मूथ स्नायुओं को दो भागों में विभाजित किया गया है। १)मल्टीयुनिट स्मूथ स्नायु व २)सिंगलयुनिट स्मूथ स्नायु

१)मल्टीयुनिट स्मूथ स्नायु :
इस प्रकार के स्नायु में स्केलेटल स्नायु की तरह प्रत्येक स्नायुतंतु के लिये एक चेतातंतु होता है। स्नायुतंतु का आकुंचन पूरी तरह चेतातंतुओं से प्राप्त होनेवाले संदेश पर अवलंबित होता है व प्रत्येक तंतु स्वतंत्र रुप से आकुंचित होता हैं। इस प्रकार के स्नायु, आँखों की पुतलियों में होते हैं। त्वचा का अ‍ॅरेक्टर पाइली नामक स्नायु इस प्रकार का होता है।

२)युनिटरी अथवा सिंगल युनिट स्मूथ स्नायु :
यहाँ पर युनिट का अर्थ एक स्नायुतंतु नहीं है। सैकड़ो स्नायुतंतु एकत्रित रुप में, एकसंघ होकर, एक साथ काम करते हैं। इसीलिये इसे युनिटरी स्मूथ स्नायु कहते हैं। प्राय: सभी आंतरिक अवयवों में इस प्रकार से स्नायु पाये जाते हैं। (आँतें, रक्तवाहिनियाँ, बाईल डक्ट, मूत्रनलिका इत्यादि)

स्केलेटल स्नायु की तरह ही इस स्नायु के भी आकुंचन से प्रथिन तंतू सहभागी होते व ऊर्जा के लिये APT का उपयोग होता है। परन्तु इन दोनों प्रकार के स्नायुओं के कार्यों में काफ़ी फ़र्क है। कौन-कौन से है, अब हम इसका अध्ययन करेंगें। इसके लिये एक महत्त्वपूर्ण बात ध्यान में रखनी चाहिये कि स्केलेटल स्नायु फ़ौरन आकुंचित व प्रसारित होते हैं तथा स्मूथ स्नायु का आकुंचन धीरे-धीरे परन्तु ज्यादा समय तक टिकने वाला होता है। कई घंटों से लेकर कई दिनों तक यह स्थायी रहता है।

१) स्नायु के आंकुचन के दौरान अ‍ॅक्टीन व आयोसिन के तंतू एक-दूसर से जोड़े जाते हैं व फ़िर अलग-अलग हो जाते हैं। इससे स्नायु में प्रसरण होता है। यह क्रिया आकुंचन के समय होती रहती है। स्केलेटल मसल स्नायु की तुलना में स्मूथ स्नायु में यह क्रिया अत्यंत धीमी गति से होती हैं। (स्मूथ स्नायु के एक चक्र पूरा होने में जो समय लगता है उतने ही समय में स्केलेटल स्नायु में ऐसे १० से ३०० चक्र पूरा हो जाते हैं)।

२) आकुंचन के कार्य के लिये स्मूथ स्नायु अत्यंत कम ऊर्जा का उपयोग करते है। स्केलेटल स्नायु की तुलना में यह मात्रा १/१० से १/३०० तक होती है। इसके कारण ऊर्जा की बचत होती है। यह काफ़ी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि आँतें, मूत्रनलिका इत्यादि स्थानों के स्नायु लंबे समय तक आकुंचित रहते हैं परन्तु इसके लिये वे अति अल्प ऊर्जा का उपयोग करते हैं।

३) यद्यपि उपरोक्त दोनों चीजों में स्मूथ स्नायु पीछे होते हैं फ़िर भी आकुंचन के फ़लस्वरुप निर्माण होने वाली शक्ती अथवा बल इनमें स्केलेटल स्नायु की अपेक्षा ज्यादा होता है। स्मूथ स्नायु में यह बल ४-६ kg/cm2 होता है, वहीं स्केलेटल स्नायु में यह मात्र ३-४ kg/cm2 होता है।

४) स्मूथ स्नायु के पूरी तरह आकुंचित हो जाने के बाद, उसी स्थिती में रहने के लिये अत्यंत कम मात्रा में संदेश वहन होने पर भी वो पर्याप्त होता है और उसमें ऊर्जा में अतिअल्प उपयोग की जाती है। यह स्केलटेल स्नायु की तुलना में मात्र १/३०० होती हैं। इसे ‘लॅच’ मेकॅनिझम कहते हैं। इससे ऊर्जा की बचत होती है।

५) यदि खोखले अवयवों के ये स्नायु किन्ही कारनों से तन जाये अथवा मोटे हो जाये तो भी उनकी आकुंचन शक्ती पर इसका प्रभाव नहीं होता। स्नायु के तन जाने पर थोड़े समय के लिये उसकी शक्ती कम हो जाती। परन्तु मात्र कुछ क्षणों में ही यह शक्ती पूर्णवत हो जाती है। उदा.- मूत्राशय – इसमें काफ़ी मात्रा में मूत्र जाता हो जाने के बाद भी स्नायु की शक्ती कम नहीं होती।

६) स्केलेटल स्नायु की तरह इनमें भी आकुंचन के दौरान स्नायु में कॅल्शियम की मात्रा बढ़ जाती है। इस वृद्धि में चेतातंतु के संदेश के साथ-साथ कुछ संप्रेरक व स्नायुतंतू पर आने वाला तनाव भी कारणीभूत साबित होते हैं। स्मूथ स्नायु के आकुंचन पर नियंत्रन रखनेवाली इन तीन चीजों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।

अ) चेतासंस्था द्वारा होनेवाले नियमन : स्मूथ स्नायु को चेतातंतु की आपूर्ति ऑटोनोमिक चेतासंस्था द्वारा होती है। यहाँ पर ये चेतातंतु स्नायु तक ना जाकर थोड़ा पहले ही समाप्त हो जाते हैं। इसीलिये इन स्नायुओं में न्युरोमसक्युलर जंक्शन नहीं होते हैं। स्नायुतंतु व चेतातंतु के सिरों का अंतर कुछ नॅनोमीटर्स से लेकर कुछ मायक्रोमीटर्स तक होता है। चेतातंतु में से स्रवित होने वाला न्युरोट्रान्समीटर रसायन डिफ्युजन पद्धति से स्नायुतंतु तक पहुँचता है। यहाँ पर दो प्रकार के न्युरोट्रान्समीटर्स पाये जाते हैं। १)अ‍ॅसिटाइलकोलीन २)नॉरएपिनेफ़्रिन। ये दोनों रसायन एक-दूसरे के विरुद्ध कार्य करते हैं। जिन स्नायुओं को अ‍ॅसिटाइलकोलीन कार्यरत करता है, वहाँ पर नॉरएपिनेफ़्रिन, इस कार्य को रोकता है। जहाँ पर नॉरएपिनेफ़्रिन स्नायु को कार्यरत करता हैं वहाँ पर अ‍ॅसिटाइलकोलीन कार्य को रोकता है। इसका कारण बिल्कुल सरल है। प्रत्येक स्नायुतंतु पर, इन दोनों रसायनों के लिये प्रचित रिसेप्टर्स होते हैं। इन में कुछ रिसेप्टर्स कार्य को रोकने वाले तो कुछ कार्य को गति प्रदान करने वाले होते हैं।

स्मूथ स्नायु के आकुंचन में कॅल्शिअम की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। पेशीबाह्य द्राव से बड़ी मात्रा में कॅल्शिअम के अणू पेशी में प्रवेश करते हैं। यहाँ पर सोडियम के अणू काफ़ी कम मात्रा में पेशी में प्रवेश करते हैं। पेशी के आवरण का डीपोलरायझेशन कॅल्शिअम के अणुओं के कारण होता है। यहाँ पर पेशीबाह्य द्राव में कॅल्शिअम की मात्रा ज्यादा होती है। इस स्नायु तंतु की विशेषता यह है कि एक बार शुरु हो गये आकुंचन को हमेशा के लिये बरकरार रखने के लिये आगे चलकर नये अ‍ॅक्शन पोटेंशिअल की आवश्यकता नहीं होती। इसके लिये, पेशी के अंतर्गत बड़ी मात्रा में कॅल्शिअम के मुक्त अणुओं का होना पर्याप्त होता है।

स्मूथ पेशी में सारकोप्लाझमिक रेटिक्युलम नहीं के बराबर होता है। इन पेशियों को कॅल्शिअम की आपूर्ति पेशी बाह्य द्राव से होती है। यदि किन्हीं कारणों से पेशीबाह्य द्राव में कॅल्शिअम की मात्रा घट जायें तो स्नायु का आकुंचन पूरी तरह रुक जाता है। बाहरी कॅल्शिअम डिफ्युजन पद्धति से पेशी में घुसता है। इस क्रिया में २०० से ३०० मिली सेकंड लगते हैं। इस कालावधी के बाद स्नायुओं का आकुंचन शुरु होता है। इस समय को ‘लॅटेन्ट पिरिअड’ कहते हैं। स्केलेटल स्नायु की तुलना में स्मूथ स्नायु में यह समय ५० गुना ज्यादा होता है। इसी लिये इसके कार्य धीमी गति से शुरु होते हैं।

स्मूथ स्नायु, पेशी के बाहरी मॅट्रीक्स के विविध पदार्थों के कारण उसका आकुंचन प्रसरण बदलता है। उदाहरणार्थ –

* प्राणवायु की मात्रा कम होने पर स्नायु प्रसारित होते हैं।
* कार्बनडाय ऑक्साईड की मात्रा बढ़ जाने पर स्नायु प्रसारित होते हैं।
* यदि हाईड्रोजन अणु की मात्रा बढ़ जाये तो भी स्नायु प्रसारित होते हैं।
* कॅल्शिअम की मात्रा कम होने से, पोटॅशिअम की मात्रा बढ़ने से, तापमान के बढ़ने से भी स्नायु प्रसरित होते हैं। इसका ज्यादा परिणाम रक्तवाहनियों पर दिखायी देता है। उपरोक्त कारणों से यदि स्नायु प्रसारित हो जाते हैं तो रक्तवाहनियों का खोखलापन बढ़ जाता है। इसे (vasodilation) कहते हैं।

कुछ स्मूथ स्नायु (self excitatory) होते हैं। यानी किसी भी बाहरी संवेदन के बिना इसमें अ‍ॅक्शन पोटेंशिअल का निर्माण हो जाता है। परन्तु कुछ अवयवों में (आँते, हृदय) इस अ‍ॅक्शन पोटेंशिअल जुड़कर (एक में एक मिलकर) सभी स्नायुओं पर यह पोटेंशिअल फ़ैल जाता है। इससे स्नायु आकुंचित होता है। यह कार्य जिस पेशी से शुरु होता है उसे पेसमेकर पेशी कहते हैं

(क्रमश:)

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