हंपी भाग- ४

हंपी में प्रवेश करते ही धीरे धीरे विजयनगर के वैभवशाली साम्राज्य के चिह्न दिखायी देने लगते हैं। लेकिन जिस पल हम इस २४ मील के इला़के में प्रवेश करते हैं, उसी समय आज नष्ट हो चुके विजयनगर साम्राज्य के दरवाज़े हमारे लिए खुल जाते हैं। इस बहुत बड़े इला़के में विजयनगर के गतवैभव की शान रहनेवाली बहुत ही सुंदर वास्तुएँ समय के घाव के निशान लेकर आज भी विद्यमान हैं।

दर असल इन वास्तुओं में कौनसी महत्त्वपूर्ण है या कौनसी गौण है, यह सवाल ही नहीं उठता, क्योंकी इस हर एक वास्तु की अपनी एक कहानी है, इसीलिए हमें हर एक वास्तु को देखना चाहिए। जैसा कि हम गत भाग में देख ही चुके हैं कि यहाँ पर तीन प्रकार की वास्तुएँ हैं। राजाओं से संबंधित वास्तुएँ, धार्मिक वास्तुएँ और सुरक्षा के लिए बनायी गयी वास्तुएँ।

इस इला़के में प्रवेश करते ही दिखायी देता है, एक बहुत बड़ा चबूतरा या मानो जैसा कोई बड़ा स्टेज। यह चबूतरा ‘दसेरा डिब्बा’ या ‘महानवमी डिब्बा’ इस नाम से जाना जाता है।

विजयनगर के सम्राट कृष्णदेवराय ने कलिंगविजय के स्मारक के रूप में इसका निर्माण किया था। यह चबूतरा चौकोर आकार का, बहुत बड़ा और बहुत ऊँचा है। इसकी रचना तीन स्तरों में की गयी है। इस पर चढने के लिए पत्थर से बनायी गयी सिढ़ीयाँ हैं। दूर से उसकी भव्यता का अंदाज़ा हम नहीं लगा सकते, उस पर चढ़ने से ही हमें उसकी भव्यता का अंदाज़ा हो सकता है। इस चबूतरे पर खड़े रहने पर हंपी का सारा इलाक़ा आसानी से दिखायी देता है।

इस महानवमी ड़िब्बे से हम विजयनगर की वास्तुकला से परिचित होने लगते हैं। इसपर हाथी, घोड़े चित्रित किये गये हैं। एक ही क़तार में चित्रित किये गये हाथी यह इस चबूतरे की पहचान है।

लेकिन इतने बड़े चबूतरे का निर्माण उस समय भला क्यों किया गया होगा? यह सवाल आपके मन में निश्‍चित ही उठा होगा। इतिहासकारों के अनुसार इसका उपयोग विजयनगर के शासक करते थें। इस दसेरा ड़िब्बे पर बैठकर राजा विभिन्न मनोरंजन के कार्यक्रम, उनके सैन्यदल की क़वायतें, प्राणियों द्वारा किये जानेवाले खेल आदि देखा करते थे और हंपी मे नौ दिनों तक चलनेवाले नवरात्री के उत्सव और दशहरे के उत्सव का भी आनंद लेते थे। शायद इसीलिए इस चबूतरे को ‘महानवमी ड़िब्बा’ या ‘दसेरा ड़िब्बा’ कहा जाता होगा।

वैसे देखा जाये तो हंपी यह एक सुनियोजित तथा सुरचित नगरी थी, क्योंकि यहाँ पर शासकों से लेकर सामान्य प्रजाजनों तक सभी की आवश्यकता अनुसार वास्तुओं का निर्माण किया गया था। आज इन वास्तुओं को देखकर हम इस बात का अंदाज़ा लगा सकते हैं।

हंपी में स्थित विरूपाक्ष का मंदिर सबसे प्राचीन माना जाता है। एक राय के अनुसार यह मंदिर हंपी में सातवीं सदी से स्थित है और इसका संबंध फ़िर एक बार हंपी के धार्मिक क्षेत्र होने के साथ है। लेकिन जरा रुकिए, इस भव्य विरूपाक्ष मंदिर में प्रवेश करने से पहले हम महाविष्णु के ऐसे एक रूप का (महाविष्णु के दस रूपों में से एक का) दर्शन करते हैं, जिनके हमें मंदिरों में शायद ही दर्शन होते हैं।

खुले आसमान के नीचे स्थित हैं, ‘नरसिंह’ भगवान। नरसिंह यहाँ पर उनके रूप को स्पष्ट करनेवाले नाम से जाने जाते हैं, ‘उग्र नरसिंह’ इस नाम से। यदि केवल एक शब्द में ही इस मूर्ति का वर्णन करना हो, तो इसे हम ‘विशाल’ कह सकते हैं। इससे आप उस मूर्ति की भव्यता का अंदाज़ा लगा सकते हैं। लगभग ६.७ मीटर्स की ऊँचाईवाली यह मूर्ति एकही पाषाण में से तराशी गयी है। यहाँ पर नरसिंह भगवान बैठी हुई मुद्रा में हैं। वे शेषनाग पर आरूढ हैं और उनके मस्तक पर शेषनाग ने छत्र धारण किया हुआ हैं और इस छत्र के भी ऊपर कीर्तिमुख है। नरसिंह ने जिसका नाश किया, वह हिरण्यकश्यपु नामक राक्षस तो यहाँ पर नहीं है, लेकिन इस मूर्ति के मुख पर हिरण्यकश्यपु का वध करते हुए जो भाव थे, वही भाव हैं। शायद इसी कारण ये ‘उग्र नरसिंह’ के नाम से जाने जाते होंगे।

इस मूर्ति का निर्माणकाल ऐतिहासिक अन्वेषण से ज्ञात होता है। लेकिन काल के प्रभाव के कारण इस मूर्ति का का़फ़ी नुकसान हो चुका है। कहा जाता है की इस मूर्ति के साथ लक्ष्मीजी की मूर्ति भी विद्यमान थी, लेकिन आज इस मूर्ति को संग्रहालय में जतन किया गया है। इस नरसिंह की मूर्ति की रक्षा के लिए यानि उसे मौसम और काल के प्रभाव से सुरक्षित रखने के लिए हर संभव प्रयास किये गये हैं।

भगवान नरसिंह के दर्शन करने के बाद अब हम विरूपाक्ष मंदिर में प्रवेश करते हैं।

‘कालाय तस्मै नम:’ इस मंत्र का जाप करते हुए हंपी में स्थित कई वास्तुओं ने काल के आगे हार मान ली है। अपवाद है, केवल इस एक ‘विरूपाक्ष मंदिर’ का।

आज इतनी सदियाँ बीत जाने के बाद भी सुस्थिति में विद्यमान रहनेवाला हंपी का यह एकमात्र मंदिर है। आज भी इस मंदिर में प्रतिदिन पूजन-अर्चन होता है। भगवान शिव इस मंदिर में शिवलिंग के रूप में विराजमान हैं।

विजयनगर के साम्राज्य की स्थापना के पूर्व और उसके विनाश के बाद भी यह मंदिर हंपी में स्थित है। देखा जाये तो विजयनगर के जन्म से उसके विनाश तक का यह एकमात्र गवाह है। इस मंदिर का निर्माण कब हुआ और इसे किसने बनवाया, इस विषय में कोई भी लिखित जानकारी उपलब्ध नहीं होती। किसी एक राय के अनुसार इस मंदिर का निर्माण सातवीं सदी में किया गया, लेकिन इसकी रचना को देखते हुए यह ११ वीं या १२ वीं सदी में निर्मित होगा, ऐसा कुछ लोगों का मानना है। लेकिन एक बात तो तय है कि यह मंदिर बहुत ही प्राचीन है।

विरूपाक्ष यहाँ के प्रमुख देवता हैं, जिनके नाम से यह मंदिर जाना जाता हैं। इस मंदिर में अन्य भी कई देवता हैं, लेकिन उनमे से दो प्रमुख हैं- ‘पंपा’ नामक स्थानीय देवता और ‘देवी भुवनेश्वरी’।

९ मंज़िला भव्य गोपुर और उसके शिखर पर विद्यमान गोमाता के सिंगों के समान रचना, यह विरूपाक्ष मंदिर की पहचान है। कहा जाता है कि विजयनगर साम्राज्य की स्थापना के पूर्व यह मंदिर बहुत ही छोटा था। विजयनगर के शासकों ने इस मंदिर में कई रचनाओं का निर्माण करते हुए इस मंदिर का विस्तार किया। इसी विस्तार के दरमियान इस मंदिर में गर्भगृह के साथ कई रचनाओं का निर्माण हुआ। इन रचनाओं में मुखमंडप, रंगमंडप आदि विशेष रचनाएँ भी सम्मीलित हैं। रंगमंडप यह केंद्रवर्ति मंडप है और इसमें कई स्तंभ हैं। इसका निर्माण सम्राट कृष्णदेवराय के शासनकाल में किया गया, ऐसा माना जाता है। यह रंगमंडप विजयनगर की वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना है। पूरे मंदिर में विभिन्न प्रकार की नक़्काशी और प्राणि चित्रित हैं। यहाँ के सोलह खंभों पर ‘यल्ली’ नामक एक विशेष प्राणि को चित्रित किया गया है। यह यल्ली घड़ियाल पर पैर रखकर खड़ा है और उस यल्ली पर योद्धा आरूढ है। इस रंगमंडप का सिलिंग विजयनगर की चित्रशैली का बेहतरीन नमूना माना जाता है। इन चित्रों में दशावतार, महाभारत के प्रसंग इनके साथ ही विजयनगर के स्थापक हरिहर और बुक्क इनके गुरु विद्यारण्य स्वामीजी के भी दर्शन होते हैं। इतना समय बीतने के बावजूद भी ये चित्र सुस्थिति में हैं। इसी कारण ये विजयनगर चित्रशैली के संरक्षित नमूनें हैं।

९ मंज़िला भव्य गोपुर होनेवाला पूर्वी द्वार यह मंदिर का मुख्य प्रवेशद्वार है। ५२ मीटर्स ऊँचे इस गोपुर के नीचले दो स्तर पत्थर से निर्मित हैं और ऊपरी स्तर का निर्माण इटों से किया गया है। मुख्य प्रवेशद्वार से प्रवेश करते ही सबसे पहले मंदिर का बड़ा प्रांगण दिखायी देता है और यहीं से भीतर गर्भगृह की ओर प्रवेश किया जाता है। इस अंदरुनी प्रवेशद्वार पर भी एक तीन मंज़िला गोपुर है, जिसका निर्माण सम्राट कृष्णदेवराय ने किया था।

गर्भगृह में भगवान विरूपाक्ष शिवलिंग के रूप में स्थित हैं। इस गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा मार्ग है।

वैसा देखा जाये तो हर एक मंदिर के देवता का अपना एक वाहन होता है। अधिकांश मंदिरों में वह रथ के रूप में होता है, लेकिन दक्षिण भारत के मंदिरों में अधिकांश मंदिरों की देवताओं का वाहन होनेवाले हाथी दिखायी देते हैं। विरूपाक्ष मंदिर में आज भी यहाँ की देवता का वाहन होनेवाला जिवित हाथी दिखायी देता है।

इस मंदिर की और एक विशेषता है, यहाँ पर की गयी जल-आपूर्ति की व्यवस्था। यह व्यवस्था आज के ज़माने की नहीं है, बल्कि पुराने ज़माने की है। तुंगभद्रा नदी के पानी को ठेंठ मंदिर में लाने की व्यवस्था यहाँ पर दिखायी देती है।

भगवान विरूपाक्ष के दर्शन तो हो चुके, अब इस प्रवास में और एक महत्त्वपूर्ण रचना को देखकर ही आगे बढ़ते है।

हंपी यह एक बहुत बड़े साम्राज्य की उतनी ही बड़ी राजधानी थी। यहाँ के शासकों के दूरदर्शीत्व का उदाहरण पेश करनेवाली कुछ रचनाएँ यहाँ पर किये गये उत्खनन में प्राप्त हुई है। यहाँ के शासकों ने अपनी प्रजा के लिए जलआपूर्ति की सुविधा बहाल की थी, उसीके साथ उनके लिए अनाज की भी व्यवस्था की थी।

यहाँ पर किये गए उत्खनन में अनाज का संग्रह करने के लिए निर्मित की गयी कुछ रचनाएँ मिली है। उन्हें हम अनाज के भंडार या गोदाम कह सकते है। इनमे से कुछ रचनाएँ कुएँ जैसी गोलाकार है, तो कुछ रचनाएँ चौकोर आकार की है। ये रचनाएँ जिस स्थान पर विद्यमान है, वह स्थान राजाओं से संबंधित वास्तुओं का है।

अब तक तो कुछ गिने चुने स्थानों को ही हमने देखा है और कई वास्तुएँ देखना बाकी है। इन सभी वास्तुओं को उनके जन्म से संगत करनेवाली तुंगभद्रा का आदर्श रखते हुए हमें आगे चलना है।

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