हंपी भाग – ३

तुळुव राजवंश के नरसा नायक के पुत्र कृष्णदेवराय जब विजयनगर के शासक बन गये, तब मानो विजयनगर का भाग्योदय ही हुआ। ये ‘कृष्णदेवराय’ ही हैं वे राजा, जिनका नाम हंपी यानि कि विजयनगर साम्राज्य के साथ किसी समीकरण की तरह दृढ़तापूर्वक जुड़ा हुआ है। ये कृष्णदेवराय युवावस्था में ही, १६वी सदी की शुरुआत में ही विजयनगर साम्राज्य के शासक बन गये।

विजयनगरविदेशी सैलानियों के दस्तावे़जों में से कृष्णदेवराय के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। ये बहुत ही शूर योद्धा, कुशल सेनानी तो थे ही, साथ ही उत्तम शासक के लिए आवश्यक ऐसे सभी गुण उनके पास थे और साथ ही वे बहुत ही ज्ञानी भी थे। इनके बारे में ऐसा कहा जाता है कि कुछ लड़ाइयों में अपनी पराजय होते हुए देखकर उन्होंने व्यूहरचना में उसी समय कुछ ऐसे बदलाव किये, जिनके कारण पराजय विजय में बदल गयी।

उन्होंने उनके अन्तर्गत शत्रुओं का बंदोबस्त तो किया ही, साथ ही विदेशियों को भी धूल चटायी। उनके इस पराक्रम के कारण उन्होंने विजयनगर साम्राज्य का विस्तार कृष्णा नदी से लेकर रामेश्वर तक और पश्चिमी सागर से लेकर ओरिसा तक किया। उनके इस प्रचण्ड राज्यविस्तार के कारण ही उन्होंने सम्राट, महाराजाधिराज, सिंहासनाधीश्‍वर, आंध्रभोज आदि बिरुद धारण किये।

सम्राट कृष्णदेवराय ने विजयनगर साम्राज्य में कई सुविधाओं का निर्माण किया। ये विद्वान शासक कला के भी आश्रयदाता थे। इसी कारण उन्होंने कई मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया। हंपी में स्थित बालकृष्ण का मंदिर भी इन्होंने ही बनवाया और प्रसन्न विरुपाक्ष के मंदिर को दानधर्म भी किया।

इन विद्वान शासक ने स्वयं भी कई ग्रन्थों की रचना की। उनकी रचनाओं में से ‘आमुक्तमाल्यदा’ नामक तेलगु भाषा में रचित काव्य, यह उनकी सर्वोत्तम रचना मानी जाती है। उनके दरबार में आठ पंडित थे, जो ‘अष्टदिग्गज’ नाम से जाने जाते थे। ‘तेन्नालीराम’, जो बिरबल के समान ही एक अत्यन्त बुद्धिमान विद्वान थे, वे इन अष्टदिग्गजों में से एक थे, ऐसी एक राय है।

कला, साहित्य, विद्वत्ता, शूरता इनमें अग्रणी ऐसे ये सम्राट हंपी के इतिहास का एक प्रभावी व्यक्तित्व था और उनके इन गुणों तथा गुणग्राहकता के कारण ही वे विजयनगर के साथ एक समीकरण के समान दृढ़ हो गये।

किसी जमाने में दुनिया के नक़्शे पर प्रमुख स्थान होनेवाला हंपी, आज केवल एक छोटा गाँव है। लेकिन यहाँ पर सैलानियों के आवश्यक सभी सुविधाएँ मौजूद हैं। सैलानियों का यहाँ आने का प्रमुख कारण तो अब तक आप जान ही गये होंगे। जी हाँ, कई सदियों पूर्व बनायी गयीं यहाँ की वास्तुओं को देखने के लिए। इनमें से कई वास्तुएँ पुरातत्त्व विभाग द्वारा किये गये उत्खनन में से आज फिर एक बार दुनिया के सामने आयी हैं। कई सदियों तक जमीन में दबी रहने के कारण इन वास्तुओं की स्थिति उतनी अच्छी नहीं है। इनमें से कई रचनाएँ आज भग्न अवस्था में हैं और कइयों के तो केवल अवशेष ही दिखायी देते हैं। केवल विरूपाक्ष मंदिर ही इसका अपवाद है। क़रीबन २४ मीलों के प्रदेश में स्थित ये वास्तुएँ और शिल्परचनाएँ एक गौरवशाली और वैभवशाली इतिहास की गवाह हैं और उन्हें देखनेवालों के सामने  उस इतिहास को साकार करती हैं।

विजयनगर साम्राज्य का हिस्सा या उसकी राजधानी बनने से पूर्व भी हंपी एक धार्मिक क्षेत्र के रूप में विख्यात था। इसका कारण रामायण में प्राप्त होता है। रामायण के समय में यहाँ पर स्थित पंपा सरोवर और उसी नाम से विख्यात ‘पंपापति’ अर्थात् विरूपाक्ष का मंदिर इस धार्मिक क्षेत्र के केंद्रबिंदू थे। आगे चलकर विजयनगर साम्राज्य का हिस्सा बनने के बाद यहाँ पर कई सुंदर मंदिरों का निर्माण किया गया। तब उसका धार्मिक महत्त्व अधिक ही विकसित हो गया। इसी कारण हंपी को केवल विजयनगर साम्राज्य की राजधानी के रूप में न देखते हुए रामायणकाल से अस्तित्व में होनेवाली नगरी के रूप में देखना चाहिए, तभी हमें हंपी की प्राचीनता का अन्दाजा हो सकता है।

हंपी के आसपास के इलाके में स्थित वास्तुओं को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।

१)    धार्मिक वास्तु-जिनमें मंदिरों का समावेश होता है।
२)    शासक तथा प्रजाजनों द्वारा उपयोग में लायी जानेवाली वास्तुएँ।
३)    राज्य की रक्षाव्यवस्था से जुड़ी हुई वास्तुएँ।

ऊपर उल्लेखित तीन विशिष्ट हेतुओं से विभिन्न वास्तुओं का निर्माण हंपी में अलग अलग काल में किया गया। अहम बात यह है कि इनके निर्माण में हंपी और आसपास के इलाके में विपुल मात्रा में उपलब्ध पत्थर का ही इस्तेमाल किया गया। लेकिन १४वी सदी के मध्य में यानि कि विजयनगर की स्थापना के बाद वहाँ के शासकों ने वास्तुओं के निर्माण के लिए एक अलग पर्याय को चुना और वह था, ग्रॅनाईट का पत्थर। इन वास्तुओं का इतिहास जितना रोचक है, उतना ही रोचक उनके निर्माण के पीछे होनेवाला इतिहास है। तो चलिए, उसकी ओर रुख करते हैं।

विजयनगर साम्राज्यकाल के दौरान विकसित हुई वास्तुशैली को ‘विजयनगर शैली’ कहा जाता है। इस शैली का प्रवास चालुक्य – होयसळ – विजयनगर इस प्रकार है। यानि क्या? तो चालुक्यों के शासनकाल में उनकी अपनी एक विशेष शिल्पशैली थी। आगे चलकर जब होयसळों का शासन प्रस्थापित हुआ, तब उन्होंने चालुक्य शैली में परिवर्तन कर उनकी अपनी शैली विकसित की और आगे चलकर इसी शैली का विकास होकर विजयनगर शैली का निर्माण हुआ।

होयसळ शासकों के जमाने में ‘चिस्ट’ नामक पत्थर से वास्तुओं का निर्माण किया जाता था, यह पत्थर ज्यादा स़ख्त न होने के कारण उसपर खुदाई करना आसान था। शुरुआती काल में विजयनगर के राज्यकर्ताओं ने भी इसी पत्थर का इस्तेमाल किया होगा। लेकिन अचानक से १४वी सदी के मध्य में संगम राजाओं ने वास्तुनिर्माण के लिए ‘ग्रॅनाइट’ को चुना। इसके प्रमुख कारण कुछ इस प्रकार हैं – यह पत्थर उनके ही प्रदेश में आसानी से उपलब्ध था, जिसके कारण उन्हें शत्रुप्रदेश से ‘चिस्ट’ लाने की आवश्यकता नहीं रही। तब तक कई वास्तुओं के निर्माण में ग्रॅनाईट का उपयोग अन्यत्र प्रचलित हो चुका था, जिससे ग्रॅनाईट की उपयोगिता सिद्ध हो चुकी थी।

इसी ग्रॅनाईट से फिर हंपी के आसपास अनगिनत वास्तुओं का निर्माण हुआ। इन सबमें आश्चर्यजनक ऐसी एक बात भी सामने आती है। यहाँ का कई सदियों पुराना विरूपाक्ष मंदिर, जो ११वीं सदी या उससे भी पहले का माना जाता है, वह आज भी अच्छी स्थिति में है, लेकिन हंपी में एक ‘कमलमहल’ या ‘लोटस पॅलेस’ को छोड़कर किसी अन्य राजमहल का अस्तित्व दिखायी नहीं देता। आज हंपी में हरिहर और बुक्क द्वारा निर्मित राजमहल के केवल पाषाणों के भग्नावशेष ऩजर आते हैं। इस राजमहल की केवल नींव और कुछ अन्य रचनाएँ ही बची हैं, लेकिन राजमहल अस्तित्व में नहीं है। इसका एक कारण यह बताया जाता है कि हालाँकि इसकी नींव ग्रॅनाईट की थी, मग़र बाकी की रचना के निर्माण में लकड़ी का ही इस्तेमाल किया गया था। जाहिर है, इतने सालों में लकड़ी की इस रचना का अस्तित्व मिट गया। उत्खनन में प्राप्त हुई राख भी इसी बात की पुष्टि करती है।

हंपी में स्थित ‘विठ्ठलस्वामी मंदिर’ और ‘हजारराम मंदिर’ ये विजयनगर शैली के उत्तम उदाहरण माने जाते हैं। मंदिर का विशाल गोपुर, पत्थर के खंभों पर अंकित आकृतियाँ, विभिन्न प्रकार की नक़्काशी, इसके साथ कुछ मंदिरों में अंकित किये गये ऐतिहासिक प्रसंग, यह विजयनगर शैली की पहचानी मानी जाती है।

यहाँ के मंदिरों की रचना साधारणतः इस प्रकार होती थी। छोटे मंदिरों में केवल गर्भगृह और अहाता होता था। मध्यम आकार के मंदिरों में ‘गर्भगृह’, ‘शुकनासी’, ‘नवरंग’-अंतराल, बाहर की ओर मण्डप और ‘रंगमंडप’ होता था; वहीं, बड़े मंदिरों के प्रवेशद्वार पर ऊँचे ऊँचे गोपुर होते थे, जिन्हें विजयनगर के राजाओं द्वारा बनाया जाता था और इसीलिए उन्हें ‘रायगोपुरम्’ कहा जाता था। इन मंदिरों में गर्भगृह के साथ ‘प्रदक्षिणामार्ग’ होता था और ‘महामंडप’ तथा ‘कल्याणमंडप’ ऐसी दो विशेष रचनाएँ होती थीं। इन बड़े मंदिरों में तालाब का निर्माण भी किया जाता था, जिसका पानी उपयोग में लाया जाता था।

हमने राजमहल के बारे में पढ़ा। जो कहानी राजमहल की है, वही कहानी नागरिकों के निवास की। क्योंकि आज हंपी मे उस जमाने के नागरिकों के निवासस्थानों का अस्तित्व दिखायी नहीं देता। इनके बारे में केवल सैलानियों के दस्तावे़जों में से ही जानकारी प्राप्त होती है।

अब बाक़ी रहा, हंपी की वास्तुरचना का अन्तिम और महत्त्वपूर्ण हिस्सा; नगर की रक्षा से जुड़ी रचनाएँ। इनका वर्णन भी केवल ऐतिहासिक दस्तावेजों में ही मिलता है। उस जमाने में यहाँ पर आ चुके सैलानी हंपी के चहूँ ओर विद्यमान ७  और ६ चहारदीवारियों का वर्णन करते हैं।

ख़ैर! हंपी के इन वास्तुओं के बारे में इतना कुछ जानने के बाद आप उन्हें देखने के लिए उत्सुक हो चुके होंगे। लेकिन उसके लिए एक ह़फ़्ता इन्त़जार करते हैं।

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