कोल्हापुर भाग-५

कोल्हापुर, इतिहास, अतुलनिय भारत, नरसोबाची वाडी, श्रीनरसिंहसरस्वती, भारत, भाग-५

ऐसी प्रख्यात पंचगंगा। आली कृष्णेचिया संगा।
प्रयागाहुनि असे चांगा। संगमस्थान मनोहर॥

श्रीगुरुचरित्र के १८ वें अध्याय मे वर्णित पंचगंगा-कृष्णा संगम का यह मनोहर स्थान कोल्हापुर शहर से महज़ एक घंटे की दूरी पर है। यह पवित्र क्षेत्र ‘नरसोबाची वाडी’ इस नाम से जाना जाता है।

सद्गुरु श्रीदत्तात्रेय के अवतार के रूप में जाने जानेवाले ‘श्रीनरसिंहसरस्वती’जी ने इस स्थान पर १२ वर्षों तक निवास किया था और इसी कारण यह क्षेत्र ‘नरसोबाची वाडी’ इस नाम से प्रख्यात हुआ। गाणगापुर, औदुंबर इन दत्तक्षेत्रों जितना ही यह क्षेत्र भी पवित्र है।

श्रीगुरुचरित्र में वर्णित किया गया है कि यहाँ पर कृष्णा और पंचगंगा इन नदियों का संगमस्थान है। इस नदी के एक तट पर दत्तपादुका का स्थान रहनेवाला ‘नरसोबाची वाडी’ यह क्षेत्र है, वहीं दूसरे तट पर श्रीगुरुचरित्र में वर्णित ‘अमरापुर’ यह गाँव है। श्रीनरसिंहसरस्वतीजी ने इस स्थान पर १२ वर्षों तक निवास किया और उनके इस निवास के दौरान घटित एक घटना का श्रीगुरुचरित्र के १८ वें अध्याय में वर्णन किया गया है।

वैसे देखा जाये तो ‘नरसोबाची वाडी’ यह एक छोटासा गाँव है, लेकिन जिस पल हम कृष्णा नदी के विशाल घाट पर स्थित दत्तपादुका मंदिर में प्रवेश करते हैं, तब मन को एक असीम शांति का अनुभव होता है। कृष्णा नदी का प्रवाह यहाँ पर काफ़ी विशाल है। इसी प्रवाह पर बनाये गये घाट पर ही दत्तपादुका का स्थान यानि की मंदिर है। यहाँ पर आते ही भक्त जिस पल इन पादुका के दर्शन करते हैं, उसी क्षण मन, बुद्धि और इंद्रियोंसहित उनके सारे गात्र एक ही पल में उन सद्गुरुतत्त्व के सामने नतमस्तक हो जाते है। यहाँ पर स्थित दत्तपादुका को ‘मनोहर पादुका’ यह संज्ञा है।

पादुकामंदिर से कुछ ही दूरी पर यहाँ पर बहनेवाली विशाल कृष्णामैय्या कोल्हापुर से बहते हुए आनेवाली पंचगंगा नदी से मिल जाती है और यही है कृष्णा-पंचगंगा का संगमस्थान। यह संगमस्थान वहाँ पर स्थित पहचानदर्शक चिह्न के कारण पादुकामंदिर से भी आसानी से दिखायी देता है।

औदुंबर वृक्ष जिसकी पार्श्‍वभूमी पर स्थित है, ऐसा यह दत्तपादुका मंदिर। श्रीनरसिंहसरस्वती (नृसिंहसरस्वती) जब अपना अमरापुर का वास्तव्य समाप्त कर गाणगापुर के लिए प्रस्थान कर रहे थे, तब उन्होंने इस स्थान पर वालुकामय पाषाण की दत्तपादुका की स्थापना की और इन पादुका के नित्य पूजन-अर्चन के लिए बहिरंभट्ट नामक एक व्यक्ति को नियुक्त किया, ऐसा कहा जाता है। इन पादुका की प्रतिदिन दोपहर के समय महापूजा होती है और साथ ही नित्य उपचार भी किये जाते हैं।

यह मंदिर हालाँकि कृष्णा नदी के घाट पर बसा हुआ है, मग़र नदी की धारा से का़ङ्गी ऊँचाई पर स्थित है, लेकिन कभी कभार इस कृष्णा नदी को भी इन पादुकाओं का दर्शन करने की तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है और वह अपनी धारा समेत इन पादुकाओं का दर्शन करने आ जाती है। संक्षेप में कहा जाये तो जब कभी कृष्णा नदी में भारी बाढ़ आती है, तब यह मंदिर जलनिमग्न हो जाता है।

साक्षात् श्रीनृसिंहसरस्वतीजी ने जहाँपर निवास किया था, उस स्थान पर अन्य कुछ सत्पुरुषों ने भी निवास किया था। इस स्थान पर उनकी समाधियाँ भी है। कहा जाता है कि यहाँ कृष्णा नदी पर बनाया गया घाट यह सद्गुरु जनार्दनस्वामी की आज्ञा के अनुसार एकनाथ महाराज ने बनवाया था।

हम दत्तपादुकाओं के दर्शन तो कर चुके हैं, अब नदी के दूसरे तट बसे अमरापुर ग्राम में चलते हैं। नदी के उस तट पर स्थित अमरापुर ग्राम में जाने के लिए आज सड़क का निर्माण हुआ है, लेकिन पुराने जमाने में नदी पार कर जाना, यहीं वहाँ पर जाने का एकमात्र मार्ग होगा।

यह अमरापुर गाँव, ‘औरवाड’ इस नाम से भी जाना जाता है। इसी गाँव में श्रीगुरुचरित्र के १८ वे अध्याय में वर्णित श्रीनृसिंहसरस्वतीजी की लाला घटित हुई थी। लेकिन जरा रुकिए, श्रीनृसिंहसरस्वती की इस लीला को देखने से पहले, हम श्रीनृसिंहसरस्वतीजी का चरित्र संक्षेप में देखते हैं।

दरअसल श्रीनृसिंहसरस्वतीजी के चरित्र का वर्णन करना, उनके द्वारा स्थापित दत्तपादुकाओं का और उन पावन क्षेत्रों का वर्णन करना ये दोनों बातें मानवी सामर्थ्य से परे की हैं। क्योंकि ब्रह्माण्ड को व्याप्त कर दशांगुल शेष रहनेवाले ‘उन’ का वर्णन मात्र ‘वे’ ही कर सकते हैं।

श्रीनृसिंहसरस्वतीजी का चरित्र इस प्रकार वर्णित है। उनका समय १४ वीं और १५ वीं सदी माना जाता है। विदर्भ में स्थित लाडकारंजे/करंज यह उनका जन्मस्थल है, ऐसा कहा जाता है। माधव और अंबाभवानी नामक दंपती के पुत्र के रूप में, दत्तात्रेय-अवतार-स्वरूप श्रीनृसिंहसरस्वतीजी का जन्म हुआ और उनका उपनाम (सरनेम) काळे यह था। जन्म होते ही उन्होंने ‘ॐ’कार का उच्चारण करना शुरू कर दिया और यह बालक विश्‍ववंद्य होगा, यह जातक कथन किया गया। उन्हें ‘नरहरी’ नाम से संबोधित किया जाता था।

सात वर्ष की आयु तक उन्होंने एक भी शब्द का उच्चारण नहीं किया, इससे उनके माता-पिता चिन्तित हो गये कि कहीं उनका बेटा गूँगा तो नहीं है और उन्होंने सात साल की आयु में ही अपने पुत्र का जनेऊ संस्कार करने का निश्‍चय किया।

जनेऊ संस्कार की कई विधियों में से एक विधि होती है, भिक्षा माँगना। इस बालक ने उसके जनेऊ संस्कार में इस विधि के समय वेदों का उच्चारण कर अपनी माँ से भिक्षा माँगी। इस बात सें उनके माता-पिता अचंभित हो गये। जनेऊ संस्कार के संपन्न होते ही अपने माता-पिता के गृह को छोड़कर वह बालक यात्रा करने निकल पड़ा।

सबसे पहले उन्होंने बदरी-केदार की यात्रा करने के लिए प्रस्थान किया। बदरीकेदार जाते समय बीच में कुछ समय के लिए वे काशी में रुके थे और इसी वास्तव्य के दौरान उन्होंने कृष्णसरस्वतीजी से संन्यासदीक्षा ग्रहण की और आगे चलकर उन्हें ‘श्रीनरसिंहसरस्वती’ इस नाम से जाना जाने लगा।

काशीक्षेत्र में निवास करते हुए उन्होंने कई लोगों को मार्गदर्शन करने का एवं ज्ञानदान का कार्य किया। यहाँ का कार्य पूरा होते ही वे बदरीकेदार की यात्रा करने निकल पड़े। इस यात्रा के दौरान कई साधक उनके शिष्य बन गये।

बदरीकेदार की यात्रा पूरी हो जाते ही श्रीनरसिंहसरस्वतीजी ने दक्षिण की यात्रा का प्रारंभ किया।

उनकी इस यात्रा के दौरान ही उन्होंने इस अमरापुर नामक ग्राम में निवास किया और तभी उन्होंने श्रीगुरुचरित्र के १८ वें अध्याय में वर्णित लीला की। लगभग १२ वर्षों तक श्रीनरसिंहसरस्वतीजी ने इस अमरापुर ग्राम में निवास किया।

यह अमरापुर भी वैसे तो एक छोटासा ही गाँव है। लेकिन यह गाँव श्रीनरसिंहसरस्वतीजी के पदस्पर्श से पावन हो चुका है। यहाँ अमरेश्‍वर का एक प्राचीन, मग़र ङ्गिर भी बहुत ही सुंदर ऐसा मंदिर है और सबसे अहम बात यह है कि यहाँ पर मन को शांति और पवित्रता का एहसास होता है।

श्रीगुरुचरित्र के १८ वें अध्याय में वर्णित घटना जहाँ घटित हुई, वह स्थान आज भी इस अमरापुर ग्राम में विद्यमान है।

जब श्रीनरसिंहसरस्वतीजी यहाँ पर निवास करते थे, तब वे प्रतिदिन अमरापुर ग्राम में भिक्षा माँगने के लिए जाते थें। यहाँ वेंदों का अध्ययन करने वाला एक द्विज रहता था। अपने परिवार समेत रहनेवाले इस द्विज की सांपत्तिक स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं थी। उसकी पत्नी पतिव्रता थी और सात्त्विक वृत्ति का यह दंपती अपने बच्चों के साथ जो कुछ भी भिक्षा मिलती थी, उसी पर गुज़ारा करके संतोषपूर्वक रहते थे।

उनके घर में सेम की एक लता थी। जिस दिन भिक्षा में कुछ भी नहीं मिलता, उस दिन यह परिवार इस सेम को पकाकर ही गुज़ारा करता था। मग़र ऐसी स्थिति में भी वह परिवार सुखपूर्वक रहता था।

एक बार श्रीनरसिंहसरस्वती अर्थात् श्रीगुरु भिक्षा माँगने इस द्विज के घर पधारें। द्विज ने षोडश-उपचारों के साथ भक्तिभाव सहित उनका पूजन किया और उस दिन उसके घर में जिस सेम को पकाया गया था, वह श्रीगुरु को अर्पण किया। श्रीगुरु ने इस द्विज को आशीर्वाद दिया की तुम्हारी दरिद्रता नष्ट हो जायेगी और वे वहाँ से निकल पड़े, लेकिन जाते समय उन्होंने इस द्विज परिवार का सहारा होने वाले सेम की लता को जड़ से उखाड़ दिया।

पूरे आँगन में फैली यह सेम की लता यही उस परिवार का एकमात्र सहारा था और उसी को काटकर श्रीगुरु निकल गये। इस घटना से द्विज की पत्नी और उसके बच्चें दुखी हो गये और कहने लगे कि ‘हमने इन यतीश्‍वर को कोई तकली़ङ्ग नहीं दी, मग़र ङ्गिर भी उन्होंने हमारा सबसे बड़ा सहारा नष्ट कर दिया।’

लेकिन वह द्विज विवेकी था। उसने अपनी पत्नी से कहा कि ‘जो कीड़ें-मकोड़ों तक का पालन करता है और उनका खयाल रखता है, उसे भला हमारी चिंता नहीं होगी, यह बात कैसे मुमक़िन है?

तो तारक आम्हांसी। म्हणोनि आला भिक्षेसी।
नेलें आमुचे दारिद्रयदोषी। तोचि तारील आमुतें॥

यह निश्‍चय उस द्विज ने अभिव्यक्त किया, क्योंकि उसे पूरा विश्‍वास था कि हमारा उद्धार करने और हमें दरिद्रता से मुक्त करने के लिए ही ये यतीश्‍वर हमारे घर भिक्षा माँगने पधारे थे।

आगे चलकर जब उस लता की जड़ को वह द्विज ज़मीन में से निकाल रहा था, उसे धन से भरा हुआ घड़ा प्राप्त हुआ। इस बात का वृत्त उसने संगमस्थल पर वास करनेवाले श्रीगुरु से कथन किया। लेकिन श्रीगुरु ने उससे कहा कि इस बात का ज़िक्र किसी से भी मत करना।

तो यह थी, श्रीनरसिंहसरस्वतीजी की अमरापुर ग्राम की लीला। जब श्रीगुरु ने यहाँ से गाणगापुर जाने के लिए प्रस्थान किया, उस समय उन्होंने इन दत्तपादुकाओं की स्थापना की और वे गाणगापुर चले गयें।

सद्गुरु श्रीदत्तात्रेयजी के इस अवतार की महिमा और उनका निवास जहाँ जहाँ रहा उस उस स्थान की महिमा इतनी अथाह है कि उसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है। हम ‘अवधूतचिंतन श्रीगुरुदेदत्त’ यह उद्घोष करके उनके चरणों में प्रेमपूर्वक लोटांगण करते हैं।

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