ग्वालियर भाग – ४

लंबी-चौड़ी मेज़ पर सुव्यवस्थित रूप से रखी गयी रेल की पटरियाँ और उनपर से दौड़नेवाली छोटीसी रेल गाड़ी। मैं पॅसेंजर रेल गाड़ी की बात नहीं कर रही हूँ; यह रेल गाड़ी है चाँदी की! मेज़ पर बिछायी गयी पटरियों पर से दौड़नेवाली चाँदी की रेल गाड़ी, है ना हैरत अंगेज़ कर देनेवाली बात!

ग्वालियर के ‘जयविलास’ पॅलेस के म्युझियम की सैर करते हुए इस चाँदी की छोटी-सी रेलगाड़ी को और उसकी छोटी-सी पटरियों को हम देख सकते हैं।

राजा-महाराजा उनके मेहमानों की ख़ातिरदारी तो बड़ी शान से ही करते होंगे। यह चाँदी की रेलगाड़ी भी ग्वालियर रियासत के मेहमानों की ख़ातिरदारी करने के लिए बनायी गयी थी। इस चाँदी की रेलगाड़ी को काँच से बनाये गये डिब्बें भी हैं। खाने के बाद मुखशुद्धि आदि ची़जों को इन काँच के डिब्बों में रखा जाता था और उन ची़जों के साथ यह रेलगाड़ी उसकी छोटी-सी पटरियों पर दौड़ती थी। जब कोई व्यक्ति उसमें से मनचाहे पदार्थ को निकालता था, उस समय पटरियों पर रहनेवाला प्रेशर कम होने के कारण कुछ देर के लिए यह चाँदी की रेल रुक जाती थी। ऐसी इस अनोखी रेल को देखकर मेहमान तो बेहद खुश होते होंगे। आज भी मे़ज पर रखी हुई पटरियाँ और काँच की सन्दूक में रखी गयी उस चाँदी की छोटीसी रेलगाड़ी को देखकर वह किस तरह दौड़ती होगी, यह विचार निश्चित रूप से देखनेवाले के मन में आता ही है।

चाँदी के इस अजूबे को तो हम देख चुके, अब जरा स्वर्ण की ओर रुख करते हैं। इसी ‘जयविलास’ पॅलेस के कुछ विशिष्ट कमरों को स्वर्ण का रंग दिया गया है, ऐसा कहा जाता है।

जिस राजमहल की छत पर स्वर्ण का रंग, पिछले भाग में हम जिन्हें देख चुके हैं ऐसे दो बड़े झाड़-फानूस (शॅण्डेलियर्स) ऐसी ख़ास बातें हों, वहाँ की फ्लोरिंग भी कुछ ख़ास ही होनी चाहिए, है ना? यहाँ के दरबार हॉल की जमीन पर एक कार्पेट बिछाया गया है। अब आप कहेंगे, कार्पेट में भला ऐसी क्या ख़ासियत है? कार्पेट तो हम कई जगह देखते हैं। लेकिन इस कार्पेट की विशेषता यह है कि यह एकसन्ध है यानि कि इसे एक ही कपड़े में से बनाया गया है और इसे बनाने के लिए १२ कारीगरों को कुल १३ वर्ष का समय लगा था।

कार्पेट से याद आया कि ग्वालियर यह कार्पेट का निर्माण करनेवाले भारत के प्रमुख शहरों में से एक माना जाता है। कार्पेट यानि कि ग़ालीचा। साधारण रूप से इन्हें जमीन पर बिछाने के लिए तैयार किया जाता है। इन्हें बुनने की एक विशेष कला है और ग्वालियर इस तरह की बुनाईवाले ग़ालीचों के लिए मशहूर है।

ग़ालीचों के साथ साथ काग़ज से बननेवाली विभिन्न वस्तुओं के लिए भी ग्वालियर मशहूर है। काग़ज से बनाये जानेवाले खिलौने, सजावट की वस्तुएँ, विभिन्न मूर्तियाँ ये ग्वालियर की ख़ासियत मानी जाती है। इनके साथ ही ग्वालियर का नाम एक और वस्तु के साथ जुड़ा है और वह है लेदर से बनी वस्तुएँ।

ख़ैर! ‘जयविलास’ पॅलेस म्युझियम के नवीनतापूर्ण तथा विशेषतापूर्ण ख़जाने के बारे में और ग्वालियर की अन्य विशेषताओं के बारे में जानकारी प्राप्त करने के बाद अब आइए, ग्वालियर के दूसरे एक महत्त्वपूर्ण पहलू पर ग़ौर करते हैं।

राजा-महाराजा और रियासतदारों के समय से ‘कला के नैहर’ के रूप में ग्वालियर की अपनी एक पहचान क़ायम है। अब तक हम ग्वालियर की शिल्पकला और वास्तुकला से परिचित हो चुके हैं; अब कला के एक अविभाज्य घटक संगीत के साथ ग्वालियर का क्या रिश्ता है, यह जान लेते हैं।

रेल गाड़ीसंगीत के क्षेत्र में पुराने जमाने से कई घराने मशहूर हैं। इनमें से ही एक है – ‘ग्वालियर घराना’। संगीत-विशेषज्ञ इस विषय में सविस्तार जानते ही होंगे, लेकिन हम जैसे सामान्य मानवों की जानकारी के लिए आइए, अतीत के कुछ पन्नों में झाँकते हैं।

लेकिन ग्वालियर घराने की जानकारी प्राप्त करने से पहले जिन दो मशहूर गायकों के साथ ग्वालियर का नाम जुड़ा हुआ है, उनका थोड़ा-सा परिचय कर लेते हैं।

‘बैजू बावरा’ और ‘तानसेन’ इन नामों से जाने जानेवाले ये दो संगीत के उपासक। आज इन दोनों के बारे में जो कुछ जानकारी मिलती है, वह कथाएँ, आख्यायिकाएँ और थोड़ेबहुत ऐतिहासिक दस्तावे़ज इनसे मिलती है।

‘बैजू बावरा’ ये ग्वाल्हेर के १६वीं सदी के मशहूर गायक थे। कहा जाता है कि ‘स्वामी हरिदासजी’ उनके गुरु थे। बैजू बावरा को तानसेन का समकालीन भी माना जाता है। इन दोनों की गाने की जुगलबन्दी के बारे में एक कहानी कही जाती है। अर्थात् यह गाने की जुगलबन्दी यानि कि शास्त्रीय गायन की जुगलबन्दी ही होगी, इसमें कोई दोराय नहीं है। कहा जाता है कि जुगलबन्दी के दौरान बैजू बावरा ने अपने गायन द्वारा जंगल के एक हिरन को मन्त्रमुग्ध कर गायनस्थल पर खींच लाया था और बैजू बावरा ने उसके गले में माला पहनाकर उसे पुनः जंगल में छोड़ दिया था। तानसेन ने अपने गायन द्वारा उस हिरन को वहाँ पर लाने की का़फी कोशिश की, लेकिन उसमें उसे कामयाबी नहीं मिल सकी। बैजू बावरा के गायन से फिर एक बार वह हिरन लौट आया।

इन्हीं बैजू बावरा ने कई सांगितिक रचनाएँ की थी और उनके कई शिष्य थे।

ग्वालियर से कुछ ही दूरी पर स्थित ‘बेहट’ यह ‘रामतनु’ का मूल गाँव। यह रामतनु ही आगे चलकर उसकी संगीतसाधना के कारण ‘तानसेन’ इस नाम से जाना जाने लगा।

हरिदासस्वामीजी के शागीर्द रामतनु ने संगीत में महारत हासिल की। देशभर में घूमते घूमते वह ग्वालियर आ गया। वहाँ के विक्रमजित राजा ने उसका ध्रुपद गायन सुना और उसे ‘तानसेन’ यह उपाधि बहाल की।

अपनी उम्र के पचास वर्ष तक तानसेन रीवा के राजदरबार के प्रमुख गायक थे। इसके बाद वे अकबर के दरबार में गये और अक़बर के नवरत्नों में उन्हें भी स्थान मिला। तानसेन का समय १६वीं सदी  का माना जाता है।
तानसेन के गायन के बारे में कई कहानियाँ हैं। वे केवल गायक ही नहीं, बल्कि कवि भी थे। उनकी गायकी का प्रभाव केवल श्रोताओं पर ही नहीं, बल्कि प्रकृति पर भी होता था। उनके ‘मेघमल्हार’ राग के गायन से आसमान में बादलों का जमावड़ा होकर बारिश होने लगती थी। उनके ‘दीप’ राग गाते ही दीये जल उठते थे।
तानसेन ने संगीतविषयक दो ग्रन्थ भी लिखे थे और ध्रुपदशैली के गायन के लिए हिन्दी भाषा में कई पदों की रचना भी की थी।

संगीतक्षेत्र के ऐसी बड़ी हस्ती ने अपनी मौत के बाद के चिरविश्राम के लिए ग्वालियर को ही चुना। आज ग्वालियर में तानसेन की स्मृति को दो रूपों में जतन किया गया है। एक है – तानसेन का वास्तुरूप में बनाया गया स्मारक और दूसरा है – संगीत संमेलन।

प्रतिवर्ष नवम्बर/दिसम्बर में तानसेन स्मारक के पास संगीत संमेलन का आयोजन किया जाता है। पाँच दिन के इस संमेलन में पूरी ग्वालियर नगरी ही जैसे हिंदुस्थानी शास्त्रीय संगीत के रंग में रंग जाती है।

इन दो गायकों के बाद आइए, अब देखते हैं ‘ग्वालियर घराने’ का इतिहास। हिंदुस्थानी शास्त्रीय संगीत में विशेष स्थान पर रहनेवाले व्यक्ति द्वारा निर्माण, अंकुरित तथा विकसित की गयी गायकी की शैली उस सम्बन्धित स्थान के नाम से जानी जाती है। जैसे – ‘किराना घराना’, ‘ग्वालियर घराना’, ‘आग्रा घराना’ आदि नाम तो आपने सुने ही होंगे।

ग्वालियर घराने का प्रारंभ ग्वालियर राजाओं के आश्रय में संगीत की उपासना करनेवाले गायकों से हुआ। इस घराने का इतिहास शुरू होता है, ग्वालियर के राजदरबार के गायक – बडे महमदखाँ और  कादरबक्षखाँ इनसे। उनके वंशज थे – हद्दूखाँ और हस्सूखाँ और इन्हीं के वंश में आगे चलकर प्रभावी रूप से जिनका नाम मशहूर हुआ, वे रहिमतखाँ।

आगे चलकर ग्वालियर घराने का का़फी विस्तार हुआ और इसके गायक भी मशहूर हुए। इनमें से सबसे मूर्धन्य नाम है – पंडित बाळकृष्णबुवा इचलकरंजीकर। साथ ही शंकर पंडित, कृष्णा पंडित, पंडित रामकृष्णबुवा वझे जैसे कई नाम भी इस घराने की गायकी के साथ जुड़े हुए हैं। इस घराने के गायकों में मराठी संगीत नाटक से जु़ड़ी कई हस्तियों का समावेश होता है।

समय के साथ साथ मानव की अभिरूचि भी बदलने लगी। मानवी मन को लुभानेवाले संगीत का रूप भी बदल गया, मग़र फिर भी संगीत का अस्त नहीं हुआ। आज भी कई गायकों ने ग्वालियर घराने की गायकी को आत्मसात कर उसका जतन तथा वर्धन किया है।

रेल गाड़ीइस संगीत नगरी में संगीत को अर्पित की गयी एक अनोखी वास्तु भी है। चलते चलते दो मिनट के लिए ही सही, लेकिन वहाँ तो हमें जाना ही चाहिए। ‘सरोद घर’ इस नाम से ग्वालियर में बने म्युझियम में पुराने जमाने के कई नामचीन एवं प्रतिभाशाली वादकों के वाद्य रखे गये हैं और इससे भारतीय संगीत के प्रवास से दर्शकों को परिचित कराया गया है।

सचमुच! इस ग्वालियर की मिट्टी के बारे में क्या कहना! यहाँ की धरती को वीरों के लहू ने सींचा है, इसी मिट्टी में से कई वास्तुओं तथा शिल्पों ने आकार धारण किया है और इसी मिट्टी में से ह़जारों मनों को मन्त्रमुग्ध करनेवाले संगीत का भी जन्म हुआ है। इसलिए यह मिट्टी वीरता और सुन्दरता का एकत्रित रूप है।

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