ग्वालियर भाग – ३

ग्वालियर के क़िले में हमारी मुलाक़ात सास-बहू की जिस जोड़ी के साथ होती है, वह टि. व्हि. सिरीयल्स की सास-बहुओं से बिलकुल ही निराली है। इस सास-बहू की सब से बड़ी ख़ासियत यह है कि गत कई सदियों से वे बड़े प्यार से पड़ोसन बनकर रह रही हैं। चलिए, अब आपकी उत्सुकता को अधिक न खींचते हुए और पहेलियाँ न बुझाते हुए सास-बहू के इस रहस्य पर से परदा हटाते हैं।

ग्वालियर के क़िले के दो मंदिर ‘सास-बहू मंदिर’ इस नाम से जाने जाते हैं। इनमें से एक मंदिर बड़ा है और दूसरा उससे थोड़ा छोटा है। लेकिन रचना, शिल्पकला इनकी दृष्टि से ये दोनों मंदिर लगभग एक ही जैसे हैं। एक बड़ा और एक छोटा इस तरह दो मंदिर एकदूसरे के बाजू में रहने के कारण उन्हें ‘सास-बहू’ मंदिर कहा जाता है। दर असल कुछ लोगों की राय है कि रचना आदि दृष्टि से समानता रहनेवाले दो मंदिर जब इस तरह एकदूसरे से सटकर रहते हैं तब उन्हें ‘सास-बहू मंदिर’ कहा जाता है।

सास-बहूग्वालियर क़िले में स्थित एक शिलालेख द्वारा यह ज्ञात होता है कि इस सास-बहू मंदिर का निर्माण ११वीं सदी के अन्त में कछवाहा राजवंश के ‘महिपाल’ नाम के राजा ने किया। यह एक विष्णु-मंदिर है और उसके प्रवेशद्वार पर ब्रह्मा-विष्णु-महेश इनकी मूर्तियाँ हैं। यह मंदिर शिल्पकला का एक बेहतरीन नमूना है, जो देखनेवाले के मन को मोह लेता है।

नींव से लेकर शिखर तक शिल्पकला की सुन्दरता को हम बस निहारते ही रहते हैं। कई देवीदेवताओं की मूर्तियों को तराशा गया है और साथ ही जगह जगह बेमिसाल ऩक़्काशीकाम भी किया गया है।

इन मंदिरों को ‘सास-बहू मंदिर’ कहने का एक और भी कारण बताया जाता है। महिपाल राजा द्वारा निर्मित इस विष्णुमंदिर का नाम ‘सहस्रबाहु मंदिर’ था। इसी ‘सहस्रबाहु’ शब्द का अपभ्रंश होकर यह मंदिर ‘सास-बहू मंदिर’ इस नाम से जाना जाने लगा।

हमारी भारतीय संस्कृति में रिश्तों का सम्मान किया जाता है और उन्हें निभाया भी जाता है। सास-बहू के रिश्ते को इस तरह मंदिर के नाम के साथ जोड़नेवाली हमारी संस्कृति सचमुच ही ‘ग्रेट’ है, है ना!

हम ‘गुजरी महल’ के इतिहास की एक झलक पिछले लेख में देख ही चुके हैं। अब आइए देखते हैं, गुजरी महल में स्थित म्युज़ियम।

गुजरी महल के इस म्युज़ियममें कई शिल्पों का संग्रह किया गया है। पत्थर में तराशी गयी गत अनेक सदियों की कई मूर्तियों को यहाँ पर रखा गया है। इस संग्रह द्वारा इतिहास के साथ साथ शिल्पकला तथा मूर्तिकला के विकास के भी विभिन्न पड़ाव हमें ज्ञात होते हैं।

ग्वालियर का क़िला चौंका देनेवालीं बातों का ख़जाना ही मानो हमारे लिए खोल देता है और साथ ही अचरजभरे नाम भी हमारे सामने रखता है। अभी हमने ‘सास-बहू’ यह एक अनोखा ही नाम होनेवाले मंदिर के बारे में जाना। अब रूख करते हैं दूसरे मंदिर की ओर, जिसका नाम है, ‘तेली का मंदिर’। क्यों, यह नाम सुनकर आप भी अचरज में पड़ गये ना!

सामान्य रूप से बहुत से मंदिर उस मंदिर के मुख्य देवता के नाम से जाने जाते है और कभी कभार उसका निर्माण करनेवाले व्यक्तियों के नाम से भी जाने जाते है।

‘तेली का मंदिर’ यह ग्वालियर के क़िले में स्थित दूसरा प्रमुख मंदिर है। देखा जाये तो यह मंदिर सभी दृष्टि से विशेष है और उसकी विशेषता उसके नाम से ही दिखायी देती है।

‘तेली का मंदिर’ यह क़िले पर विद्यमान सभी वास्तुओं में से सबसे उँचीं वास्तु है। ९ वीं सदी में बनाया गया यह मंदिर विष्णुमंदिर है।

लेकिन इसका नाम ‘तेली का मंदिर’ ऐसा क्यों रखा गया होगा? इसके बारे में कई मतमतान्तर हैं। एक मत के अनुसार राष्ट्रकूटों के गोविन्द-तृतीय नामक राजा ने इस ग्वालियर के क़िले पर कब़्जा कर लिया और वहाँ पर अपनी सत्ता स्थापित की। उसने इस मन्दिर की देखभाल की जिम्मेदारी तेलंगण से आये हुए एक पुजारी को सौंप दी और इसी कारण यह मंदिर ‘तेली का मंदिर’ इस नाम से जाना जाने लगा। दूसरा मत यह है कि तेल का व्यापार करनेवाले किसी व्यापारी ने इसे बनवाया और इसी वजह से यह मंदिर उसके निर्माणकर्ता के नाम से – तेली का मंदिर – इस नाम से जाना जाने लगा। तीसरा मत यह है कि इस मंदिर का मूल नाम ‘तेलंगण मंदिर’ होगा, जिसका आगे चलकर ‘तेली का मंदिर’ इस नाम में परिवर्तन हो गया।

इस प्रकार इस मंदिर के नाम के विषय में ऊपरिनिर्दिष्ट मतमतांतर हैं। लेकिन उसके नाम की तरह ही यह मंदिर रचना की दृष्टि से भी ख़ास है। इस मंदिर का शिखर द्राविडी शैली का है, तो मंदिर का अन्य शिल्पकाम इंडो-आर्यन शैली का है।

यह मंदिर भी बेहतरीन शिल्पकारी का नमूना माना जाता है। दरअसल अधिकांश मंदिरों के गर्भगृह में प्रवेश करने से पहले हमें एक मंडप से गु़जरना पड़ता है या ङ्गिर उसी मंडप से गर्भगृह में स्थित देवता के दर्शन कर सकते हैं। लेकिन इस मंदिर की रचना कुछ ऐसी है कि इसके प्रवेशद्वार से ही ठेंठ गर्भगृह में प्रवेश किया जा सकता है। इस मंदिर की ऊँचाई लगभग १०० फीट है। मंदिर पर विभिन्न देवता तथा उनके वाहन आदि चित्रित किये गये हैं।

ऊपर उल्लेखित दो मंदिर बेहतरीन सुन्दरता का आविष्कार तो हैं ही, साथ ही भारतीय शिल्पकारी की ख़ासियत को दर्शानेवाले हैं। दरअसल इस क़िले पर कई मंदिर हैं, लेकिन उनमें से ये दो मंदिर महत्त्वपूर्ण हैं।

इन दो मंदिरों के अलावा और एक महत्त्वपूर्ण मंदिर है – ‘चतुर्भुज मंदिर’। पत्थर में तराशा गया यह मंदिर ९वीं सदी में निर्मित है और इस मंदिर में चतुर्भुज विष्णु की मूर्ति है।

इनके अलावा और भी कई महल तथा मंदिर इस क़िले पर हैं। लेकिन यह क़िला आज सैलानियों का प्रमुख आकर्षण है। इस ग्वालियर के क़िले की एक और विशेषता यह है कि इसका उपयोग बंदीखाने के रूप में किया गया था। इस क़िले में स्थित कुछ महलों की रचना ही कुछ इस प्रकार है कि उनकी कुछ मंजिलें अंडरग्राऊंड हैं, तो कुछ ़जमीन पर। इन अंडरग्राऊंड मंजिलों का इस्तेमाल कई शासनकर्ताओं ने अपने शत्रुओं को बंदी बनाकर रखने के लिए किया था। इन अंडरग्राऊंड मंजिलों की रचना कुछ इस प्रकार है कि कोई भी बंदी यहाँ से आसानी से भाग नहीं सकता था।

अब ग्वालियर के क़िले से निकलकर अपना रूख करते हैं – ‘जय विलास पॅलेस’ की ओर।

ग्वालियर के भूतपूर्व शासक यानि कि शिन्दे राजवंश का आज भी यह निवासस्थान है। लेकिन इस पॅलेस के एक हिस्से को अब म्यु़जियम में परिवर्तित किया गया है।

यह स़फेद रंग का पॅलेस ‘लष्कर’ विभाग में स्थित है। सामने से देखते ही इस पॅलेस की विशालता का अँदाजा हो जाता है। इस पॅलेस का निर्माण कई वास्तुशैलियों के अनोखे मिश्रण से किया गया है।

यहाँ के म्यु़जियम में राजाओं की जीवनशैली की एक झलक देखने मिलती है। राजाओं द्वारा इस्तेमाल किये जानेवाले फर्निचर आदि कई वस्तुओं से लेकर चाँदी की वस्तुओं तथा शस्त्रास्त्रों का भी यहाँ पर संग्रह किया गया है। काच तथा लकड़ी से निर्मित बेमिसाल ङ्गर्निचर इस संग्रह में रखा गया है और साथ ही किसी राजकन्या के मूल्यवान रत्नों से बनाये गयें जूतें भी यहाँ पर हम देख सकते हैं।

इस महल के दरबार हॉल में प्रवेश करते ही, यहाँ की सिलींग पर लगाये गये काँच के दो बड़े झाड़- फानूस (शँडेलियर्स) आपका ध्यान आकर्षित करते हैं। इस हर एक शँडेलियर का व़जन तीन टन के आसपास है और हर एक में २४८ मोमबत्तियाँ लगायी जा सकती थीं। ऐसा कहा जाता है कि जब इन शँडेलियर्स को सिलींग पर लगाया जाना था, तब यह सिलिंग उन शँडेलियर्स का व़जन उठाने के काबिल है या नहीं, यह देखने के लिए सिलिंग पर दस हाथियों को लाकर खड़ा किया गया था। जब इस टेस्ट में वह सिलिंग पास हुआ, तब ही जाकर इन शँडेलियर्स को सिलिंग पर लगाया गया। पुराने जमाने में जो कोई इन मोमबत्तियों को प्रज्वलित करने का काम करता होगा, उसकी तो प्रशंसा करनी चाहिए। जब इन दोनों शँडेलियर्स को पूरी तरह प्रज्वलित किया जाता होगा, तब वह ऩजारा कितना खूबसूरत दिखायी देता होगा!

राजाओं की इस जीवनशैली को देखते देखते अचानक-से हम रेल की पटरियों के सामने आकर खड़े हो जाते हैं। लेकिन इन पटरियों पर से कौनसी रेलगाड़ी गु़जरती होगी, इसका जवाब ढूँढ़ने की कोशिश तो कीजिए। नहीं, तो एक ह़फ़्ते बाद जवाब आपको मिल ही जायेगा।

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