परमहंस-३१

‘उस’ रात दक्षिणेश्‍वर कालीमंदिर के नज़दीक के पंचवटी के जंगल में हुआ ‘वह’ वाक़या देखकर हृदय हैरान हो गया था और चुपचाप अपने कमरे में लौटकर विचार करते हुए थोड़ी ही देर में सो गया था।

लेकिन सुबह जागने के बाद जब उसने देखा, तो तब तक गदाधरमामा स्नान, प्रातर्संध्या, आह्निक वगैरा सब करके, मंदिर जाने की तैयारी में उसे दिखायी दिया। अहम बात यह थी कि उसके चेहरे पर थकान आदि के कोई भी लक्षण न दिखकर, उल्टा वह तरोताज़ा दिखायी दे रहा था। इसलिए हृदय को अचरज हुआ, लेकिन उसने मामा को इस बारे में अधिक नहीं छेड़ा।

मंदिर में गदाधर का वही नित्यक्रम था। लेकिन अब मंदिर के सेवकों को उसके आचरण से हैरानी भी नहीं होती थी और ना ही वे उसके भावावस्था में आकांत शुरू करने के बाद अपने सब काम छोड़कर दौड़े चले आते थे। गदाधर के बर्ताव की उन्हें आदत पड़ गयी, यह एक कारण था ही; लेकिन साथ ही, राणी राशमणि और उसके जमाई मथुरबाबू का गदाधर को रहनेवाला मज़बूत समर्थन भी उसके लिए कारणीभूत था।

कालीमंदिरजनसामान्यों को लिए अपने हाथों कालीमाता ने बँधवा लिया यह उसका मंदिर जल्द ही एक जागृत देवस्थान बनें, जिसका आम भाविकों को निरंतर आधार प्रतीत हों, ऐसी राशमणि की तीव्र इच्छा थी और कालीमाता का सदैव उत्कट भावावस्था में ही पूजन करनेवाला यह मनस्वी पुजारी, अपनी (राशमणि की) यह इच्छा पूरी करने के लिए कालीमाता को तैयार करेगा, असा यक़ीन उसे होने लगा था।

इसलिए उसने मथुरबाबू के ज़रिये एक आज्ञापत्रक ही मंदिरसंकुल के सेवकों को भेजा था – ‘भट्टाचार्यजी (मुख्य पुजारी) को उनकी मर्ज़ीनुसार कालीमाता का पूजन करने दें, उसमें कोई भी किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न न करें।’ इस कारण भी मंदिर का सेवकवर्ग गदाधर से भावावस्था में हो रहे बर्ताव को अनदेखा करने लगे थे।

राशमणि एवं मथुरबाबू तो मानो गदाधर के भक्त ही बन गये थे। केवल मंदिरव्यवहारों के बारे में उत्पन्न होनेवाली ही नहीं, बल्कि किसी भी आध्यात्मिक समस्या का हल निकालने के लिए वे गदाधर के पास ही आते थे।

कई बार गदाधर भावावस्था में गया है, यह ख़बर मथुरबाबू तक पहुँचने के बाद वे खुद वहाँ पर आकर खड़े होते थे। यह सारा वाक़या हैरानी से देख रही इकट्ठा हुई भीड़, गदाधर की भावावस्था में कोई बाधा उत्पन्न न करें, इसकी चिन्ता उन्हें लगी रहती थी।

लेकिन कालीमाता के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए व्याकुल हुआ गदाधर, ‘दर्शन न होने से मेरे जीवन का एक और दिन व्यर्थ गया’, ऐसा सोचकर मन में भी और प्रकट रूप में भी आकांत करता था – ‘माँ, क्या तुम केवल कविकल्पना हो? हरगिज़ नहीं। क्या अध्यात्म आदि सबकुछ झूठ, काल्पनिक हवामहल हैं? यक़ीनन ही नहीं….क्योंकि तुम्हारे प्रत्यक्ष दर्शन हो चुके तुमहारे भक्तों द्वारा किये गये वर्णन मुझे पता हैं। फिर मुझे ही क्यों नहीं? जीवन का हर बीता दिन मुझे मेरी मृत्यु की ओर खींच लेकर जा रहा है।’

उस समय की अपनी इस अवस्था का निम्नलिखित आशय का वर्णन स्वयं श्रीरामकृष्ण ने आगे चलकर अपने शिष्यों से बात करते समय एक बार किया था – ‘तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि मैं कितने विचित्र हालातों से गुज़र रहा था! माता से विभक्त रहने का एहसास मेरे लिए दर्दनाक था। मान लीजिए, किसी कमरे में सोने से भरी संदूक रखकर, उसके बारे में जानकारी होनेवाले चोर को पड़ोस के कमरे में रखा और बीच में केवल ‘आसानी से तोड़ी जा सकनेवाली’ कच्ची दीवार है। तो क्या वह चोर उस सोने तक पहुँचने के लिए जानतोड़ कोशिश नहीं करेगा? वैसा ही मेरे साथ भी हुआ था। मेरी अकारण करुणामयी माता मेरे नज़दीक ही है, यह मैं जानता था। फिर उसके दर्शन के अलावा अन्य किसी भी बात से भला मुझे कैसे सुकून मिलता? इसी कारण मैं उसके दर्शन के लिए मानो पागल ही हुआ था और उसके दर्शन होने के आड़े में जो कुछ भी बात आ रही है ऐसा मुझे लग रहा था, उस हर एक बात को तोड़ने के मैं जानतोड़ प्रयास कर रहा था….’

‘वह’ घड़ी धीरे धीरे नज़दीक आ रही थी….

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