परमहंस-३२

जिस बात के लिए गदाधर तिलमिला रहा था, वह यानी कालीमाता के दर्शन – उसकी घड़ी अब बहुत ही क़रीब आ रुकी थी। लेकिन माता से मिलने की उसकी प्यास दिनबदिन बढ़ती ही चली जा रही थी।

उसी के हिस्से के तौर पर, पूजन करते समय भावावस्था को प्राप्त होने के बाद वह कभी भावनातिरेक से बेभान हो जाता था, तो कभी दोन-दोन घण्टे कालीमाता के मुख पर टकटकी लगाकर निश्‍चल बैठा रहता। कभी माता को नैवेद्य अर्पण करते समय नैवेद्य का निवाला माता के मुख के पास लेकर ‘वह कब निवाला खाती है’ इसकी प्रतीक्षा में खड़ा रहता, तो कभी देवीमाता के बजाय किसी कुत्ते-बिल्ली जैसे प्राणि को ही नैवेद्य अर्पण करता था; तो कभी माता के पूजाउपचार में माता को अर्पण किया जानेवाला फूल अपने ही सिर पर रखकर निश्‍चलतापूर्वक उसकी ओर देखता रहता था।

कालीमाता के दर्शनअब माता के दर्शन होने के लिए वह केवल पूजन करते समय भावावस्था में जाता था ऐसा नहीं है, बल्कि अन्य समय भी उसके प्रयास शुरू ही थे।

हृदय ने उसका पीछा की हुई ‘उस’ रात को उसने हृदय को पंचवटी में उपदेश करते हुए बताये ‘वे’ – माता के दर्शन होने के आड़े आनेवाले आठ पाश, यह उसने केवल मुख से ही की हुई बकबक नहीं थी; बल्कि उन पाशों को तोड़ने के लिए उसने जानतोड़ प्रयास भी जारी रखे थे।

अपने में रहनेवाला आप पर भाव, मन में रहनेवाली बचीकुची ऊँचनीच की भावना समूल नष्ट होने के लिए वह तहे दिल से आकांत कर रहा था।

फिर कभी वह मंदिर के बाहर बैठे भिख़ारियों की, खाना खाने के बाद बची जूठीं पत्तलें चाटकर उनका जूठन खाता था, तो कभी प्रसाद खाये हुए लोगों के खाने की थालियाँ माँजने का काम करता था। कभी कभी तो मंदिरसंकुलस्थित शौचकूपों की स़फाई का काम करनेवाले सेवकों के घर के शौचकूप भी वह सा़फ करता था।
मन में रहनेवाली कर्मठता के कारण, शुरू शुरू में बड़े भाई रामकुमार को, राशमणि ने बँधवाये इस कालीमंदिर के पुजारी की नौकरी का स्वीकार करने के लिए भी विरोध करनेवाले; साथ ही, आहार के बारे में मन में रहनेवाले विकल्पों के कारण, मंदिर की प्रतिष्ठापना के दिन मंदिर में कणभर भी प्रसाद खाने के लिए तैयार न रहनेवाले गदाधर के मन में हुआ यह परिवर्तन यानी ज़मीन-आसमान का फर्क़ था।

लेकिन इतने कठोर प्रयास करने पर भी, इतने दिन गुज़र जाने के बाद भी अभीतक माता प्रसन्न होकर मुझे दर्शन नहीं दे रही है, यह देखकर गदाधर का धीरज टूटने की कगार पर था।

….और आख़िर ‘वह’ घड़ी आ ही गयी….

….उस दिन गदाधर का सब्र टूट ही गया! माता के दर्शन की इसकी इच्छा इतनी तीव्र हुई कि उसे ऐसा लगने लगा कि मानो अपने शरीर में प्रचंड उष्णता निर्माण होकर, भीतर से सबकुछ जल रहा हो।
‘माता यदि दर्शन नहीं दे रही है, तो इस तरह जीने का क्या अर्थ है’ इस विचार ने उसके मन में झाँका और वह विचार जम गया, बढ़ने लगा!

….और अचानक उसकी दृष्टि कालीमाता के खड्ग पर पड़ी।

‘माता दर्शन नहीं दे रही है ऐसा जीवन क्या काम का, ऐसे जीवन को ख़त्म करना ही बेहतर है’ इस निश्‍चय के साथ वह तेज़ी से कदम उठाते हुए कालीमाता की मूर्ति रखे चबूतरे पर चढ़ा….

उसकी वह माता मानो कौतुक से ही अपनी इस संतान को देख रही थी!

अब गदाधर कालीमाता के खड्ग की ओर गया….उसने वह खड्ग हाथे में लिया;

….और आवेग से वह तेज़तर्रार खड्ग उठाया और अब अपनी गर्दन पर चलाने ही वाला था कि तभी …

….तभी बहुत ही विलक्षण बात घटित हुई!

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