परमहंस-१८

अपना बचपन, अपना सुरक्षित घर, दोस्तों-गाँववालों का प्रेम, कामारपुकूर के सत्रह वर्षों के वास्तव्य की रम्य स्मृतियाँ….सबकुछ पीछे छोड़कर गदाधर अपने बड़े भाई के साथ कोलकाता आया था।

कुछ ही दिनों में उसने अपने भाई को मदद करना शुरू किया। लेकिन पाठशाला के काम में नहीं, बल्कि घरगृहस्थी में! खाली समय में अपने भतीजे अक्षय को सँभालने का काम भी गदाधर करता था।

गदाधरगदाधर का स्कूली शिक्षा में रूचि न लेना रामकुमार को रास नहीं आता था। वह गदाधर से पहले से ही निरतिशय प्रेम करता था और पिताजी की मृत्यु के बाद तो, पिता का साया उठ चुके इस लड़के के प्रति उसके मन में अधिक ही अनुकंपा निर्माण हुई थी।

लेकिन बचपन से गदाधर पर किसी भी प्रकार की ज़्यादती नहीं की गयी है, इस बात को वह जानता था। इसलिए गदाधर कोलकाता से परिचित होने तक उसे कुछ भी न बोलने का और उसकी इच्छानुसार बातें करने देने का रामकुमार ने तय किया था। लेकिन उसे यह ज़रूरी प्रतीत हो रहा था कि गदाधर जल्द से जल्द अपने पैरों पर खड़ा हों।

पाठशाला के काम में ना सही, लेकिन कम से कम पूजापाठ के काम में तो गदाधर हाथ बटाये तो अच्छा, इस विचार से रामकुमार ने अपने भाई को, वह स्वयं मोहल्ले के तथा अन्यत्र भी जिन घरों में नित्यनियमित रूप से पूजापाठ करने जाता था, उन घरों में पूजापाठ करने के लिए शुरू शुरू में अपने साथ लेकर जाना और बाद में स्वतंत्र रूप में भेजना शुरू किया।

‘ईश्वर’ यह कुल मिलाकर गदाधर के लिए आत्मीयता का विषय होने के कारण, भगवान से संबंधित होनेवाला यह काम गदाधर को भा गया और उसने उस काम में दिलचस्पी लेना शुरू किया।

मूलतः रामकुमार भी इस काम को बहुत ही प्रामाणिकता से कर रहा होने के कारण, उसके प्रति भी उन सब घरों के लोगों की राय अच्छी थी ही; अब गदाधर भी अल्प अवधि में ही उन सभी घरों का एक महत्त्वपूर्ण घटक बन गया….बिलकुल कामारपुकूर के घरों जैसा ही!

इन घरों के लोगों की ध्यान में सर्वप्रथम उसके बारे में जो बात ध्यान में आयी, वह थी – पूजापाठ करते समय वह कभी भी जल्दबाज़ी में या शॉर्टकट मारते हुए पूजन को ‘लपेटता’ नहीं था। पूजन की हर एक बात, हर एक क्रिया धीरे से, प्रेमपूर्वक, भावोत्कटता से करता था और वह करते समय उसके चेहरे पर के अत्यधिक सार्थक भाव, देखनेवाले को मंत्रमुग्ध कर देते थे। पूजन की हर एक क्रिया के पीछे का कार्यकारणभाव भी वह घर के लोगों को समझाकर बताता था।

पूजापाठ संपन्न होने पर वह उस घर के लोगों के आग्रह की ख़ातिर उन्हें पुराणों की कहानियाँ सुनाता था, साथ ही भक्तिगीत आदि गाकर सुनाता था, घर के छोटे-मोटे काम निपटा देता था या फिर उनसे गपशप करते बैठता था।

उसके साथ बातें करते समय लोगों को उसकी अत्यधिक संवेदनशील बुद्धि का, साथ ही, ‘अन्दर कुछ-बाहर कुछ और’ ऐसा न रहनेवाले उसके प्रामाणिक मन का प्रत्यय आ जाता था। लेकिन स्वयं को जो सही लगे, वही बोलनेवाले गदाधर के पास पाखंड को स्थान ही नहीं था। वह नीडर होकर, उसे जो सही लगता था वही कहता होने के कारण और उस बात पर वह कोई भी समझौता नहीं करेगा यह ज्ञात होने के कारण, अन्यथा बड़ी बड़ी डींगें हाकनेवाले लोग, गदाधर के सामने अपनी पोल खुल जायेगी इस डर से उसके आसपास भी खड़े नहीं रहते थे।

वह जिन घरों में जाता था, उन घरों के लोगों का दिल उसने, अपना विनम्र मिलनसार स्वभाव, साफ़ दृष्टि, भगवान के प्रति रहनेवाली भावोत्कटता इन बातों से जीत लिया था और कामारपुकूर की तरह यहाँ पर भी उसका प्रशंसकवर्ग बन गया था!

लेकिन गदाधर का भौतिक व्यवहार के साथ, आर्थिक जमाखर्च के साथ कुछ भी लेनादेना नहीं रहता था। हालाँकि उसके काम के पैसे प्रायः कोई डूबाता नहीं था, मग़र खर्च पूरा करने के लिए जितने प्रमाण में काम होना आवश्यक था, उतने प्रमाण में गदाधर के हाथों काम नहीं होते थे।

ऐसे ही कुछ महीने बीते….रामकुमार को गदाधर के बारे में होनेवाली चिन्ता कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी…. उसने अब हिम्मत जुटाकर गदाधर से इस विषय में बात करने का तय किया….

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