श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-९६

श्रीसाईनाथ सब कुछ जानते हैं, इस बात का स्मरण सदैव रखने से ही श्रीसाईनाथ का स्मरण अपने-आप ही सदैव बना रहेगा। बाबा सदैव मेरे साथ हैं ही, इस बात का स्मरण ही फिर भक्त के लिए कर्मस्वातंत्र्य का उचित उपयोग करनेवाला साबित होता है और भक्त को निर्भयता भी प्रदान करता है।

साईनाथ सभी लोगों का वर्म कैसे जानते हैं, इस सत्य को स्पष्ट करनेवाली यह पंक्ति सचमुच हम सभी के लिए मौलिक मार्गदर्शन करनेवाली है। हम कहीं भी, बिलकुल एकांत में भी जो कुछ भी करते हैं उसका पता साईनाथ को उसी पल चल ही जाता है। बाबा से कुछ भी छिपा नहीं है। कोई भी बाबा से कुछ भी छिपा नहीं सकता है।

हम बातें बनाकर किसी को फँसा सकते हैं, परन्तु बाबा को कोई भी फँसा नहीं सकता है। ‘बाबा सब कुछ जानते ही हैं’ इस सत्य को जिसने भी अपने जीवन में उतार लिया है और इसी के अनुसार स्वयं का आचरण बनाये रखा है, उसके जीवन का प्रवास श्रीसाईनाथ अत्यन्त सुंदर बना देते हैं।

तो फिर मेरे जीवन में यह घटित होने के लिए मुझे क्या करना चाहिए, इस बात का विचार बाबा के बोलों को मन में पूर्ण रूपेण उतार कर ही मुझे करना चाहिए।

कुठेंही असा कांहींही करा। एवढें पूर्ण सदैव स्मरा।
कीं तुमच्या इत्थंभूत कृतीच्या खबरा। मज निरंतरा लागती॥
(कहीं भी रहना, कुछ भी करना। परन्तु सदैव इतना स्मरण रखना।
कि तुम्हारी हर एक कृति की खबर। निरंतर मुझे रहती ही है॥)

मुझे किस बात का ‘स्मरण’ निरंतर रखना चाहिए और उस स्मरण के आधार पर अपने-आप ही साईनाथ का ‘स्मरण’ कैसे रहता है, यही बात यह पंक्ति मुझे बतलाती है। मुझे सदैव स्मरण रखना है वह इन बातों का कि बाबा को मेरे कर्मों की इत्थंभूत खबर है ही, बाबा सब कुछ पूर्ण रूपेण जानते ही हैं।

यह पंक्ति सर्वप्रथम जो बात बतलाती है, वह है कर्मस्वातंत्र्य का उचित उपयोग।

‘कहीं भी रहो, कुछ भी करो।’ यह प्रथम पंक्ति हमसे क्या कहती है? तो कहीं पर भी, कुछ भी करने का कर्मस्वातंत्र्य हर किसी को होता है। ये परमात्मा सचमुच पूर्ण रूपेण लोकतन्त्र के तत्त्वों के आधार पर ही इस विश्‍व का कारोबार चलाते हैं। वे हर किसी को पूर्ण रूपेण कर्मस्वातंत्र्य प्रदान करते हैं, वे किसी से भी उसके कर्मस्वातंत्र्य का अधिकार छिनते नहीं हैं।

लोकतन्त्र की प्रक्रिया में जिस तरह से लोगों के द्वारा चुनकर दी गई सरकार ही लोगों पर राज करती है, अपना कारोबार चलाती है, बिलकुल वैसे ही परमात्मा हर किसी को कर्मस्वातंत्र्य प्रदान करते हैं। हर किसी को कर्मस्वातंत्र्य है ही कि मेरे इस देह में किसे चुनना है, किसके हाथों देह का कारोबार सौंपना है। देश एवं देह इन दोनों में कार्यकारी रहने वाला लोकतन्त्र तत्त्व समान ही हैं। देह में किसे सम्मानपूर्वक स्थान प्रदान करना है इस बात का चुनाव करने का कर्मस्वातंत्र्य मुझे है कि मुझे कुमति को चुनकर उसे वह स्थान प्रदान करना है या सुमति को वह स्थान देना है, इस बात का निश्‍चय मुझे स्वयं ही करना है। यह मुझे ही तय करना है कि मुझे ‘मान’ के यानी अहंकार के हाथों में अपने देह का कारोबार सौंपना है या ‘नाम’ के हाथों में अपने जीवन के सभी सूत्रों को सौंपना है।

यह सब तो मुझे ही निश्‍चित करना होता है। अपने स्वैराचारी मन को अपने जीवन का राज्य सौंपना है या मर्यादाशील प्रज्ञा को चुनना है, इस बात का कर्मस्वातंत्र्य मुझे है।

इसके पश्‍चात् मैं जिस तत्त्व को चुनता हूँ, उसी तत्त्व के हाथों अपने देह का कारोबार सौंप देता हूँ, परन्तु इसके सुखद अथवा दुखद परिणाम भी मुझे ही भुगतने को मिलते हैं। अच्छा अथवा बुरा यह तो मेरे चुनाव पर ही सर्वथा निर्भर करता है। मेरे प्रारब्ध का जो कायाकल्प हो सकता है वह इस कर्मस्वातंत्र्य के कारण ही और इसी लिए इस कर्मस्वातंत्र्य का उचित उपयोग करना यही मेरे लिए श्रेयस्कर होता है।

जब मैं कर्मस्वातंत्र्य का दुरुपयोग करता रहता हूँ, उस वक्त उस पर अंकुश रखने के लिए परमेश्‍वरी न्याययंत्रणा भी सदैव सक्षम होती है, जो मुझे समय-समय पर कर्मस्वातंत्र्य का उचित उपयोग करने का मार्गदर्शन करते रहती है। हर किसी के देह में होनेवाली परमेश्‍वरी न्याययंत्रणा है – विवेक, विवेकबुद्धि, सारासार विवेकबुद्धी, सदसद्-विवेकबुद्धी।

यह विवेक गलत मार्ग पर जाने से मुझे बारंबार रोकते रहता है। कर्मस्वातंत्र्य का अनुचित उपयोग करने से पहले जो इस विवेक भी बात सुनकर समय रहते ही सावधान हो जाता है और उचित आचरण करने लगता है, उन्हें आगे चलकर बुरे परिणामों का सामना नहीं करना पड़ता है इसमें कोई शक नहीं।

यह विवेक हर पल मुझे इन पंक्तियों के भाव का अहसास करवाते रहता है कि ये साईनाथ सब कुछ जानते हैं, इस साईनाथ को मेरी कृतियों की इत्थंभूत खबर होती ही है, इसी लिए मेरा कर्म भले ही अन्य लोगों से छिपा रहे, परन्तु श्रीसाईनाथ से तो बिलकुल ही छिपा नहीं रह सकता है। इस बात का स्मरण सदैव रखकर ही मुझे हर एक कृत्य करना चाहिए।

‘कहीं भी रहो कुछ भी करो।’ इसके बाद के बोल अब देखते हैं।

साथ ही श्रीसाईनाथ कहते हैं कि ‘परन्तु इतना सदैव स्मरण रहे’ और यही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है। मुझे क्या करना चाहिए, तो मुझे सर्वप्रथम इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कर्मस्वातंत्र्य मुझे ज़रूर है, परन्तु मैं जो कोई भी कर्म करता हूँ उस हर एक कृति के पीछे छिपा भाव, हेतु, कारण आदि सब कुछ इस साईनाथ को उसी क्षण पता चल जाता है। बिलकुल छोटी सी चींटी से लेकर एक विशाल हाथी तक सभी पर उनकी नजर होती है।

छोटी सी चींटी से लेकर एक विशाल हाथी तक सभी की हर एक कृति का पूरा पता साईनाथजी को उसी पल चल ही चुका होता है, इसका सरलार्थ तो आसानी से हमारी समझ में आ जाता है; परन्तु इसका गूढ अर्थ भी है।

यह चींटी एवं हाथी मेरे ही मन के निवासी हैं।

मेरे मन का अतिसूक्ष्म विचार है चींटी। मेरी बिलकुल छोटी सी भी कृति है चींटी और हाथी अर्थात् मेरे मन के स्थूल विचार। मेरी दृश्य व्यक्त कृति यानी हाथी। इस साईनाथ को मेरे द्वारा की जानेवाली हर एक कृति का पूरा पता होता ही है।

चींटी इनकी नजरों से चूक जायेगी और केवल हाथी ही इन्हें दिखाई देगा, ऐसा समझने का कोई कारण नहीं है। अर्थात् इससे हम समझ सकते हैं कि मेरे मन में उठनेवाला छोटा से छोटा विचार भी इन तक पहुँच ही जाता है, वे सब कुछ जानते ही हैं। मन में उठनेवाला सूक्ष्मातिसूक्ष्म तरंग भी इन्हें पूर्ण रूप से पता होता है इस बात का स्मरण हमें सदैव बनाये रखना चाहिए।

मैं कहीं भी रहूँ, ऐसी जगह रहूँ कि वहाँ पर मुझे कोई भी नहीं देख सकता है, फिर भी मेरे साईनाथ मुझे देख ही रहे हैं, उनकी नजर मुझपर है ही, मेरे मन के अथाह सागर की गहराई को, किनारे पर की रेत के एक कण को भी वे जानते ही हैं, इस बात का सदैव स्मरण बनाये रखने में ही अपने आप ही मेरे मन में श्रीसाईनाथ का स्मरण रहता ही है।

हमें ऐसा लगता है कि श्रीसाईनाथ का स्मरण रखना चाहिए, परन्तु ‘वह कैसे करें यही हमारी समझ में नहीं आता है और इसी लिए ये पंक्तियाँ हमें श्रीसाईनाथ का स्मरण बनाये रखने का आसान मार्ग दर्शाती है। ये साईनाथ सब कुछ जानते हैं इस बात का स्मरण बनाये रखना, इसमें ही श्रीसाईनाथ का स्मरण सदैव बना रहेगा। बाबा सदैव मेरे साथ हैं ही इस बात के स्मरण से ही भक्त के मन में कर्मस्वातंत्र्य का उचित उपयोग करते रहने का अहसास बने रहता है, उससे अनुचित कर्म नहीं होते और साथ ही उसके मन में निर्भयता भी रहती है।

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