श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ४३)

 ‘भगवत्-अर्पण’ करने का ‘योग’ बाबा के आचरण के द्वारा हमें किस तरह सीखना चाहिए, इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे के बारे में हमने देखा। इसे हमें अपने जीवन में उतारना ज़रूरी है। ‘गहना कर्मणो गति:’ यानी ‘कर्म की गति अत्यन्त गहन है’ और इसी कर्म की गुत्थी में अच्छे-भले ज्ञानी, योगी, कर्मठ सभी फँस जाते हैं। फिर हम जैसे सामान्य मनुष्य को  कर्मजंजाल के बंधन से छूटना कितना मुश्किल होगा? इसीलिए ये साईनाथ स्वयं अपने आचरण के द्वारा जिस तरह ‘काँटे से काँटा निकालते हैं’ उसी तरह ‘भगवत्-अर्पण’ कर्म के माध्यम से सकाम कर्म का काँटा कैसे निकालना है, यह सीखा रहे हैं।

साईनाथकर्म किया तो उसका फल अवश्य मिलेगा ही और कर्म करते समय हम जैसे सामान्य मानवों के मन में फलाशा होने के कारण हमारा जो भी कर्म है वह अचूक एवं निर्दोष नहीं होता। कर्म का अटल सिद्धान्त किसी के छुड़ाये नहीं छूटता। फिर इस कर्म जंजाल से भला मैं कैसे छूट सकता हूँ? इसके लिए इस कर्म की गुत्थी में फँसानेवाली जो मूल बात है, उसे पहचानकर जो मेरे जीवन की गहराई तक धँसा हुआ है उस काँटे को जड़-मूल सहित निकालना आवश्यक है।

इस ‘कर्म-तंत्र’ में यानी कर्म-कर्मफल के बन्धन में मैं क्यों फँसता हूँ? इसका मूल एकमेव कारण यही है कि हर एक ‘कर्म’ करते समय ‘मैं यह कर रहा हूँ’ इस भावना के साथ मैं कर्म करता रहता हूँ । ‘मैं यह कर्म कर रहा हूँ, इसका फल मुझे इस प्रकार मिलेगा अथवा मिलना ही चाहिए’ इस प्रकार की फलाशा मैं धारण करता हूँ। और फिर कर्म फल मिलने पर, ‘मैंने इतना कुछ किया इसीलिए मुझे यह फल मिला है’, यही मेरा मानना होता है। फिर उस कर्मफल के कारण जो स्थिति निर्माण होती है, उसमें से अनेक नये-नये कर्मों का उद्भव होता है और साथ ही उससे संबंधित फलाशा एवं कर्मफल भी। उदाहरण- जैसे मैंने किसी व्यापार में पैसे लगाए, व्यापार यशस्वी होने के लिए कर्म भी किया, मुझे उसमें मुनाफ़ा होने के साथ वे पैसे दुगुणे भी हो गए। उन मिलनेवाले पैसों को मैंने दूसरे नये व्यापार में लगा दिया। फिर उसमें किया जानेवाला कर्म, फलाशा, कर्मफल आदि बातें यह सिलसिला बढता ही रहता है। । जिस तरह एक व्यापार से अनेक प्रकार के व्यापार का निर्माण मैं करता हूँ, उसी तरह फलाशा एवं कर्मफल भी उत्पन्न करता हूँ। जिस तरह एक बीज से अनेक बीजों का निर्माण होता है, अनेक वृक्षों का निर्माण होता है, वही नियम कर्म का भी होता है।

इस कर्मतंत्र का मूल है- ‘मैं कर्ता (करनेवाला) हूँ, मैं ही कर्मफल का भोक्ता हूँ यानी कर्मफल का उपभोग करनेवाला हूँ’, यह स्वयं का ‘कर्म-कर्तृत्व’ मानने की वृत्ति। हर एक कर्म में मेरा यह ‘मैं’ जब तक केन्द्रस्थान पर रहता है, तब तक इस कर्मजाल से मैं मुक्त नहीं हो सकता हूँ, कर्मतंत्र मेरे ही सिर से टकराता ही है। परन्तु साईनाथजी के आचरण में कभी भी यह ‘मैं’ सिर नहीं उठाता है। बाबा कहीं पर भी उनका स्वयं का ‘कर्मकर्तृत्व’ नहीं मानते। हम ही हैं जो हर समय ‘मैं ही कर्ता हूँ’ यह मान्यता दृढ़ होने के कारण श्रेय (क्रेडिट) की अपेक्षा रखते हैं।

बाबा के आचरण के द्वारा यह जो ग्यारहवाँ मुद्दा हम ने देखा, उसके अनुसार हमें इस कर्म-कर्तृत्व को अपने पास न रखते हुए ईश्वर को ही ‘कर्ता’ एवं ‘करवानेवाला’ मानकर हर एक कर्म ‘ईश्वरार्पण’ भाव के साथ करना सीखना चाहिए।

यहाँ पर हेमाडपंत के अनुसार साईनाथजी सहज ही सुंदर तरीके से हमें बता रहे हैं कि मनुष्य के जीवन में यह ‘कर्तृत्व स्वयं पर लेना’ यह काँटा यानी ‘मैं ही कर्ता हूँ’ यह अहं-कर्तृत्व का काँटा उसे चूभा होता है और उसे ईश्वरार्पण कर्म के काँटे से ही निकालना चाहिए।

‘मैं ही कर्ता हूँ’ इस काँटे को निकालने वाला काँटा है- ईश्वरार्पण कर्म का काँटा! ‘राम ही कर्ता हैं’ इस विश्वास के साथ कर्म करना यही इस काँटे से मेरे जीवन में धँसे हुए ‘मैं ही कर्ता हूँ’ इस कर्मतंत्र के काँटे को निकालना है। गेहूँ पीसने की कथा के माध्यम से यही बात बाबा स्वयं के आचरण के द्वारा कितनी आसानी से हमें बता रहे हैं ना! इस प्रथम अध्याय की कथा के आरंभ में ही बाबा ने इसी मर्म को हेमाडपंत के द्वारा हमारे सामने सुस्पष्ट रूप में रख दिया है।

किसी भी क्रिया का अथवा फल का । नहीं हूँ मैं बिलकुल भी कर्ता भोक्ता ।
यह भाव जो उपजता है निरहंकृति का । है ब्रह्मार्पण का वह योग ॥
ऐसी रीति से कर्म करते । सहज ही उपजती है नैष्कर्म्यता ।
कर्म का कदापि न हो सके है त्याग । किया जा सकता है कर्मकर्तृता का त्याग ॥
काँटे से काँटा निकाले बिना । कर्म न रुक सके कर्म बिना ।
हाथ लगते ही निजात्म चिह्न । कर्म संपूर्ण रहेगा ॥
फलाशा का पूर्ण विराम। काम्यत्याग का है यही वर्म।
करना नित्यनैमित्तिक कर्म। ‘शुद्ध स्वधर्म’ कहते हैं इसे॥

सचमुच कितनी अप्रतिम पंक्तियाँ हैं ये! हमारे प्रति रहनेवाली आत्मीयता से हमारे उद्धार का सरल उपाय बतानेवाला मेरे साईनाथ के बिना दूसरा और कोई भी नहीं है। कर्मतंत्र से मुक्त वे ही कर सकते हैं। कर्म का त्याग नहीं करते बनता और इस प्रकार से कर्म का त्याग करने का विचार भी गलत ही है। त्याग करना होता है ‘कर्मकर्तृता’ का। ‘मैं ही कर्म का कर्ता हूँ’ यह भावना छोड़कर ‘राम ही कर्ता हैं’ इस भाव को मुझे अपने मन में दृढ़ करना चाहिए।

राम जब कर्ता हैं, तो फिर मैं कर्म क्यों करूँ, यह मानना तो सर्वथा गलत है। मानवयोनि को भगवान ने कर्मस्वातंत्र्य प्रदान कर रखा है और किसी भी योनि को नहीं; अत एव कर्म करना हर एक मानव के लिए अति आवश्यक है। सिर्फ कर्म करते समय इस अहंकर्तृतारूपी काँटे को ईश्वार्पणकर्मरूपी काँटे से निकाल देना चाहिए और काँटे से काँटा निकालने पर जिस तरह दोनों काँटे को हम फेंक देत हैं, उसी तरह अहंकर्तृतारुपी काँटे को ईश्वरकर्तृतारूपी काँटे से निकाल देने के बाद ‘मैंने ईश्वरार्पणकर्म किया’ अर्थात ‘मैंने कर्म को ईश्वरार्पण कर दिया’ इस सात्त्विक अहंकार के काँटे को भी फेंक देना होता है।

‘मैं ईश्वरार्पण कर्म करता हूँ’, ‘मैं निष्काम कर्म करता हूँ’, ‘मैंने कर्म भगवान को अर्पण करने का ब्रह्मार्पणयोग साध्य किया है’ यह सात्त्विक अहंकार भी भक्तों के पास नहीं होना चाहिए क्योंकि आख़िर वह भी तो काँटा ही है। अहंकर्तृता के काँटे को ईश्वरार्पण कर्म के काँटे से निकालने के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है और उसका कार्य हो जाने पर उस काँटे को सँभालकर रखना भी उचित नहीं है। यही बात साईनाथ इन पंक्तियों के माध्यम से बता रहे हैं।

यह सब है कि ईशकर्तृतारूपी सात्त्विक अहंकार का काँटा अहंकर्तृतारूपी काँटे को निकालने के लिए उपकारक साबित होता है, फिर भी सात्त्विक अहंकार का काँटा भी आखिर काँटा ही है और यदि वह उपकारक है तब भी उसे चुभोकर नहीं लेना है। इस प्रकार काँटे से काँटा निकालना चाहिए और दोनों ही काँटों को (जो चुभा हुआ है उसे भी और जिस काँटे से चुभे हुए काँटे को निकाला है उसे भी) फेंक देना चाहिए और ‘शुद्ध स्वधर्म’ साध्य करना चाहिए। ‘मैं ही कर्ता हूँ’ इस भावना का लोप हो गया तथा ‘साई ही कर्ता हैं’ यह भाव दृढ़ हो गया कि अपने आप ही फलाशा नष्ट हो जाती है। इस तरह ही ‘शुद्ध स्वधर्म’ को साध्य किया जाता है।

प्रथम अध्याय की ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पंक्तियाँ हमें अत्यन्त कठिन रहनेवाले कर्मतंत्र से सहज सुंदर तरीके से बाहर निकलने का मार्ग दिखाती हैं। आगे चलकर गेहूँ पीसनेवाली कथा में बाबा अपने खुद के आचरण के द्वारा इसी मर्म को उद्घाटित करते हैं।

उन चारों के मन में ‘हम ने पीसने का कर्म किया है, इसलिए हमें इस आटे का एक हिस्सा मिलना चाहिए’ इस प्रकार की ‘अहंकर्तृता’ आ जाती है। बाबा वहीं पर तुरंत उसे पूर्ण विराम देकर उन्हीं के हाथों उस आटे को गाँव की सीमा पर डलवा लेते हैं और उन्हें कर्म ईश्वरार्पण करने के मार्ग पर स्थिर कर देते हैं। हम सामान्य मनुष्य हैं, इसलिए बहुत जल्द ईश्वरार्पण-कर्मयोग करना हमारे लिए थोड़ा मुश्किल हो सकता है परन्तु  हर एक कर्म करते समय ‘मेरा साई ही कर्ता है’ इस भाव को बारंबार दृढ़ करते रहने से धीरे-धीरे इस बात को हम साध्य कर सकते हैं। महज़ मुख से ‘कर्म साई को अर्पण कर दिया, साई कर्ता हैं’ ऐसा कहकर नहीं चलता है, बल्कि मन में यह दृढ़ भाव होना महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए रोज नित्यनियमपूर्वक ‘उदी’ लगाना महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि यह उदी ‘आज्ञाचक्र’ एवं ‘विशुद्ध’ चक्र इस स्थान पर धारण करने से ‘ये साईनाथ ही कर्ता हैं’ इस भाव को यह उदी ही मेरे अंतर में दृढ़ करती है। इस उदी का नित्य सेवन करना चाहिए, जिससे मेरे अंतर में ‘साईकर्तृता’ अपने आप दृढ़ हो जायेगी।

साईनाथ की प्रतिमा, तसवीर, लॉकेट आदि को हमेशा अपने पास में रखने से बारंबार साईनाथ का स्मरण मन में होते रहता है और बाबा के इस बारंबार स्मरण से ही मन में निरहंकारी भाव दृढ़ होता है। इससे ‘शुद्ध स्वधर्म’ साध्य होता है। बाबा की प्रार्थना करते हुए कार्य करते रहना यह बड़ी ही आसान राह है। साईसच्चरित की हर एक कथा को हमें याद करते रहना चाहिए, क्योंकि इस हर एक कथा में ‘साई ही कर्ता हैं’ इसी सत्य को स्पष्ट किया गया है।

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