श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ६) – फलाशा का पूर्णविराम

shirdi_sainath_mauliफलाशेचा पूर्ण विराम । काम्य त्यागाचें हेंची वर्म। करणे नित्य नैमित्तिक कर्म ।‘शुद्धस्वधर्म’ या नांव॥’
श्रीसाईसच्चरित (१/१००)

(फलाशा का पूर्णविराम । काम्यत्याग का यही वर्म। करना नित्यनैमित्तिक कर्म ।‘शुद्ध स्वधर्म’ इसी नाम॥)

फलाशा का पूर्ण विराम यही काम्यत्याग का वर्म है अर्थात कर्म का त्याग न करते हुए फलाशा नष्ट करके पूरी दक्षता के साथ कर्म करना, कर्म में ही आनंद का अनुभव करना तथा कर्म ही कर्म फल है इसी निष्ठा के साथ नैमित्तिक रुप से कर्म (का आचरण) करना इसी को ‘शुद्ध स्वधर्म’ कहते हैं। अत्यन्त सुंदर एवं सहज सरल शद्बों में हेमाडपंत यह पर सर्वोच्च रहस्य का पर्दा-फास (खोलते) करते हैं। शुद्ध स्वधर्म यानी क्या, यह कितने सरल-सरलतम शद्बों में समझाकर बतलाते हैं। श्रीमद्‌पुरुषार्थ के आरंभ में श्रीअनिरुद्धजी इसी सिद्धांत को अत्यन्त सुंदर प्रकार से सुस्पष्ट करके बताते हैं –

करते ही फलाशा नष्ट । दूर हो जाये सारे अनिष्ट।
पाओगे यश यथेष्ट। यही रहस्य है कर्म के ॥
कर्म करना मानवधर्म । फल देना ‘उनका’ धर्म ।
पालन करना ‘स्व-धर्म’। यही ‘तप’ है कहा (गया)॥
स्वधर्म करो सदाचारपूर्वक । नियम बनालो कर्म का।
सत्‌कर्म अर्पण करो प्रभुचरणों में। यही उत्तर गुढ़ार्थ॥

कर्म करना यह मनुष्य का धर्म है एवं फल देना उचित समय पर उचित फल देना यह ‘उनका’ अर्थात ईश्वर का धर्म है। मुझे इस कर्म का मेरी इच्छानुसार फल जब मुझे चाहिए उसी समय वही फल मुझे मिलना चाहिए ऐसी फलाशा करना सर्वथा गलत है। किस कर्म का फल कब, कैसा फल देना है यह ईश्वर का अधिकार है। मुझे उसमें बोलने का कोई अधिकार नहीं यानी फलाशा रखना ही अधरम है, मेरे स्वधर्म का पालन मैं करूँगा अर्थात मेरा सत्कर्म, उचित कर्म मैं करूँगा मुझे जो  फल देना है वह ईश्वर देगा ही, मुझे बीच में बोलने की कोई ज़रूरत नहीं हैं। ईश्वर अपने धर्म का पालन बारीकी से करते ही हैं। मुझे अपना काम अचूकरुप से पूरा कर अपने स्वधर्म का पालन करना चाहिए।
‘स्वधर्म निधनं श्रेय: परधर्मों भयावह:।’

यह श्रीकृष्ण भगवान का भगवद्‌गीता में लिखा गया सुंदर वचन यही भावार्थ विशद करता है। मुझे अपने धर्म का पालन करना चाहिए अर्थात मुझे अपना कर्तव्य प्रेमपूर्वक ही करना चाहिए। यहाँ पर ‘धर्म’ इस शब्द का सही मायने में की गई व्याख्या से हमें पता चलता है किसी भी लौकिक प्रचलित धर्म से इसका अभिप्राय न होकर फलाशा विरहित कर्म करके उसे ईश्वर को अर्पण करना यही सच्चा धर्म है। पाध्ये वंश में इसी स्वधर्म का बारीकी से पालन गया। ‘इदं न मंम । इदं साईनाथाय। साईनाथार्पणमस्तु।’ ये उनके (परवलीचे) आदरसूचक शब्द थे।

यदि कोई सादा नमस्कार भी करता तब भी हृदय में स्थित परमात्मा को स्मरण कर ऊपर लिखित उच्चारण मन:पूर्वक किया जाता था। उसी प्रकार स्वयं के नित्यनैमित्तिक करते (कर्म) समय भी हर एक सत्‌कर्म फलाशा का पूर्णविराम देकर ही किया जाता था और वह कर्म साईराम के चरणों में समर्पित किया जाता था। श्रीअनिरुद्धजी की आजी (नानी) सौ.शकुंतलाबाई पंडित (पूर्वाश्रम की मालती पाध्ये) तो रोज १०८ बार श्रीरामरक्षा स्त्रोत का पठन पूरा कर साईनाथ के चरणों में अर्पण कर “भगवन, जिसे जरुरत होगी ऐसेइ ही तुम्हारे भक्त के खाते में तुम्हीं इसे जमा कर देना। मुझे सिर्फ़ तुम्हारी ही ज़रुरत है (मैं सिर्फ़ तुम्हें ही चाहती हूँ) और मुझे मेरी भक्ति में से कुछ भी नहीं चाहिए। यह सब कुछ तुम्हारा ही है, तुम जो चाहो करो। इसे तुम्हारे ज़रुरतमंद भक्त के खाते में डाल दो। यह कहकर ‘इदं न मम। इदं साईनाथा। साईनाथार्पणमस्तु।’ ऐसा कहकर श्रीसाईनाथ के चरणों में लोटांगण करती थी।

हमें भी पाध्ये वंश की इस ‘धरोहर’ को लेना चाहिए। अपने नित्यनैमित्तिक कर्म को करते समय इस प्रकार से स्वधर्म पालन करना चाहिए। मैं गृहस्थाश्रमी हूँ, मेरी नौकरी है अथवा व्यवसाय करता हूँ, फिर गृहस्थाश्रमी के सभी कर्तव्य का पलन में ईमानदारी से करूँगा। मेरा व्यवसाय अथवा नौकरी इनमें से मैं अपना कार्य ठीक से करूँगा। मेरे साईनाथ के ईच्छानुसार मुझे यह गृहस्थी (संसार) मिली है, यह नौकरी, यह व्यवसाय मुझे मिला है इन्हीं के द्वारा मैं अधिक से अधिक विकास करूँ यही साईनाथ की इच्छा है। इसीलिए मैं औरों को भी अधिक से अधिक आनंद देते हुए अपना विहित कर्म फलाशाविरहित भाव से करूँगा और उसे साई चरणों में अर्पण कर दूँगा। मैं प्रमोशन प्राप्त करुँगा और उसे साई चरणों में अर्पण कर दूँगा। मैं प्रमोशन प्राप्त करूँगा, अधिक पैसा भी कमाऊँगा, मैं अपने बाल-बच्चों को उत्तम शिक्षण भी दूँगा, अपनी प्रगति भी करुँगा। पैसा कमाना कोई गलत बात नहीं है, सिर्फ उस उचित मार्ग से प्राप्त करना ही महत्त्वपूर्ण है। मैं अपना व्यवसाय बढ़ाऊंगा, नई-नई बाते सीखूँगा, पर्यटन करुँगा, नये-नये शौक रखूँगा, परन्तु यह सब करते समय नीतिमर्यादा का ध्यान ज़रुर रखूँगा(के विरुद्धकार्य नहीं करुँगा) और मुझे मिलनेवाले यश के, आनंद के, समृद्धि के सफलता का कारण मेरा कृर्तृत्व न होकर मेरे साईनाथ की कृपा ही है इस बात का स्मरण सदैव रखूँगा । मैं अपने साईनाथ का ही हूँ और मेरा सर्वस्व मेरे साईनाथ का ही है यही निष्ठा अखंड बनाये रखूँगा।

सभी काम भगवान को अर्पण करना , एक पल भी भगवान का विस्मरण हो जाने पर मन का व्यथित (दु:खी) हो जाना यही भक्ति के लक्षण है ऐसा नारदमुनि ने कहा है। अपने साईनाथ का सदैव स्मरण रखकर सभी कर्म साई चरणों में अर्पण करना यही भक्ति है। गृहस्थी, व्यवहार सब कुछ करते समय मन में बाबा का स्मरण सदैव होना चाहिए और इसके लिए साई के नामस्मरण का आधार लेना चाहिए। मेरे साईनाथ को सदैव मेरा स्मर्ण रहता है, वे मुझे कभी नहीं भूलते, बिलकुल जन्मजन्मांतर वे (यह) हमारा ध्यान रखते हैं, मेरी उन्नति के लिए निरंतर कोशिश करते रहते हैं।

‘माझ्या भक्तांची मी अहर्निश घोकनी करत असतो’(अपने भक्तों के लिए में अथक प्रयत्न करते रहता हूँ)

बाबाका विस्मरण ये मृत्यु समान है कारण जब साईनाथ ही हमारे जीवन में नहीं रहेंगे फिर जीवन में ज़िन्दगी ही कहा रहेगी? आनंद कहाँ? जीवित रहकर भी जीवन मृतक समान ही रहेगा । साई का अखंड स्मरण जहाँ पर हैं, वहाँ पर फलाशा प्रवेश ही नहीं कर सकती और यदि करना चाहेगी भी वो कहाँ से और कैसे? जहाँ पर सूर्य है वहाँ पर अंधकार प्रवेश कैसे कर सकता है और कहाँ से? इसीलिए साईबाबा का अनिरुद्ध स्मरण यही फलाशा विरहित कर्म करने का और उस कर्म को बाबा के चरणों में अर्पण करना ही शुद्ध स्वधर्म पालन का सहज सुंदर मार्ग है। भक्ति की अनेक व्याख्या है और वे सभी अपने-अपने स्थान पर योग्य ही हैं। परन्तु मेरे समान सामान्य भक्त के लिए भक्ति की सरल आसान रास्ता हमें दिखाते हैं,  वह है, ‘साईकथानुस्मरण’ । बाबा की कथाओं का बारंबार स्मरण करना, उनका कथन करते रहना, बाबा का नाम-गुण-लीला-कथा का गान करते रहना’। यही हमारे लिए भक्ति है। हेमाडपंतजी द्वारा दिखाया गया यह राजमार्ग हमारे सामने होते हुए दूसरे रास्तों को ढूँढ़ने की ज़रूरत ही क्या है।

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