श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ४७)

श्रीसाईसच्चरित के इस पहले अध्याय का नाम है- ‘मंगलाचरण’। इसी मंगलाचरण के द्वारा ये साई हर एक जीवात्मा के जीवन में प्रवेश करते हैं। अब ‘साई प्रवेश करते हैं’ इस वाक्य का निश्‍चित अर्थ क्या है? अकसर हम शिरडी एवं शिरडी के साईनाथ के बारे में सुनते हैं, कई बार इस बारे में पढ़ते रहते हैं तो कई बार फिल्मों आदि के माध्यम से भी हमें साई की पहचान हुई होती है।

saisatcharitra - श्रीसाईसच्चरित

फिर साईसच्चरित की ऐसी क्या विशेषता है? जिस क्षण इस मंगलाचरण के साथ कोई भी जीवात्मा इस साईसच्चरित को सप्रेम पढ़ना आरंभ करता है, उस समय अकारण कारुण्य के निधि रहनेवाले ये परमात्मा साईनाथ उस हर एक भक्त के जीवन में कार्यरत हो जाते हैं और उस श्रद्धावान के प्रवास में गति प्रदान करते हैं।

जैसे जैसे श्रद्धावान का साईसच्चरित पठन आगे बढ़ने लगता है यानी एक अध्याय के बाद दूसरा अध्याय इस क्रम से वह पढता रहता है, वैसे वैसे उसकी श्रद्धा और सबुरी दोनों दृढ़ होने लगती हैं। ‘मेरा आदर्श कौन है? मेरा भगवान कौन है? मेरा मित्र कौन है? मेरा सद्गुरु कौन है? मेरा मार्गदर्शक कौन है?’ ये और इस प्रकार के उठनेवाले अनगिनत प्रश्‍नों का केवल एक और एक ही उत्तर उसे मिलता है और वह है- एक ही समय पर ये सभी भूमिकाएँ मेरी ज़रूरत के अनुसार जो निभा सकता है वह है ‘परमात्मा’। साईसच्चरित पठन करने पर यह पता चलता है कि साई ने बिलकुल सामान्य से सामान्य मनुष्य में भी बदलाव लाकर उसका रूपांतरण श्रेष्ठ भक्त में किया है, फिर ‘मेरे जीवन में ‘वे’ ज़रूर उचित बदलाव लायेंगे ही और मेरा जीवन सफल होगा ही’ यह एहसास दृढ़ हो जाता है और ‘मेरे जीवन का उद्धार केवल ये परमात्मा ही कर सकते हैं’ यह उसका विश्‍वास भी दृढ होता है।

अब फिर से एक बार गेहूँ पीसनेवाली कथा को हम देखेंगे। वैसे देखा जाये तो साईसच्चरित में घटित होनेवाली कोई भी घटना साधारण नहीं है। परन्तु जिस गेहूँ पीसनेवाली घटना से इस साईसच्चरित का आरंभ होता है, वह घटना भी असामान्य है। इसीलिए हेमाडपंत वर्णन करते हैं-देख पीसनेवाला दृश्य। कौतूहल बढ़ गया मेरे मन का।

गेहूँ पीसना यानी क्या? तो जाँते में अनाज डालकर उस जाँते को घुमाने पर उस धान्य का आटा बनकर निकलनेवाली जो क्रिया की जाती है, उसे पीसना कहा जाता है।

यहाँ पर अब हम जिस जाँते के द्वारा आटा तैयार किया जाता है उस जाँते की गति के विषय में जानकारी हासिल करेंगे । जाते की दोनों तहें (हिस्सें), जिनका उपयोग पीसने के लिए किया जाता है, वे गोलाकार होते हैं। जाँते की ऊपरी सतह पर खूंटा मज़बूती से ठोका गया होता है और उस खूंटे को पकड़कर जाता घुमाया जाता है। अब घुमनेवाले जाते की गति होती है-वर्तुलाकार।

इसी महत्त्वपूर्ण बात पर हमें गौर करना चाहिए कि घूमनेवाली जाते की गति गोलाकार होती है। गोलाकार यह पूर्ण-आकृति है। गोलाकार यानी ०° से ३६०° तक का प्रवास। गोलाकार प्रवास यानी परमात्मा के द्वारा निर्धारित किये गये देवयान मार्ग के अनुसार होनेवाला नियमबद्ध प्रवास यानी मर्यादा मार्ग पर होनेवाला प्रवास। ०° से ३६०° तक का प्रवास यानी एक बिंदू से आरंभ करके पुन: उसी स्थान पर आना। परन्तु इसके मध्य होनेवाले समय समय में एक सुंदर आकृति तैयार हो चुकी होती है। यानी यह एक सामान्य जीवात्मा से शुरू होकर मर्यादामार्गी पुरुषार्थी बननेवाला प्रवास। मेरा एक सामान्य मनुष्य होना यानी मेरा ०° के स्थान पर खड़ा होना और जब मैं ३६०° के स्थान पर खड़ा रहता हूँ, तब मैं एक मर्यादामार्गी पुरुषार्थी होता हूँ।

जिस क्षण यह गेहूँ पीसनेवाली क्रिया मेरे जीवन में शुरू होती है, उसी क्षण मेरे अन्दर के ‘मैं’ का प्रवास शुरू हो जाता है और जैसे-जैसे पीसने की गति आगे बढ़ने लगती है, वैसे-वैसे इस प्रवास की गति भी आगे-आगे बढ़ती है और जिस क्षण यह ३६०° तक पहुँच जाती है, तब उस जीवन की एक परिपूर्ण आकृति तैयार हो चुकी होती है। यही होता है मेरा जीवन विकास।

लेकिन फिर यह गति गोलाकार में ही क्यों? ऐसा प्रश्‍न निर्माण हो सकता है। वह गति सीधे एक ही दिशा में रास्ते की गति के समान अथवा किसी चौकोन आयात के समान क्यों नहीं हो सकती है? हमने पहले ही देखा है और वह है कि गोलाकार यह एकमेव पूर्णाकृति है आयताकार, चौकोन अथवा सीधी रेखा ये सभी पूर्णाकृति नहीं हैं। इसी कारण जब ०° से आरंभ होनेवाला मेरा प्रवास ३६०° तक पहुँच जाता है तभी जाकर मेरे जीवन की एक पूर्णाकृति तैयार होती है।

भूगोल में हम सीखते हैं कि हमारी सूर्यमाला के ग्रह, सूर्य के चारों ओर गोलाकृति में घूमते हैं, तभी उनकी विशिष्ट परिक्रमा पूरी होती है और पृथ्वी के इस तरह गोलाकार रूप में घूमने के कारण ही इस पृथ्वी पर जीवसृष्टि चल रही है।

इन ग्रहों को यह गति ‘उस’ विश्‍वनिर्माता ने दी है और वह आजतक उस प्रकार चल रही है अर्थात इस परमेश्‍वर के द्वारा निर्धारित की गयी इस गोलाकार गति के पीछे कोई सूत्र ज़रूर होगा ही।

पीसनेवाली इस कथा के माध्यम से साईनाथ हमें गवाही ही दे रहे हैं- यानी ‘तुम ०° से शुरू तो करो मैं तुम्हें ३६०° तक ज़रूर ही ले जाऊँगा’। यानी तुम कोई भी हो, कैसे भी हो परन्तु जिस पल तुम मेरे नियमानुसार आचरण करोगे, तब तुम्हारे जीवन का पूर्ण विकास होगा ही । सिर्फ ‘उनके’ नियम के बंधन बिना तोड़े उसका पालन करना ज़रूरी है।

हमने इस लेख में दो आकृतियाँ देखीं। आकृति ‘अ’ और आकृति ‘ब’। आकृति ‘अ’ का गोलाकार यह पूर्णत: सुनियंत्रित गोलाकार है। इस गोल आकृति के समान जीवन होना यह मर्यादा पालन करना है। वहीं, आकृति ‘ब’ की गति से यदि जीवनक्रम चलाना है तो उसे पूर्णत्व की प्राप्ति कभी नहीं होगी यानी उसकी पूर्णाकृति कभी नहीं होगी।

गोलाकार गति भी दो प्रकार की होती है। एक जो हमने देखी है उस तरह आकृति ‘अ’ के गोलाकार के समान और दूसरी है कोल्हू के बैल के समान गोलाकार गति। यह कोल्हू का बैल जब तक गोलाकृति में घूमता है तब तक ही तेल निकलता है परन्तु उस कोल्हू के बैल की आँखों पर परदे के समान पट्टी बँधी होती है ताकि वह इधर-उधर कहीं भी देख न सके। इसी कारण उसे सिर्फ चारों ओर घूमना पड़ता है। मध्यभाग में होनेवाले खंभे से उसका कुछ भी लेना देना नहीं होता।

इसके विपरित आकृति ‘अ’ में रहनेवाले गोलाकार की परिधि की प्रत्येक बिंदू यह निरंतर उसके केन्द्र के साथ जुड़ी हुई ही होती है और रह भी सकती है। अब इन दो उदाहरणों से हमें क्या सीख मिलती है? कोल्हू के बैल की तरह उसी गोलाकार में घूमना यानी प्रारब्ध की डोरी में बँधा हुआ जीव, जिसकी किस्मत में सिर्फ प्रारब्ध के नियमानुसार जीना ही लिखा गया होता है। और आकृति ‘अ’ में दिखाये गए गोलाकृति में घूमनेवाला भक्त, जिसके केन्द्र में परमात्मा होते हैं, उसका प्रवास परमात्मा की इच्छानुसार ही होता है, उसे प्रारब्ध की मार कभी झेलनी नहीं पड़ती।

हर एक को आकृति ‘अ’ के समान ही जीवन की गति चाहिए होती है, परन्तु वह गति कब आती है? जब मैं ‘उस’ परमात्मा का नामस्मरण हर समय करते रहता हूँ तब।

गेहूँ पीसनेवाली कथा की चारों औरतें भी यही करती हैं। वे जिस क्षण बाबा के हाथों से खूंटा खींचकर पीसने लगती हैं, उसी क्षण वे पीसते-पीसते बाबा की लीलाओं का वर्णन करती हैं, बाबा की लीलाओं के गीत गाती हैं।

वे अपने परमात्मा का, साईनाथ का गुणसंकीर्तन एवं नामस्मरण करना शुरू कर देती हैं और उसी नामस्मरण के अन्तर्गत उनका पीसाई का काम भी पूरा हो जाता है।

जिस क्षण हर एक ‘मैं’ के जीवन में ‘ये’ परमात्मा इस प्रकार की पीसाई का कार्य आरंभ करते हैं, तब हर एक ‘मैं’ को अपने जीवन की पूर्णाकृति करने का ध्येय रखना चाहिए। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जिस क्षण पीसने का कार्य आरंभ होगा वहीं से वह पीसने का कार्य पूरा होने तक ‘उन’के नामस्मरण की पकड़ को ढ़ीला न करें।

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