श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-८८

रोहिले की कथा द्वारा साईनाथ हमारे जीवन में कर्ता के रूप में उन्निद्र स्थिति में सदैव रहें इसके लिए हमें क्या करना चाहिए इस बात का बोध हमने हासिल किया। गुणसंकीर्तन करनेवाले भक्त के जीवन में ये साईनाथ सदैव उन्निद्र स्थिति में होते ही हैं। इस बात का अध्ययन हमने बाबा की गँवाही द्वारा किया।

मद्भक्ता यत्र गायंति’। तिष्ठित रहूँ वहाँ मैं उन्निद्र स्थिति में।

सत्य करने इस भगवदुक्ती। ऐसी प्रतिती दिखाई॥

(‘मद्भक्ता यत्र गायंति’। तिष्ठें तेथें मी उन्निद्र स्थितीं। सत्य करावया हे भगवदुक्ती। ऐसी प्रतीति दाविली॥)

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईमेरे भक्त जहाँ पर मेरा गुणसंकीर्तन करते हैं। वहाँ पर मैं उन्निद्र स्थिति में होता ही हूँ’ भगवान की उक्ति रोहिले के कथाद्वारा भगवान ने ही सत्य करके दिखा दिया है। जो भक्त निंद लेते रहता है अर्थात भक्तिसेवा, गुणसंकीर्तन इन सबके प्रति उदासिन होता है। निष्क्रिय होता है, उसके जीवन में ये भगवान साक्षीभाव में ही रहते हैं और जब मेरा हित करनेवाले इस भगवान को ही मैं साक्षीभाव में रहने पर मजबूर कर देता हूँ उस वक्त मुझ पर आनेवाले संकटों का, प्रारब्ध की, भोगों की तकलीफ मुझे ही सहन करनी पड़ती है।

सच पुछा जाए तो इस भगवंत को उन्निद्र स्थिति में ही हर किसी के जीवन में रहना पसंद है, परन्तु मैं ही उन्हें अपने प्रज्ञापराधों के कारण साक्षीभाव में रहने पर मजबूर कर देता हूँ और फिर दु:खों की, क्लेश की परंपरा मैं स्वयं अपने ही आप अपने जीवन में खींच लेता हूँ। निद्रा यही स्वरूप भगवान को मेरे जीवन में उन्निद्र स्थिति में नहीं रहने देता, यही निद्रा वह रोहिली है, वहीं योगनिद्रा यही वह उस परमात्मा की संधिनी शक्ति है।

निद्रा हमारे जीवन में रोहिली को अर्थात माया को ले आती है वहीं गुणसंकीर्तन भक्ति हमें परमात्मा से जोड़नेवाली है। ग्रामनिवासी जो बाबा के पास शिकायत लेकर गए, वह केवल इसलिए कि इससे उनके निंद में बाधा आ रही थी इसीलिए। तात्पर्य यह है कि रोहिलीरूपी निद्रा की जकड़ में ग्रामवासी आ फँसे हैं। और इस निद्रा को दूर करनेवाले, रोहिली को भगा देनेवाले गुणसंकीर्तन करनेवाला रोहिला उन सभी को पसंद नहीं है।

साईनाथ तो कभी भी इस निद्रा के जाल में फँसनेवाले नहीं हैं, वे इन सब से परे हैं। ‘निद्रा यह विष उनकी नजर में’ इस तरह से हेमाडपंत वर्णन कर रहे हैं।

फिर बाबा जिसे विष मानते हैं, वह हमारे लिए यह विष ही है। ग्रामवासियों को बाबा यही सीख देना चाहते। परन्तु वे ग्रामवासी ऐसे हैं जिनकी समझ में कुछ आ ही नही रहा है।

करता था भले ही कंठशोष। बाबा संतुष्ट कलमों से।

सुनते रहते अहर्निश। निद्रा यह विष उनके समक्ष॥

कहाँ कलमों की प्रबोधवाणी। कहाँ ग्रामस्थों की व्यर्थ शिकायतें।

उन्हें लाने हेतुमार्ग पर। सीख थी यह बाबा की।

(करी ना का कंठशोष। बाबांसी कलम्यांचा संतोष। ऐकत राहतील अहर्निश। निद्रा तें विष तयांपुढें॥ कोठें कलम्यांची प्रबोध वाणी। कोठें ग्रामस्थांचीं पोकळ गार्‍हाणीं। तयांसी आणावया ठिकाणीं। बतावणी ही बाबांची॥)

ग्रामवासी ही रूपक हैं हम रजोगुणी मानवों के। जिन्हें इस रोहिली के विष के बारे में पता नहीं चल पाता है। रोहिली अर्थात निद्रा इसका उदाहरण है उदासीनता, आलस्य, निष्क्रियता वही रोहिला अर्थात सावधानता, सक्रियता, उद्यमशीलता।

हमारे जीवन में भी यह रोहिला अर्थात ‘सावधानता’ होनी ही चाहिए। तब ही यह निद्रारूपी रोहिली हमारे जीवन में विष नहीं घोल सकेगी।

आहारनिद्राभयमैथुन।

संपूर्ण जगत् के लिए समसमान।’

आहारनिद्राभय एवं मैथुन इन चार केन्द्रों में अनुचितता होनेवाली परमात्मा के प्रति उदासिनता रखनेवाली वृति, निष्क्रियप्रवृत्ति, भक्तिसेवा एवं गुणसंकीर्तन से वंचित रखनेवाली वृत्ति है रोहिली कहलाती है।

रोहिला अर्थात सत्वगुण, सावधानता। इस रोहिले ने अर्थात सावधानता। इस रोहिलेने अर्थात सावधानता से परमात्मा के बारे में पूर्ण सावधान रहकर किया गया गुणसंकीर्तनसे वंचित रखनेवाली वृत्ति ही रोहिली कहलाती है।

रोहिला अर्थात सत्त्वगुण, सावधानता। इस रोहिलेने अर्थात सावधानतासे परमात्मा के बारे में पूर्ण सावधान रहकर किया गया गुणसंकीर्तन मेरे देह में होनेवाला आहार, विहार, निद्रा, भय एवं मैथुन इस चारों केन्द्रों को बल प्रदान करता है। उनकी उचितता बनाये रखता है, जिस तरह मेरा जीवन विकास सहज आसान हो जाता है। इस रोहिले की कथाद्वारा बाबा हमें इन चार केन्द्रों को उचित बल प्रदान करके हमारा समग्र जीवनविकास बिलकुल सहजता से कैसे साध्य किया जा सकता है इसी का मार्गदर्शन कर रहे हैं।

इसीकारण अब निंद के मजे लेना है। अर्थात निष्क्रिय रहता है कि भगवान का गुणसंकीर्तन करते हुए केवल इस भगवान की भक्तिसेवा सावधानीपूर्वक करते रहना है यह तो हमें स्वयं ही निश्‍चित करना है।

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