श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ४२)

हमने ‘एकाग्रता’ इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर विचार किया। साईनाथ के आचरण से हमें ये महत्त्वपूर्ण बात सीखनी चाहिए। गेहूँ पीसने की कथा में साईनाथजी के द्वारा किये गये आचरण का अध्ययन करते समय उचित आचरण के दस मुद्दों पर हमने विचार किया।

sainathउन में से ‘कार्य की व्यवस्था’ इस मुद्दे पर हमने विस्तारपूर्वक अध्ययन किया। उस में आनेवाले अनेक पेहलुओं के बारे में हमने अध्ययन किया। गेहूँ पीसने की क्रिया के माध्यम से बाबा हमें गृहस्थी एवं परमार्थ इन दोनों को सुखमय बनाने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का मार्गदर्शन अपने स्वयं के आचरण के द्वारा सहजता के साथ कर रहे हैं।

एक भी शब्द का बिना किये उच्चारण । बिना किये आशिष स्पर्श।
            देती है अर्थपूर्ण चारित्र्य। कृपासरिता जिनकी।

यह पंक्ति मेरे साईनाथ का ही कितना सुंदर वर्णन करती है ना! एक भी शब्द बोले बिना, बिना सिर पर हाथ रखे ही भक्तों के लिए मार्गदर्शक साबित होनेवाली, ऐसी यह सच्चरितरुपी, कृपासरिता मेरे इस साईनाथ की ही है। भक्तों का समुद्धार करनेवाली कृपासरिता इस साईनाथ की ही है। भक्तों का समुद्धार करनेवाली कृपासरिता यानी इस साईसच्चरित ग्रंथ की हर एक पंक्ति। ‘कम से कम एक पंक्ति का अनुभव लेना चाहिए’ यह वचन ज्ञानेश्वरी की तरह साईसच्चरित के बारे में भी उतना ही सत्य है। साई की एक-एक कृति का एवं एक-एक शब्द का अध्ययन करते समय ऐसा लगता है कि बाबा से हम जितना सीखते हैं, उतना कम ही है, इसीलिए बाबा के आचरण से जितना मैं सीख सकता हूँ, उतना आत्मसात करते रहने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।

अब साईनाथजी के गेहूँ पीसने के आचरण से हमें जो सीखना है, उस अंतिम यानी ग्यारहवे मुद्दे पर विचार करनेवाले हैं और वह मुद्दा है- ‘ब्रह्मार्पणयोग’! कोई भी कार्य करते समय तथा उसके सफलता पूर्वक पूरा हो जाने पर उसका ‘श्रेय’ स्वयं न लेकर ‘इदं न मम। इदं दत्तात्रेयाय। दत्तात्रेयार्पणमस्तु॥ यह कहकर ‘ब्रह्मार्पण’ करना।

साईनाथ ने स्वयं गेहूँ पीसना आरंभ किया, आगे चलकर चार श्रद्धावान महिलाओं को उसमें सहभागी होने दिया और उन्हीं के हाथों उस पायली भर आटे को गाँव के चारों ओर डलवा दिया। उस आटे को वहाँ पर डालते ही महामारी पर प्रतिबंध लग गया। इसका अर्थ यह है कि बाबा ने स्वयं परिश्रम करके आटे की योजना बनाई, महामारी पर अचूक उपाय ढूँढ़ा और महामारी का समूल नाश कर दिया।

हेमाडपंत विश्वासपूर्वक कहते हैं कि इस गेहूँ के आटे से ही महामारी पर प्रतिबंध लग गया, यह सभी ग्रामवासियों का अनुभव है। किसी अन्य व्यक्ति का नहीं, बल्कि साई की अदभुत लीला का ‘प्रत्यक्ष’ परिणाम सभी लोगों ने स्वयं अनुभव किया । आस-पास के सभी गाँवों में महामारी फैली होने के बावजूद भी शिरडी में बाबा के द्वारा किये गये आटे वाले उपाय के बाद उस बीमारी की परछाई तक भी किसी को छू नहीं सकी। बाबा ने ही महामारी का विनाश किया, १०८% किया, यही पूर्ण सत्य है। इतना सब कुछ हो जाने पर भी बाबा कहीं पर भी कोई भी श्रेय स्वयं को नहीं लेते। बाबा सदैव ‘अल्ला मालिक’ यानी ‘आदिमाता चण्डिका समर्थ हैं’ यह जप मुख से निरंतर करते ही रहते थे, यह हम सभी जानते हैं। इसका अर्थ यह है कि गेहूँ पीसने की सारी सामग्री इकट्ठा करने से लेकर उस आटे को गाँव की सीमा पर डालने तक और उसके बाद भी बाबा का यह जप शुरू ही है, यह बात अलग से कहने की ज़रूरत नहीं है।

इस ग्यारहवे मुद्दे से हमें यही बात सीखनी चाहिए और उसका अंगीकार करना चाहिए। कार्य से पहले, कार्य का संकल्प करते समय, कार्य का आरंभ करते समय, कार्य करते-करते, कार्य पूर्ण हो जाने पर और उसके बाद भी निरंतर मुझे अपने भगवान का स्मरण करते ही रहना चाहिए। यह करने से ‘कर्ता’ मैं हूँ, इस बात का अहंकार हम में प्रवेश ही नहीं कर पाता और साथ ही ‘ये मेरे साईनाथ ही कर्ता हैं’ यह निरहंकारी भाव दृढ़ होता है।

‘इदं न मम। इदं साईनाथाय। श्रीसाईनाथार्पणमस्तु।’ इस ‘साईनाथार्पण’ भाव के साथ ही हमें हर एक कार्य, फिर चाहे वह सांसारिक हो अथवा परमार्थिक हो, करना चाहिए। मैंने पढ़ाई की और परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ, उस समय ‘साईनाथार्पणमस्तु’ इस प्रकार का भाव रखना चाहिए, क्योंकि उचित प्रकार से पढ़ाई करने की शक्ति, दिशा, मार्ग यह सब कुछ साई ने ही दिया और यश भी उन्होंने ही दिया। मुझे ‘प्रमोशन’ मिला, व्यवसाय में ‘फायदा’ हुआ, यश, कीर्ति, सत्ता आदि जो कुछ भी मिलता है, किसी भी प्रयास से, कार्य से यदि अच्छा फल मिलता है, तो वह साईनाथ को ही अर्पण करना चाहिए। मेरा भाव यही होना चाहिए कि सचमुच, यह जो कुछ भी मुझे प्राप्त हुआ है, उसमें मेरे परिश्रम का क्या महत्त्व है, मेरी हैसियत ही क्या है, यह सब कुछ इस साईनाथ ने ही दिया है। मेरे साई का वचन है- ‘तुम्हारा भार मैं सदैव वहन करूँगा, मेरा यह वचन कभी भी व्यर्थ नहीं होगा।’ उनके इस वचन का पालन वे करते ही हैं।

जब महामारी का नाश करने के बावज़ूद भी बाबा उसका श्रेय कहीं पर भी स्वयं को नहीं लेते, फिर हम यदि कोई छोटा सा काम भी करते हैं, तो उसका श्रेय लेने के लिए हजारों कोशिशें क्यों करते हैं? ‘मैंने महामारी को दूर कर दिया’ ऐसा साई कहीं पर भी नहीं कहते, फिर मुझ में रहनेवाला यह ‘मैं’ क्यों बार-बार सिर उठाते रहता है? महामारी का समूल नाश करने का अद्भुत पुरुषार्थ करके भी बाबा उसका श्रेय अंश मात्र भी नहीं लेते, फिर हम श्रेय लेने के पीछे क्यों पडे रहते हैं? हम यदि कोई छोटासा भी काम करते हैं, तो उसका श्रेय लेने के लिए हम बहुत आतुर रहते हैं। हमें लगता है कि लोग हमारी तारीफ़ करे, हमें पुरस्कृत करें, हमारा स्वागत-सत्कार करें, और हम प्रसिद्ध हो जायें। एक बार यदि मानव को इस बात की लत पड़ जाती है, तो फिर इन सब को हासिल करने के लिए वह किसी भी हद तक गिर सकता है। फिर ऐसे लोग कर्म सिर्फ अपने अहंकार के लिए, दिखावे के लिए करने लगते हैं, उनका ध्यान काम की अपेक्षा अधिक श्रेय प्राप्ति, धन-दौलत आदि की ओर अधिक रहता है। इन्हीं कल्पनाओं में फ़ँस कर कर्म के प्रति ध्यान नहीं रह जाता है और फिर फलाशा अवश्य घात करती है।

‘लोग क्या कहेंगे?’ इन बातों में ही हम उलझे रहते हैं और फिर लोगों की ‘वाहवाही’ पाने के लिए ही हम जीते हैं। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत हम सच्चा सुख खो बैठते हैं और जीवन विकास की गति में पराये बन जाते हैं। ‘लोग क्या कहेंगे?’ इसकी अपेक्षा ‘मेरे ये साईनाथ क्या कहेंगे?’ यह बात अधिक महत्त्व रखती है। ‘मैं जो कुछ भी करता हूँ, उस कृति के लिए मेरे साईनाथ क्या कहेंगे?’ इस बात का ध्यान रखना अधिक महत्त्वपूर्ण है।

जीवन में ‘साईनाथार्पण’ भाव रखने से, ‘मेरे साईनाथ क्या कहेंगे?’ इस बात का ध्यान रखने से अपने-आप ही हमारा हर एक कार्य फलाशाविरहित हो जाता है, साथ ही निष्काम कर्मयोग भी साध्य होता है, जिससे हमारा जीवनविकास साईनाथ ही कराते हैं। इससे हममें किसी भी प्रकार के श्रेय की अपेक्षा ही नहीं रहती है। कार्य करते समय यह भी एक महत्त्वपूर्ण बात हमें ध्यान में रखनी चाहिए कि किसी से भी हमें कोई भी, किसी भी प्रकार की अपेक्षा नहीं राखनी चाहिए, जैसे कि लोग मेरे द्वारा किये गये इस लोकोपकारी कार्य के लिए मुझे धन्यवाद कहेंगे, मेरी वाहवाही करेंगे आदि। ‘मुझे देनेवाले मेरे साईनाथ समर्थ हैं और वे ही जो देना होगा वह देंगे और यदि ना भी दे तो भी कोई बात नहीं। मुझे जो भी देना उचित होगा वह तो वे मुझे देंगे ही।’ इस बात का भरोसा मुझे होना चाहिए।

साईनाथ के आचरण से इस ग्यारहवे मुद्दे को हमें आत्मसात करते आना चाहिए। ‘भगवत्-अर्पण’ योग को हमें अपने जीवन में उतारना ही है। साईनाथ ने पीसने का कर्म किया, महामारी को नष्ट करने का पुरुषार्थ भी किया और उसे दत्तगुरु को अर्पण कर दिया। इस बात का कोई भी श्रेय स्वयं नहीं लिया यानी ‘बाबा तुम ने महामारी को नष्ट कर दिया, यह बात कोई उनसे कहे इसकी अपेक्षा नहीं की। हम यह भी कह सकते हैं कि साईनाथ ने किसी भी प्रकार की कोई भी अपेक्षा रखी ही नहीं और अपना कर्म दत्तगुरु को अर्पण कर दिया।

साईसच्चरित की कथाओं का अध्ययन करते समय हमें बाबा के आचरण से यही पता चलता है कि यदि बाबा स्वयं लीला रचकर भक्तों के संकट दूर करते थे, उनका जीवनविकास करते हैं, मग़र कभी भी उसका ‘कर्तृत्व’ स्वयं को नहीं लेते। ‘अल्ला मालिक’ है, वही सब कुछ करता है, ‘ये द्वारकामाई ही स्वयं अपने बच्चों की चिंता करती है, यहाँ का फकीर बड़ा दयालु है’ ऐसा कहकर ‘श्रेय’ उस परमेश्‍वर को ही देते हैं। ‘कर्ता’ भी वही है, ‘करवानेवाला’ भी वही है, यह बात बाबा ज़ोर देकर कहते हैं। साथ ही, ‘लोग क्या कहेंगे’ इस बात की ज़रा भी परवाह किये बिना ‘मेरे दत्तगुरु क्या कहेंगे? उनके लिए मुझे क्या करना चाहिए’ इस बात का ध्यान रखकर पुरुषार्थ करते हैं।

बाबा जब पीसने बैठे होंगे, तब उनका मजाक उड़ानेवाले लोगों ने ‘क्या महामारी जैसी बीमारी आटे से दूर हो सकती है?’ यह कहकर उनका उपहास भी किया होगा। परन्तु ऐसे बेकार लोगों की टीका-टिप्पणी की ज़रा भी परवाह न करते हुए बाबा को जो करना था, वही उन्होंने किया। तुम बाबा के पीछे आओ या मत आओ, इससे बाबा को कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। ये साईनाथ सदैव सत्य के मार्ग पर चलनेवाले, सभी से प्रेम करनेवाले और हर किसी को आनंदित देखने की इच्छा रखनेवाले हैं और इसके लिए उनका ‘पुरुषार्थ’ वे करते ही हैं और सब कुछ करके भी अपना कर्म परमेश्वर को अर्पण करके स्वयं ‘रमता जोगी’ बने रहते हैं। हम यदि चाहते हैं कि हमारा कल्याण हो तो हमें बाबा के चरण पकड़कर रखने चाहिए।

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