श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-९७

पिछले लेख में हमने अभ्यास किया कि सर्वप्रथम इन पंक्तियों को हमें अपने जीवन में कैसे उतारना है। मेरा आचरण मर्यादाशील कैसे हो सकता है, इस संबंध में ये पंक्तियाँ मुझे मार्गदर्शन करती हैं। बाबा को मेरी हर एक कृति की पूरी की पूरी खबर रहती ही है, इस बात का यहाँ पर मुझे पता चलता है। परन्तु इस बात का पता चलने पर मुझे क्या करना चाहिए, इससे संबंधित अध्ययन हम कर रहे हैं। हमने प्रमुख तीन मुद्दों के संबंध में विचार किया –

१) परमात्मा ने हर एक को कर्मस्वातंत्र्य पूर्ण रूप में प्रदान कर रखा है।

२) बाबा को मेरी हर एक कृति की पूरी की पूरी खबर उसी पल रहती ही है, इस बात का स्मरण रखने पर मैं कर्मस्वातंत्र्य का उचित उपयोग करता हूँ।

३) बाबा सब कुछ जानते हैं इस बात का स्मरण रखते-रखते साईनाथ का सदैव स्मरण अपने-आप ही बना रहता है।

४) इस तीसरे मुद्दे के आधार पर ही हमने और भी दो मुद्दों का अभ्यास किया। साईनाथ सदैव मेरे साथ हैं, साईनाथ सर्वविद् (जानते है वर्म सभी का) हैं यह स्मरण बनाये रखने से अपने-आप ही विश्‍वास दृढ़ हो जाता है।

५) ये साईनाथ सदैव मेरे साथ ही हैं, इसका सदैव स्मरण रहने के कारण मैं अपने आप ही निर्भय रहता हूँ।

बाबा देहरूप में भले ही शिरडी में रहते हैं, फिर भी वे उसी वक्त मेरे साथ, हर किसी के साथ होते ही हैं इस बात का मुझे सदैव स्मरण रखना चाहिए।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईमैं अपनी माँ की नजरों की छाया में ही मैं हूँ।

परन्तु क्या मैं साईनाथ को माँ मानता हूँ, अपना मानता हूँ?

क्या मैं स्वयं को बाबा का बालगोपाल मानता हूँ?

और ‘कहीं भी रहूँ फिर भी सदैव बाबा के नजरों की छाया में ही हूँ, बाबा मेरे साथ ही हैं’ यह दृढ़ विश्‍वास क्या मैं रखता हूँ?

इन ऊपर उल्लेखित मुद्दों पर ही सब कुछ निर्भर करता है।

भक्त हो या अभक्त, सभी लोग इस साईनाथ की नजरों की छाया में ही रहते हैं, परन्तु जो श्रद्धावान होता है उसके लिए ये साईमाऊली (साईसद्‌गुरुरूपी माता) और वह इनके बीच में कोई भी दीवार कभी नहीं होती। वहीं, जो अभक्त है उसे ऐसा लगता है कि मैं यदि दीवार खड़ी करता हूँ तो इस साईनाथ को भला कैसे कुछ पता चलेगा?

परन्तु जैसे क्ष-किरण (एक्स-रेज़) शरीर के आर-पार जाकर अंदर की अस्थि आदि की प्रतिमा हमें दिखाती है, बिलकुल वैसे ही कोई कितनी भी दीवारें खड़ी क्यों न कर ले, मग़र फिर भी बाबा से कुछ भी छिपता नहीं है।

हम यदि किसी भी चीज़ को त्वचा को काटकर बिलकुल शरीर के किसी गहराईवाले हिस्से में भी छिपाकर यदि रख देते हैं, तब भी क्ष-किरणें उस बात को अचूक पकड़ ही लेती हैं। ठीक वैसे ही इस साईनाथ से कोई कुछ भी छिपाने की कितनी भी कोशिशें करता है, मग़र फिर भी बाबा से कुछ भी छिपा पाना संभव ही नहीं है। एक श्रद्धावान यह भली-भाँति जानता है कि मेरे बाबा से कोई भी कुछ भी छिपा नहीं सकता है और ना ही कोई बाबा को ङ्गँसाने की कोशिश कर सकता है।

जो बाबा को फँसाना चाहता है, वह देखा जाए तो स्वयं को ही स्वयं फँसाते रहता है और इस प्रज्ञापराध द्वारा वह स्वयं ही स्वयं के लिए खाई के समान गड्ढा खोदता रहता है। इसीलिए बाबा ने भक्त एवं अभक्त, श्रद्धावान एवं श्रद्धाहीन हर किसी के लिए यह ब्रह्मवाक्य कहा है –

कुठेंही असा कांहींही करा। एवढें पूर्ण सदैव स्मरा।
कीं तुमच्या इत्थंभूत कृतीच्या खबरा। मज निरंतरा लागती॥
(कहीं भी रहना, कुछ भी करना। परन्तु सदैव इतना स्मरण रखना।
कि तुम्हारी हर एक कृति की खबर। निरंतर मुझे रहती ही है॥)

यहीं पर हमें छठी बात का पता चलता है कि हम जैसे हैं वैसे ही हमें सदैव इस साईनाथ के समक्ष ही रहना चाहिए। मुझे कभी भी किसी भी प्रकार का मुखौटा नहीं पहनना चाहिए। यदि ऐसा मैं नहीं करता हूँ तो मेरे जैसा दुर्भागी और कौन हो सकता है।

मैं यदि कितनी भी दीवारें खड़ी कर देता हूँ, कितने भी मुखौटे धारण करता हूँ, फिर भी अपने इस साईनाथ से कुछ भी कभी भी छिप नहीं सकता है। उलटे इस प्रकार की दीवारें खड़ी करके, इस प्रकार के मुखौटे लगाकर मैं स्वयं ही स्वयं को श्रीहरिकृपा से, श्रीसाईकृपा से वंचित रखता हूँ।

दीवारें खड़ी करके, मुखौटें लगाकर, चेहरा छिपाकर, बाबा की नजारों से बचकर हम कुछ भी नहीं कर सकते हैं। उलटे ऐसा व्यवहार करके मैं स्वयं ही अपने पैरों पर कुल्हाडी मारते रहता हूँ। मैं स्वयं ही अपना नुकसान करते रहता हूँ।

बाबा हर प्रकार से मेरी मदद करने की इच्छा रखते हैं। बाबा की इच्छा मेरे प्रारब्ध का नाश करने के लिए मेरे जीवन में प्रवाहित होना चाहती है। परन्तु जब मैं स्वयं ही दीवारें खड़ी करता रहता हूँ, मुखौटे लगाकर बाबा को ही फँसाने की कोशिश करता हूँ, तब मैं इस कृपा को मेरे जीवन में प्रवाहित नहीं होने देता।

ये पंक्तियाँ हमें यही सीख देती हैं कि मुझे साईकृपा का स्वीकार करने के लिए क्या करना चाहिए। मैं स्वयं ही गलत व्यवहार करके स्वयं ही अपना घात करता रहता हूँ। इसीलिए इन पंक्तियों के गर्भितार्थ का सदैव स्मरण रखकर ‘मैं जैसा हूँ वैसा ही’ श्रीसाईनाथ के समक्ष खड़ा रहूँगा।
सच में यदि देखा जाए तो यह कितनी आसान बात है। मैं जैसा हूँ वैसा ही बाबा के समक्ष खड़ा रहना यह कितना आसान है। इसके विपरीत दीवारें खड़ी करना, मुखौटे लगाना इन सबमें कितना झंझट होता है, कितना प्रयास करना पड़ता है। पर फिर भी हमें जो नहीं करना चाहिए वही करने के पीछे हम लगे रहते हैं।

हमें साईनाथ की अपेक्षा दीवारें खड़ी करना, मुखौटे लगाना ये क्या अधिक नजदीकी लगता है? जो हमारे दिल के बिलकुल करीब रहता है हम उसी से दूर जाने के अनेक प्रयास करते रहते हैं। सच में देखा जाए तो हम कितना गलत करते हैं? इसी लिए बाबा बारंबार कहते रहते हैं कि मेरे और तुम्हारे बीच की इस तर्क-कुतर्क की दीवार को गिरा दो, फिर देखो कि हमारे मिलने का मार्ग कैसे खुलकर प्रशस्त हो जाता है।

हमें बाबा की बात सुननी ही चाहिए, क्योंकि वही एकमात्र हमारे लिए सर्वथा हितकारी है।

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