श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ४७

तृतीय अध्याय की प्रथम कथा के बारे में हम चर्चा कर रहे हैं। बढ़ रहे परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अपनी पेंशन कैसे पूरी पड़ सकती है? मुझे इस जिम्मेदारी को पूरी तरह से निभाने के लिए क्या करना चाहिए, इस बात का विचार सरकारी नौकरी से निवृत्त (रिटायर्ड) होनेवाले हेमाडपंत के मन में चल रहा है। वैसे तो उनका श्रीसाईनाथ पर पूरा विश्‍वास है कि मेरे बाबा मुझे कभी भी किसी भी बात की कमी कभी भी महसूस नहीं होने देंगे। परन्तु मुझे तो मेरी जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही होगा, जब मैं परिश्रम करूँगा, तब मुझे जिस मदद की जरूरत होगी, वह तो बाबा करेंगे ही।

बाबा का ‘तुम्हारे भार का वहन मैं करूँगा सर्वथा’ इस वचन का अर्थ हेमाडपंत की भली-भाँति समझ में आ चुका है। मैं अपना प्रयास निरंतर जारी रखूँगा। फिर बाकी की अन्य बातों कि चिंता करने के लिए तो बाबा हैं ही। ‘मैं बाबा का भक्त हूँ इसलिए बाबा मुझे सब कुछ बैठे-बिठाये खटिये पर लाकर देंगे’ ऐसी कल्पना करना सर्वथा गलत ही है। कौन सी लौकिक माँ को यह बात अच्छी लगेगी कि अपना अच्छा खासा जवान बेटा बगैर कोई काम-धंधा किए घर पर बैठा रहे और मैं उसे कमा-कमाकर खिलाऊँ? किसी भी माँ-बाप को यह बात बिलकुल भी अच्छी नहीं लगेगी। बेटा पढ़े-लिखे, पढ़-लिखकर कोई उत्तम नौकरी अथवा कोई अच्छा व्यवसाय करे, अपने पैरों पर खड़ा हो जाए, यही हर एक माता-पिता की इच्छा होती है। फिर इसके लिए बच्चे को जिस किसी भी चीज की सहायता की ज़रूरत होगी, वह करने के लिए माता-पिता क्या कुछ करने को तैयार नहीं रहते हैं। अब हमारी समझ में यह बात आ सकती है कि यदि लौकिक जन्मदाता माता-पिता को अपने बच्चे का घर में बैठे रहना, उनपर निर्भर रहना पसंद नहीं होगा तो फिर इस जगत्-माऊली को, श्रीसाईमाऊली को, साईबाबा को भला यह कैसे पसंद आयेगा?

तुम परिश्रम करते रहो। दूध की चिंता मुख पर छोड़ दो।
कटोरी लिए मैं पीछे। खड़ा ही रहूँगा॥

परन्तु अकसर होता यह है कि हर किसी की इच्छा यही होती है कि साईनाथ जोर लगाये और दूध की कटोरी का स्वाद हम चखें, लेकिन यह होना तो नामुकिन है। साईनाथ ऐसा कभी भी नहीं होने देंगे क्योंकि उन्हें तो सभी भक्तों के जीवन-विकास का मार्ग प्रशस्त करना है, हर एक भक्त को पुरुषार्थी बनाना है।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईहेमाडपंत यहाँ पर जो विचार कर रहे हैं, वह प्रयास करने की विचार एवं कृति का संकल्प है। मैं स्वयं ज़ोर लगाऊँगा, फिर मेरे बाबा दूध की कटोरी मुझे देने के लिए ही खड़े हैं। इस पेंशन में मेरा गुज़ारा नहीं होगा यह तो निश्‍चित है, क्योंकि पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी बढ़ गईं हैं। स्वाभाविक है कि इसके लिए आगे क्या करना चाहिए यह मुझे ही देखना है। मार्ग दर्शाने के लिए और परिस्थिति में से रास्ता निकालने के लिए साईनाथ तो हैं ही, परन्तु कोशिश तो मुझे ही करनी हैनौकरी अथवा अन्य कोई अर्थाजन का मार्ग तो मुझे ही ढूँढ़ना है और इसके लिए श्रीसाईनाथ से प्रार्थना भी करनी ही है कि हे साईनाथ, मैं जोर लगा रहा हूँ, पेंशन से मेरे परिवार का गुजारा नहीं होगा और इसके लिए मैं अन्य कोई नौकरी अथवा कोई उचित मार्ग ढूँढ़ रहा हूँ, आप उसमें मुझे सफलता प्रदान करें।

हेमाडपंत के मन में सेवा निवृत्त होने के पश्‍चात् यही विचार चल रहा है। उन्होंने अपने मित्र, सगे-संबंधि तथा जान-पहचानवालों को भी उनके योग्य कोई नौकरी ढूँढ़ने को कहना आरंभ कर दिया है। इसे ही कहते हैं जोर लगाना! ‘अब मैं निवृत्त हो चुका हूँ, इतने बड़े मॅजिस्ट्रेट पद से मैं निवृत्त हो चुका हूँ, फिर अब मैं कोई छोटी-मोटी नौकरी कैसे करूँगा’ यह विचार भी उस महान भक्त के मन को छू नहीं पाता है। जो कोई भी न्यायसंगत मार्ग होगा, उसके अनुसार अर्थाजन करने में जरा सी भी शर्मिंदगी वे मेहसूस नहीं कर रहे हैं।

अन्य सभी बातों का दिखावा किया जा सकता है, परन्तु पैसे का दिखावा नहीं किया जा सकता है, यह बात तो हम भली-भाँति जानते ही हैं। ऐसे में यदि हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है तो केवल दिखावे के लिए ‘स्टेट्स’ की, झूठी प्रतिष्ठा बनाये रखने की अपेक्षा हमें जो भी मिल जाए, पहले उस नौकरी का स्वीकार कर लेना चाहिए। जब तक योग्य नौकरी नहीं मिल जाती, तब तक जो भी मिल जाए वह काम करने की तैयारी रखनी चाहिए। जो भी परिश्रम हम करते हैं, वह कभी बेकार नहीं जाता। उससे भी हम कुछ सीखते ही हैं। हमें अनुभव प्राप्त होता है। जरूरत पड़ने पर कोई छोटा-मोटा व्यवसाय भी किया जा सकता है। जैसे सब्जी बेचना, स्टॉल चलाना, दुकानदारी करना, टयुशन ले लूँगा, बच्चों को सँभालना आदि काम कर लूँगा परन्तु किसी और के आगे हाथ नहीं फैलाऊँगा।

हेमाडपंत से यदि हमें कुछ सीखना ही है तो सर्वप्रथम यहाँ पर हमें यही सीखना चाहिए कि उस समय मॅजिस्ट्रेट जैसे प्रतिष्ठित पद से निवृत्त होने पर भी वे कहीं पर भी अपना बडप्पन न दिखाते हुए नौकरी ढूँढ़ रहे हैं, कोई काम ढूँढ़ रहे हैं। कोई भी छोटी-बड़ी नौकरी मिल जाए तो भी करने की तैयारी रखते हैं। विशेष तौर पर वे अपनी आर्थिक परिस्थिति की बात छिपाते नहीं हैं। जो भी श्रद्धावान मेरे हितचिंतक हैं, उन्हें मेरी स्थिति का पता चलने पर वे मेरी सहायता करेंगे, परन्तु केवल इसी लिए मुझे अपनी आर्थिक परिस्थिति को छिपाने का कोई कारण नहीं। हम जब कभी भी अपनी आर्थिक स्थिति के बारे में अपने मित्रों, शुभचिंतकों से छिपाकर रखते हैं तो एक तरह से हम स्वयं ही अपनी ओर आनेवाली मदद के मार्ग को बंद कर देते हैं। प्रति गुरुवार मैं नियमित रूप में बाबा के मंदिर में जाता हूँ, वहाँ पर कुछ सेवा करता हूँ, ऐसे में वहाँ पर मेरी अन्य भक्तों के साथ मुलाकात होती है। वहाँ पर कुछ भले लोग भी आते हैं,जो दूसरों को मदद करने की इच्छा रखते हैं। फिर जो श्रद्धावान हैं, साईनाथ के अच्छे भक्त हैं, अच्छे स्वभाव के सज्जन पुरुष हैं, मुख्य तौर पर मैं जिन्हें भली-भाँति जानता हूँ, ऐसे लोगों को अपनी बात बताने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए।

हेमाडपंत यहाँ पर हमें स्वयं के आचरण के माध्यम से, गृहस्थी और व्यवहार को अच्छे से कैसे कर सकते हैं, यह बतलाते हैं। हेमाडपंत का शिरडी में आना-जाना शुरू हो जाते ही अण्णा चिंचणीकर के साथ उनकी जान-पहचान होती है और वह दोस्ती के रूप में आगे बढ़ती है। अण्णा साईबाबा के श्रद्धावान हैं। उनकी भी अनेकों जगहों पर जान-पहचान है और विशेष बात यह है कि उनके साथ हेमाडपंत की साईकृपा से सालोंसाल से जान-पहचान बनी हुई है। साथ ही अण्णा की सज्जनता से वे भली-भाँति परिचित हैं इसीलिए हेमाडपंत अपनी परिस्थिति के बारे में उन्हें बतलाते हैं।

१८१६ में निवृत्त होनेवाले हेमाडपंत उस वर्ष गुरुपूर्णिमा के अवसर पर शिरडी में दाखिल होते हैं और वहीं पर उनकी मुलाकात अण्णा चिंचणीकर के साथ होती है। उस वक्त प्रथम मुलाकात में ही वे स्पष्ट रूप में अपने वस्तुस्थिति के बारे में उसे निवेदन करते हैं। हेमाडपंत उनसे कहते हैं ‘मैं निवृत्त हो चुका हूँ और अब मुझे सरकारी पेंशन भी मिल रही है। परन्तु गृहस्थी की बढ़ती हुई ज़िम्मेदारी और घर में अन्य कोई भी काम करनेवाला न होने के कारण इतने पेंशन में मेरा और मेरे परिवार की गुजर-बसर कैसे होगी, यही चिंता बनी रहती है। यदि आपकी नजर में मेरे योग्य कोई नौकरी उपलब्ध हो तो मुझे जरूर बताइए।’ हमें हेमाडपंत से उनके इस गुण को प्रथम सीखना चाहिए।

भक्तिमार्ग में आदर्श रहने वाले हेमाडपंत अब व्यवहार में भी किस प्रकार से आचरण करते हैं, यही हमें सर्वप्रथम सीखना चाहिए। इसके पश्‍चात् अण्णा चिंचणीकर को हेमाडपंत अपनी वस्तुस्थिति किस तरह से समझाते हैं, यह हम देखेंगे।

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