श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-९५

कुठेंही असा कांहींही करा। एवढें पूर्ण सदैव स्मरा।
कीं तुमच्या इत्थंभूत कृतीच्या खबरा। मज निरंतरा लागती॥
(कहीं भी रहना, कुछ भी करना। परन्तु सदैव इतना स्मरण रखना।
कि तुम्हारी हर एक कृति की खबर। निरंतर मुझे रहती ही है॥)

साईनाथ के द्वारा स्वमुख से कहे गये शब्दों के अनुसार मनुष्य की हर एक कृति का पता उसी क्षण साईबाबा को, उस परमात्मा को चल ही जाता है।

परन्तु यहाँ पर एक प्रश्‍न खड़ा हो सकता है कि ‘कृति’ इस शब्द से क्या अभिप्रेत है?

मनुष्य को भगवान ने शरीर, मन एवं बुद्धि प्रदान कर रखी है और मनुष्य के कर्म इन तीनों के ही माध्यम से होते रहते हैं। तात्पर्य यह है कि हर एक कर्म करते समय शरीर, मन एवं बुद्धि तीनों तो उसमें सम्मिलित होते ही हैं, परन्तु उस कर्म की अभिव्यक्ति में किसकी भूमिका अहम होती है, इसी के अनुसार उस कर्म का वर्गीकरण होता है।

जब हम खाना खाते हैं उस वक्त मन एवं बुद्धि इन दोनों की उपस्थिति वहाँ पर भी हो सकती है। परन्तु भोजन करने का प्रत्यक्ष कर्म शरीर से किया जाता है। जिस तरह यह शरीर के द्वारा किया जानेवाला कर्म है, उसी तरह मन से और बुद्धि से भी मनुष्य कर्म करता ही रहता है और वे कर्म प्राय: प्रत्यक्ष में आते हैं यानी उसकी अभिव्यक्ति शरीर से होती रहती है।

परन्तु कभी-कभी मन अथवा बुद्धि के द्वारा किये जानेवाले कर्म शरीर के द्वारा अभिव्यक्त नहीं होते हैं। उदा. यूँ ही कभी हम मन में अच्छा अथवा बुरा विचार करते रहते हैं। पर कभी कभी आस-पास की परिस्थिति के कारण ही हम वैसे प्रत्यक्ष कृति नहीं करते हैं। कृति भले ही शरीर से घटित न भी हुई हो, मग़र फिर भी वह मन अथवा बुद्धी से घटित हो चुकी होती है और ऐसे कर्म को हम मानसिक कर्म एवं बौद्धिक कर्म कहते हैं। फिर हमारे मन में यह प्रश्‍न उठ सकता है कि क्या इस तरह के कर्मों का पता भगवान को चल जाता है? निश्‍चित ही उन्हें पता चल जाता है, क्योंकि स्वयं साईनाथ के ही कहेनुसार –

कि तुम्हारी हर एक कृति की खबर। निरंतर मुझे रहती ही है॥

कृति, फिर चाहे वह शरीर के द्वारा की गयी हो अथवा मन या बुद्धि के द्वारा घटित हुई हो, उसी क्षण उसका पता बाबा को, उस परमात्मा को पता चल ही जाती है। फिर मन में जिस क्षण भी अच्छा बुरा कोई भी विचार उत्पन्न होता है, फिर चाहे वह कृति में आये या न भी आये, वह विचार जिस क्षण उत्पन्न होता है उसी क्षण परमात्मा को पता चल जाता है। जो बात मन के विचारों की अर्थात मन के द्वारा घटित होनेवाली कृति की, वही बात बुद्धि के द्वारा घटित होनेवाली कृति की।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईमनुष्य को कभी-कभी ऐसा प्रतीत हो सकता है कि मेरे हाथों से घटित होनेवाली कृति का उस परमात्मा को पता चल जाता होगा, परन्तु मन एवं बुद्धि के द्वारा की गई कृति के बारे में मैं निश्‍चिंत रह सकता हूँ। मग़र उसका इस तरह का सोचना गलत है, इस बात का पता साईनाथजी के बोलों से हमें यहाँ पर चल जाता है। कृति चाहे कहीं भी, कभी भी किसी के भी द्वारा की गयी हो, वह शरीर, मन अथवा बुद्धि के द्वारा घटित हुई हो, उसी क्षण उस परमात्मा को उसका पता चल ही जाता है।

इसी लिए मनुष्य को अपनी हर एक कृति के प्रति पूर्ण सावधानी बरतनी चाहिए, अपने होशोहवास में रहना चाहिए, फिर चाहे वह कोई भी कृति हो, वह मन, बुद्धि या शरीर के द्वारा घटित हुई हो। अपना हर एक कर्म करते हुए मुझे सावधान रहना चाहिए। साथ ही ‘मैं क्या कर रहा हूँ’ इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए। यही मनुष्य की मर्यादा मार्ग का क्रमण करनेवाली पहल है। जिस क्षण यह अहसास एवं सावधानता मुझ में आती है, उसी क्षण मेरे परमात्मा मर्यादामार्ग से मेरा प्रवास आरंभ कर देते हैं। इसके साथ ही हमारा प्रवास इस बढ़ते हुए एहसास एवं सावधानता के साथ ही अधिक सहज एवं आसान होता चला जाता है।

परमात्मा ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ हैं। मुझे उस मर्यादापुरुषोत्तम के चरणों तक पहुँचना है तो फिर मुझे मर्यादामार्ग पर ही चलते हुए प्रवास करना चाहिए। क्योंकि जो परमात्मा स्वयं ही सभी मर्यादाओं का पालन एवं आचरण करते हैं, उस परमात्मा के चरणों में जाने के लिए मर्यादा मार्ग के अलावा क्या अन्य कोई दूसरा आसान मार्ग हो सकता है? नहीं हो सकता।

मर्यादापालन की बिलकुल आसान व्याख्या हम हमारी समझ में आने के उद्देश्य से इस प्रकार से कर सकते हैं कि मेरे हर एक कृति का पता उसी क्षण उस परमात्मा को चल जाता है, इस बात का अहसास रखते हुए, निरंतर स्मरण रखते हुए उसी के अनुसार अपनी हर एक कृति करनी चाहिए।

क्योंकि मैं चाहे जैसा भी व्यवहार करता हूँ और मुझे अन्य कोई भले ही ना देख सके परन्तु मेरे उस व्यवहार को भगवान ने बिलकुल उसी क्षण देख लिया होता है। बाबा ने आगे स्वयं ही कहा है –

येणें निदर्शित ऐसा जो मी। तोचि मी सर्वांच्या अंतर्यामी।
तोचि मी हृदयस्थ सर्वगामी। असें मी स्वामी सकळांचा॥
(आर्ष ग्रन्थों के द्वारा निर्देशित ऐसा जो मैं हूँ। वही मैं सभी का अन्तर्यामी हूँ।
वही मैं हृदयस्थ सर्वगामी हूँ। हूँ मैं स्वामी सबका॥)

यहाँ पर बाबा स्वयं ही स्पष्ट रूप में कह रहे हैं कि मैं सबके हृदय में निवास करता हूँ और मैं ही सभी का अर्थात संपूर्ण विश्‍व का स्वामी हूँ।

और जो परमात्मा हर किसी के हृदय में निवास करता है, जो संपूर्ण चराचर में विद्यमान है, जिसे कहीं भी प्रवेश करने से कोई भी रोक नहीं सकता है, उस परमात्मा को हर एक की हर एक कृति का पता रहना यह स्वाभाविक ही है।

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