श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ६६

पिछले लेख में हमने रोहिले की कथा के आधार पर अनेक रूपकों का अध्ययन करके बोध प्राप्त किया। रोहिला एवं रोहिली इन दोनों किरदारों का परिचय प्राप्त कर इन किरदारों का हमारे जीवन में क्या स्थान है। इस बात की जानकारी भी हासिल की।

रोहिला – मनुष्य का मन
शिरडी – भक्तिरूपी भूमि
साईनाथ – भगवान

 

शिरडी में आनेवाला रोहिला – भक्ति करनेवाला मानवी मन, बाबा के गुणों से मोहित होकर, उच्च स्वर में गुणसंकीर्तन करनेवाला।

रोहिला – गुणसंकीर्तन करनेवाला मानवी मन।
रोहिली – रोहिले के अंग-संग रहनेवाली – मानवी मन की कल की चिंता।

बाबा को तकलीफ देने की कोशिश करनेवाली रोहिली – मानव के मन में होनेवाली श्रद्धास्थान के प्रति, भगवान के प्रति संशय निर्माण करनेवाली विकल्पात्मक वृत्ती।

अब इस सभी अध्ययन के पश्‍चात् हमें यह देखना है कि यह सब जान लेने पर इस कथा से बोध लेकर हमें विशेषतौर पर करना क्या है। रोहिले की कथा का आरंभ से लेकर अंत तक भली-भाँति अध्ययन करके हर एक पड़ाव पर मुझे कैसे आचरण करना है।

सर्वप्रथम इस रोहिले की तरह चार बातों का ध्यान मुझे रखना है। इसके पश्‍चात् पाँचवी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात का ध्यान रखना है।

शिरडी में आया एक रोहिला। वह भी बाबा के गुणों से मोहित हो गया।
वही पर काफ़ी दिनों तक रहा। प्रेम लुटता रहा बाबा के प्रति॥

यहाँ पर चार क्रियायें स्पष्ट रूप में हेमाडपंत वर्णन करते हैं।

१) शिरडी में आया
२) बाबा के गुणों से प्रभावित हुआ
३) काफ़ी दिनों तक रहा ‘वहीं पर’
४) बाबा पर प्रेम लुटाता रहा

१) सर्वप्रथम हमारे रोहिले के अर्थात मन को शिरडी में जाना चाहिए। शिरडी में जाने का निर्धार करना चाहिए और इसी के अनुसार शिरडी में जाना है ये दोनों ही बातें होनी चाहिए। नहीं तो शिरडी में क्यों जाना है। वहाँ जाने से क्या प्राप्त होनेवाला है। अर्थात भक्ति से क्या हासिल होगा। इस तरह संदेह करने से हम भक्ति करने के लिए प्रवृत्त नहीं होते और जब तक शिरडी में पैर नहीं रखते हैं। तब तक तो अगला प्रवास शुरु हो ही नहीं सकता है।

‘रोहिला शिरडी में आया’ यह रोहिले द्वारा उठाया गया पहला कदम ही कितना सुंदर है। वह शिरडी में आया, इसी में उसने अपना हित सर्वथा साध्य कर लिया। वह यहाँ वहाँ अन्य कही पर भी न जाकर शिरडी में ही आया। यही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है इसका अर्थ स्पष्ट है कि उसने भगवान की भक्ति करने का निर्धार कर लिया। यही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसके साथ ही ‘आज जाऊँ गा या कल जाऊँ गा’, करते नहीं बैठा, बल्कि वह तुरंत ही शिरडी में आ भी गया यही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात है।

यहाँ पर इस कथा से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने मन को शिरडी में अर्थात भक्ति की भूमि में ही ले जाना चाहिए। शिरडी अर्थात् भक्ति की भूमि, जहाँ पर भगवान है, जहाँ पर मेरे भगवान के चरण हैं, वह भूमि अर्थात भक्ति की भूमि। भक्ति यही (हिच) भूमि है। जिस पल हमारा मन इस शिरडी में प्रवेश करता है। उसी क्षण हमारे द्वारा उठायें गए इसपहले कदम में ही, हमारे सारे अपायों का निरसन होने के सभी उपाय हमें प्राप्त हो जाते हैं। शिरडी में मनरूपी रोहिले का होनेवाला प्रवेश यह मेरे द्वारा उठाया गया पहला कदम है। बाबा के ग्यारह वचनों की गवाही का आरंभ ही हमें प्रथम कदम के महत्त्व को स्पष्ट कर दिखाता है।

शिरडी में जिसके पड़ेंगे कदम।
टल जाये अपाय सभी उसके॥
(शिरडीस ज्याचे लागतील पाय। टळती अपाय सर्व त्याचे॥)

शिरडी में जिसके पहले कदम पडेंगे, उसके सारे अपाय उस परमात्मा की दिशा में रखे जानेवाले पहले कदम से ही टल जाते हैं। तात्पर्य यह है कि भगवान के भक्तिरूपी भूमि में जो प्रवेश करता है, भगवान के सामीप्य हेतु भगवान की दिशा में प्रथम उठाता है, उस पहले कदम में अर्थात उत्कटता में ही सभी अपाय टालने का सामर्थ्य होता है। फिर हमारे मन में यह प्रश्‍न उठता है कि हम तो हर वर्ष शिरडी जाते हैं, प्रत्यक्ष शिरडी में कदम भी रखते हैं और भक्तिमार्ग का आरंभ तो हमने कब से कर दिया है फिर इतना सब कुछ होने पर भी हमारा अपाय मात्र अभी तक टल नहीं रहा है?

इसका कारण यह है कि केवल लौकिक तीर्थस्थानों पर जाना अथवा साधनाएँ आदि आरंभ कर देना। इसका अर्थ शिरडी में पैर रखना बिलकुल भी नहीं है। शिरडी में भक्तद्वारा रखा जानेवाला प्रथम कदम अर्थात भक्त की ‘उत्कटता’ उत्कटता यही भक्त का शिरडी में रखा जानेवाला प्रथम कदम है। जैसे हेमाडपंत ने द्वितीय अध्याय में हमने देखा कि ताँगे से उतरते समय ही उनके द्वारा रखा जानेवाला पहला कदम लौकिक शिरडी में रखा जानेवाला प्रथम कदम तो था ही, परन्तु उसके साथ ही साईप्रेम की उत्कटता का भी प्रथम कदम था। इसीलिए ताँगे से उतरते ही जैसे ही उन्हें पता चला कि बाबा वाडे के कोने तक आ चुके हैं, उसीक्षण वे बाबा से मिलने के लिए अपना बोरिया-बिस्तर एक ओर झटाक कर दौड़ पड़े।

हम यह प्रथम कदम शिरडी में रखते हैं क्या? यह प्रश्‍न हमें स्वयं ही अपने आप से पुछना चाहिए। ‘उत्कटता’ यह प्रथम कदम ऐसा अद्भुत कदम होता है जो भक्तिमार्ग के प्रवास में हर एक कदम में हमारा यह कदम होता है। तात्पर्य यह है कि मैं भक्ति की भूमि में दूसरा कदम रखता हूँ, तीसरा डाल रहा हूँ या तीन हजारावा या तीन अरब (तीन अब्जावे), उस हर एक कदम में उत्कटतारूपी पहिला कदम होता ही है। क्योंकि यह प्रथम कदम ही आगेवाले हर एक कदमों की नींव होती है और यही पदन्यास की शक्ति है। हम यह प्रथम कदम कब उठायेंगे?

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