श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-९४

कहीं भी रहो कुछ भी करो। इतना मात्र सदैव स्मरण रहेे।
कि तुम्हारी इत्थंभूत कृतियों की खबरें। निरंतर मुझे पता चलती रहती हैेे॥
(कुठेंही असा कांहींही करा । एवढें पूर्ण सदैव स्मरा । कीं तुमच्या इत्थंभूत कृतीच्या खबरा। मज निरंतरा लागती॥)

बाबा के मुख से निकले ये वचन हैं हर किसी को ध्यान में रखना है, इतना ही नहीं बल्कि हर किसी को बाबा के इस वचन को ध्यान में रखना ही चाहिए साथ ही इसे अपनी बुद्धि में भी अंकित करके रखना चाहिए। हमें अपने मन को बारंबार बाबा के इस वचन की याद दिलाते रहना है क्योंकि बाबा के इस वचन की याद हमारे दिलों-दिमाग पर निरंतर कायम रहे इसके लिए हमें निरंतर उनका स्मरण बनाये रखन यह हमारी ही जरूरत है।

श्रीमद्पुरुषार्थ प्रथम खंड सत्यप्रवेश के चरण एक में श्रीअनिरुद्धजी के कहेनुसार ‘हमारे जीवन का हर एक कार्य हम परमेश्‍वर के लिए कर रहे हैं और परमेश्‍वर को हर एक बात उसी क्षण पता चल जाती है, इस बात को ध्यान में रखते हुए जीवन जीना अर्थात अध्यात्मिक जीवन और यही मार्ग सच्चा एवं संतुष्टि, शांति एवं नित्य प्रसन्नता देनेवाला होता है।’

मनुष्य को ऐसा लगता है कि मैं इस दुनिया में जो कुछ भी करता हूँ वह सामने रहनेवाले लोगों को दिखाई देता है अथवा उस समय वहाँ पर उपस्थित रहनेवाले लोग मेरी उस कृति को देखते हैं अथवा देख सकते हैं। परन्तु मुझे जो भी इस दुनिया से छिपाकर करना है वह मैं बंद दरवाजे की आड़े में यदि करता हूँ तो मुझे कौन देख सकता है और मेरी उस कृति को देखनेवाला कोई अन्य न होने के कारण मैंने क्या किया यह किसी को भी कभी भी समझ में नहीं आयेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि मैं यदि बंद दरवाजे के आड़ में यदि कोई अनुचित, घृणास्पद, मर्यादाबाह्य कार्य करता हूँ तो मेरा कोई क्या बिगाड़ सकता है? यही पर उस मनुष्य से सबसे बड़ी गलती होती है और वह यह हैं कि इस विश्‍व के सबसे बड़े सत्य को या तो वह भूल जाता है अथवा उसे अनदेखा करने की कोशिश करता है।

किसी मनुष्य की कृति अथवा उस मनुष्य द्वारा की गई क्रिया को कोई अन्य मनुष्य कैसे देख सकता है? एक बात तो यह है कि जब वह क्रिया उसके नज़रों के समक्ष घटित होती है उसी वक्त और यही मनुष्य की मर्यादा है।

मात्र केवल एकमेव ‘वही’ परमात्मा ही ऐसे हैं कि जो इस पृथ्वी पर नहीं बल्कि इस अनंत कोटी ब्रह्माण्ड में भी घटित होनेवाली हर एक छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी क्रिया भी देखते ही रहते हैं। अर्थात वैसे यदि देखा जाए तो इस संपूर्ण चराचर सृष्टि में ही घटित होनेवाली हर एक क्रिया को देखनेवाले केवल ‘वे’ एकमेव परमात्मा ही होते हैं। वे केवल होते है ही नहीं अपितु वे होते ही हैं।

हर एक जीव को इस भगवान के कर्मस्वातंत्र्य दिया ही है। इस कर्मस्वातंत्र्य के कारण ही हर एक जीव अपनी इच्छानुसार कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र होता है। इस कर्मस्वातंत्र्य का उपयोग कैसे करना चाहिए यह हर किसी को अपनी इच्छानुसार ही निश्‍चित करना चाहिए किंबहुना इसी खातिर भगवानने हर एक जीव को कर्मस्वातंत्र्य दे रखा होता है।

तो फिर बाबा के वचन का और मेरे कर्मस्वातंत्र्य का परस्पर का संबंध है? बाबा के ऊपरलिखित वचन पर हम एक बार पुन: गौर करेंगे।

कहीं भी रहो कुछ भी करो। इतना मात्र सदैव स्मरण रहेे।
कि तुम्हारी इत्थंभूत कृतियों की खबरें। निरंतर मुझे पता चलती रहती हैेे॥
(कुठेंही असा कांहींही करा। एवढें पूर्ण सदैव स्मरा। कीं तुमच्या इत्थंभूत कृतीच्या खबरा। मज निरंतरा लागती॥)

हर एक मनुष्य को अपने कर्मस्वातंत्र्य का उपयोग करते समय इन चारों पंक्तियों का स्मरण सदैव बनाये रखकर ही अपना हर एक कर्म करना चाहिए।

मैं कहीं भी रहूँगा बिलकुल पृथ्वी के किसी भी कोने में ऐसे स्थान पर भी जहाँ कोई भी आ जा नहीं सकता है अथवा समुद्र की गहराई में अर्थात उसके नीचले स्तर में भी रहूँगा और वहाँ पर यदि मैं नहीं देख सकता है परन्तु उस परमेश्‍वर को उसी पल मेरे वहाँ होने की जानकारी और मेरे कृतियों की खबर मिल ही जाती है। परमात्मा वहाँ पर यदि किसी मूर्ति तस्वीर अथवा अन्य किसी भी रूप में नहीं है ऐसा मुझे प्रतीत होता है फिर भी वहाँ पर उस परमात्मा का अस्तित्व होता ही है फिर भले ही वह मुझे पता चले या न चले। मैम जान सकूँ और नहीं परन्तु मेरी हर एक कृति को वे भगवान उसी क्षण देखते ही रहते हैं।

और जिस पल मनुष्य को इस बात का अहसास हो जाता है उस पल से वह मर्यादामार्ग का प्रवास करने लगता है।

भगवान मेरी हर एक कृति को देख ही रहे हैं; इतना ही नहीं बल्कि मेरी हर एक छोटी-बड़ी कृति के एकमेव साक्षीदार वे ही हैं और इसी बात का स्मरण हर एक मनुष्य को होना ही चाहिए और जिस पल यह स्मरण-विस्मरण बन जाता है उसी क्षण मनुष्य मर्यादामार्ग से दूर फेंक दिया जाता है, उसी क्षण से उसका अपने भगवंत से दूर जाने का प्रवास होने लगता है।

जिस क्षण उसे भगवान के अस्तित्व का विस्मरण होता है उसी क्षण से वह उन्मत्त बनने लगता है। और मनुष्य का अहंकार बढ़ने लगता है। बढ़ती हुई उन्मत्तता एवं बढ़ता हुआ अहंकार ये दो बातें ही मनुष्य को विनाश की खायी की ओर ले जाती हैं।

भगवान मेरी हर एक कृति देखते ही हैं और मैं जो कृति करता हूँ वह चाहे मैं कहीं भी कुछ भी करूँ वह भगवान को उसी क्षस्ण पता चलती रहती है इस सत्य को जब हम झुठलाने लगते हैं उसी वक्त से हमारे हाथों से कर्मस्वातंत्र्य का दुरुपयोग होने लगता है और इसी का दूसरा पहलु यह है कि इस संपूर्ण चराचर में उनका अस्तित्व होता ही है। जो संपूर्ण चराचर को व्याप्त कर भी पूर्ण (दशांगुल शेष) रहता है, उस भगवंत के अस्तित्व को ही वह मनुष्य यदि अमान्य कर देता है अर्थात नजरअंदाज कर देता है, अमान्य कर देता है तो फिर वह कभी भी मर्यादामार्ग का राही नही बन सकता है।

‘वे’ मेरे ही हैं और मैं उन्हीं का हूँ यह हर एक भक्त के लिए आवश्यक होनेवाला सर्वोच्च भाव है, परन्तु इसके साथ ही, ‘वे’ मुझे हर पल देखते ही रहते हैं यह हर एक मनुष्य के लिए आवश्यक लगनेवाली स्मरणशक्ति है और भक्ति में यदि भाव और विश्‍वास न हो तो ऐस उचित होगा ही नहीं।

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