श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-९३

………कोई कही भी रहे, कुछ भी करता रहे, फिर भी उसके हर एक कृति की इत्थंभूत जानकारी बाबा को त्वरीत ही मिल जाती है। इस बात का जिसे निरंतर स्मरण रहता है, वह श्रद्धावान होता है।

एक दिन मध्यान्ह आरती हो जाने के पश्‍चात् बाबा के मुख से जो वचनावली निकली, उसके संबंध में हेमाडपंत हमसे कह रहे हैं और उसमें भी बाबा के मुख से प्रकट होनेवाला पहला वचन हमें सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शन करनेवाला है।

कही भी रहो, कुछ भी करो। इतना सदैव स्मरण रखना।
आपके हर एक कृति की इत्थंभूत जानकारी। मुझे त्वरीत ही मिल जाती है।
(कुठेंही असा कांहींही करा। एवढे पूर्ण सदैव स्मरा। की तुमच्या इत्थंभूत कृतीच्या खबरा। मज निरंतरा लागती॥)

इस एक ही पंक्ति में श्रीसाईसच्चरित के सभी कथाओं का मर्म हेमाडपंत हमें बता रहे हैं। बाबा का सर्वव्यापकत्व हमें साईसच्चरित के हर एक कथा में दिखाई देता है। साईसच्चरित की सभी कथाओं का यही गाभा है। यह पंक्ति स्पष्टरूप में हमसे यही कह रही है कि हमारी हर एक कृति बाबा को उसी वक्त पता चल जाती है। और बाबा उसी क्षण से भक्त के जीवनविकास के लिए कार्य भी करने लगते हैं। यहीं पर हमें पूर्णरूप में पता चल जाता है कि साईनाथ श्रद्धावान के हर एक कार्य को इत्थंभूत जानते ही हैं। इसके साथ ही वे उनका प्रतिपाल एवं जीवनविकास करने के लिए सक्रिय होते हैं।

अभक्त एवं भक्त, श्रद्धाहीन एवं श्रद्धावान दोनों की कृतियों की इत्थंभूत खबरें श्रीसाईनाथ को होती ही हैं परन्तु श्रद्धावान के लिए ये साईनाथ क्रियाशील होते हैं एवं श्रद्धाहीनों के लिए वे साक्षीभाव धारण करते हैं। बाबा को हर किसी के हर एक कृति की इत्थंभूत खबर होती ही है। परन्तु मैं श्रद्धावान हूँ कि श्रद्धाहीन इस बात पर बाबा की कृपा मेरे जीवन में प्रवाहित होगी की नहीं यह बात निर्भर करती है।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईइससे आगे चलकर यही पंक्ति हमें श्रद्धावान एवं श्रद्धाहीन कौन है इस बात की सुस्पष्टरूप में व्याख्या करके दिखलाती है। यह पंक्ति जिसे सर्वथा मान्य है, जिनका इन पंक्तियों पर दृढ़ विश्‍वास है वही होता है सच्चा श्रद्धावान। ‘मेरे साईनाथ को विश्‍व की हर एक बात, हर किसी की कायिक, वाचिक, मानसिक एवं बौद्धिक हर एक कृति तत्क्षण पूर्ण रूपेण पता चल ही जाती है और मेरे साईनाथ मुझे पूर्णरूपेण सहायता कर ही रहे हैं’ ऐसा जिसका दृढ़ विश्‍वास है वही सच्चा श्रद्धावान होता है।

कोेई कही भी रहे, कुछ भी करता रहे, फिर भी उसके हर एक कृति की इत्थंभूत जानकारी बाबा को त्वरीत ही मिल जाती है। इस बात का जिसे निरंतर स्मरण रहता है, वह श्रद्धावान होता है। श्रद्धावान की प्रथम भूमिका को यह पंक्ति स्पष्ट करती है। इससे दूसरी भूमिका अपनेआप ही स्पष्ट हो जाती है कि बाबा का मुझ पर पूरा ध्यान है और बाबा मेरे विकास के लिए हर पल सक्रिय हैं ही। वे हर प्रकार की सहायता मेरे लिए भेज ही रहे हैं।

श्रद्धाहीनों की व्याख्या सर्वथा इसके विपरीत ही है। इस पंक्ति पर जिसका विश्‍वास नहीं है, वह श्रद्धाहीन। बाबा तो शिरडी में हैं ही। यदि कोई कहीं पर कुछ भी करता है तो बाबा को पता कैसे चलेगा? मैं चुपके से किसी को भी कुछ भी पता न चल सके इस तरह से जो कुछ भी करता हूँ, वह तो किसी को भी पता नहीं चल पाता है। यहाँ तक कि बाबा भी नहीं जान पायेंगे। साईनाथ के ईश्‍वरत्व को नकारनेवाला श्रद्धाहीन इस पंक्ति पर मात्र रत्तीभर भी विश्‍वास नहीं रखता है। वह तो बाबा को एक सर्वसाधारण मनुष्य के ही समान मानता है तथा ईश्‍वर के अस्तित्व को अमान्य कर देता है। श्रद्धावान एवं श्रद्धाहीन इनमें होनेवाले फर्क को यह पंक्ति सुस्पष्ट करती है।

अब हमें यह निश्‍चित करना है कि श्रद्धावान बनना है कि श्रद्धाहीन ‘मेरी कृति की इत्थंभूत खबरें बाबा जानते हैं’ अर्थात श्रद्धावान को पूरा विश्‍वास होता है कि केवल इस जन्म में ही नहीं बल्कि मेरे पिछले सभी जन्मों की सभी कृतियों की इत्थंभूत खबरें भी बाबा जानते ही हैं तात्पर्य यह है कि मेरा प्रारब्ध, पूर्वसंचित कैसा है, यह मुझे नहीं पता, परन्तु मेरे बाबा जानते ही हैं। उस प्रारब्ध के कारण मुझे कौन-कौनसा भोग भोगना पड़ेगा, आगे कौन से संकट, मुसीबतें आनेवाली हैं, ये मैं नहीं जानता, परन्तु मेरे बाबा को सब कुछ पता है। उस प्रारब्ध के कारण मुझे कौन-कौन से भोग भोगने पड़ेंगे, आगे चलकर कौन से संकट आनेवाले हैं, अड़चने आनेवाली हैं, वह मैं नहीं जानता, परन्तु बाबा बाखुबी जानते हैं कि उन अड़चनों को मात कैसे देनी है। मैं मात्र नहीं जानता, परन्तु बाबा मात्र भली-भाँती जानते हैं। और मुझे उसमे से निकालकर प्रगति पथ पर ले जाने के लिए सदैव वे सक्रिय हैं ही। मेरे प्रारब्ध भोग का नाश केवल साईनाथ की कृपा से ही हो सकता है, अन्य किसी से भी नहीं।

‘इत्थंभूत कृतियों की खबरें मुझे निरंतर मिलती हैं’ इसमें से ‘इत्थंभूत’ यह शब्द काफी महत्त्व रखता है, वह केवल इसीलिए। इत्थंभूत का अर्थ हर एक कृति, सहेतुक, सकारण वे जानते ही हैं परन्तु केवल इसी जन्म की नहीं बल्कि मेरे पिछले सभी जन्मों की, यहाँ पर मुझे सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात का पता चलता है कि जब मैं स्वयं को ‘इत्थंभूत’ नहीं जानता, इससे भी कहीं अधिक ये साईनाथ हमें जानते हैं। बिलकुल सचमुच ‘इत्थंभूत’ जानते हैं। इसीलिए श्रद्धावान में कभी अहंकार नहीं आता। ‘मैं सब कुछ जानता हूँ’ यह भाव श्रद्धावान के पास कभी भी नहीं होता क्योंकि ‘इत्थंभूत’ केवल बाबा ही जानते हैं यह बात वह भली-भाँति जान चुका होता है। श्रद्धावान का भाव कुछ इसी प्रकार का होता है कि जहाँ पर मैं स्वयंं अपने-आपको भी पूर्णरूपेण नहीं जान पाता हूँ, वहाँ पर मैं भला अन्य और कुछ क्या जान पाऊँगा? अपनी ताक्त का अहसास श्रद्धावान को सदैव होता ही है। इसके साथ ही उसके अन्त:करण में यह दृढ़ विश्‍वास भी होता है कि मेरे ये साईनातह मात्र सबकुचह इत्थंभूत जानते ही हैं। इस विश्‍व के हर एक जीव का सभी जन्मों का सभी कुछ इत्थंभूत केवल ये ही जानते हैं। इस विश्‍व के हरएक जीवों के हर एक जन्म की सभी इत्थंभूत खबरें केवल यही जानते हैं।

मेरी और हम सभी की मूल समस्या है हमारा दुष्प्रारब्ध। यदि मैं उस प्रारब्ध को ही नहीं जानता, तो फिर मैं उसका उपाय भी कैसे जान पाऊँ गा? इसीलिए जो रोग का मूलकारण जानता है और इसी के साथ रोगों का समूल उच्छेद सहजतासे करने की लगन जिनके पास होती है, वे ‘डॉक्टर’ साईनाथ ही मेरे प्रारब्ध का नाश कर सकते हैं, और कोई भी नहीं।

साईसच्चरित की हर एक कथा में बाबा का यह ‘इत्थंभूत जानना’ इससे हमें यह प्रचिती मिलती है कि बिलकुल पिछले द्वितीय अध्याय की कथा में भी हमने देखा कि वाडे में चल रहे वादविवाद के बारे में बाबा को उसी क्षण पता चल गया है और हेमाडपंत के साथ सभी लोग द्वारकामाई में पहुँचते ही बाबा उनसे इस संबंध में पुछते है। हेमाडपंत द्वितीय अध्याय में स्वयं के अनुभवों के आधार पर हमें यही बताते हैं कि बाबा को हर किसी के हर एक कृति की इत्थंभूत खबरें पता हैं।

इसीलिए मुझे केवल एक ही काम करना है कि इस साईनाथ से कुछ भी छिपाना नहीं है। इस बात का स्मरण मुझे सदैव रखना है और इनसे कुछ भी मुझे छिपाने की गलती कभी भी नहीं करनी चाहिए।

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