श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ८) फलाशाविरहित कर्म

हमने भक्ति की आसान पगडंडी माने जानेवाले श्रीसाईसच्चरितरूपी सेतु का अध्ययन किया। ‘बाबा के चरणों तक पहुँचानेवाली राह’ इस दृष्टि से यहाँ पर पगडंडी इस शब्द का उपयोग किया गया है। सद्गुरुकथानुस्मरण की इस सेतुरूपी पगडंडी पर से प्रेमप्रवास करते हुए हम सूखे चरणों भव से पार हो जायेंगे। निश्चित ही, १०८% प्रतिशत! यह विश्वास हेमाडपंत हमारे मन में जगा रहे हैं। जो स्वधर्म-पालन में दक्ष है ऐसा हर एक भक्त इस पगडंडी पर से प्रेमप्रवास कर सकता है। शुद्ध स्वधर्म यानी क्या, इसका अध्ययन हमने इससे पहले ही कर लिया है। इस अध्याय के आरंभ में ही शुद्ध स्वधर्म की व्याख्या करते समय भक्ति के मूलभूत सिद्धांत एवं मर्यादा पुरुषार्थ का आशय सुस्पष्ट रूप में बताना यह हेमाडपंत का उद्देश्य है। साथ ही आगे चलकर श्रीसाईसच्चरित की इस अध्याय में जो कथा आती है, उस कथा का भी मथितार्थ है- फलाशाविरहित कर्म करना ही स्वधर्म-पालन करना है।

श्रीसाईसच्चरित
श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ कथा

बाबा को गेहूँ पीसते हुए देख तुरंत ही दौड़ते-भागते जानेवाली चार स्त्रियाँ बाबा के हाथों से खूँटा प्रेमभरी तक्रार के साथ झपटकर गेहूँ पीसने का काम वे पूरा करती हैं, तब उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि अब तो कर्म पूर्ण हो चुका है और उसी के फलस्वरुप बाबा हम चारों को उस पीसे गये आटे का एक-एक हिस्सा दे देंगे।

एक पायली गेहूँ पीसा जाने पर।  
सूप के भी खाली हो जाने पर।
फिर स्त्रियों के ‘मन का मोर’।  
लगा नाचने अनिवार।

– श्रीसाईसच्चरित

ये ही स्त्रियाँ साईबाबा के प्रेम के कारण उन्हें गेहूँ पीसने न देकर स्वयं उनसे खूँटा छीनकर गेहूँ पीसने लगती हैं, तब उनके साथ बाबा झगड़ने लगते हैं। फिर भी इन स्त्रियों का बाबा के प्रति होनेवाला प्रेम कम नहीं होता, उसके विपरित वे गेहूँ पीसते-पीसते और भी अधिक उत्साह के साथ ज़ोर-ज़ोर से बाबा की लीलाओं का गान करने लगती हैं। अर्थात इतना तो स्पष्ट है कि वे अपने ‘स्वधर्म’ का पालन पल-प्रतिपल कर रहीं हैं। बाबा के प्रति प्रेम होने के कारण हर सम्भव कोशिश करने की तैयारी उनमें है। गेहूँ पीसने का कर्म करते-करते उन्हें साईनाथ का स्मरण भी है और इसीलिए कर्म को ही कर्मफल मानकर वे उस कर्म से प्राप्त आनंद का अनुभव कर रही हैं। इसीलिए वे बड़े ही सहजता से बाबा के गीत गा रहीं हैं, साईलीलाओं का वर्णन कर रहीं हैं। कर्म करते समय उनके आनंद की कोई सीमा ही नहीं है। बाबा गेहूँ पीसने बैठे हैं इस बात का पता चलते ही तुरंत वे दौड़ते-भागते द्वारकामाई में आ जाती हैं। बाबा गेहूँ क्यों पीस रहे हैं, किसलिए पीस रहे हैं आदि प्रश्न उनके मन को छूते तक नहीं। मेरे बाबा स्वयं जो कर्म कर रहे हैं, वह तो उचित ही होगा और मेरे इस सद्गुरु की सेवा मुझे करनी ही है, इसी दृढ निष्ठा के साथ वे उनसे उस खूँटे को खींच लेंती हैं, बाबा के साथ झगड़ती भी हैं, मग़र फिर भी वे अपने सेवा कर्म को नहीं छोडतीं। सचमुच यहाँ तक तो इन स्त्रियों का स्वधर्म पालन अत्यन्त उत्कृष्ट रू में वे कर रही हैं।

हमें सर्वप्रथम इन चारों स्त्रियों से यही स्वधर्म-पालन सीखना चाहिए। सद्गुरु स्वयं जिस कार्य को करने की ठान लेते हैं, वह निश्‍चित रूप से श्रेयस्कर ही है, यही हमारा भी दृढ़ विश्वास होना चाहिए और अपनी पूरी क्षमता के साथ हमें अपने आप को उस सेवाकार्य में झोंक देना चाहिए। अपने सद्गुरु के प्रति दृढ़ विश्वास और एकनिष्ठता रखना यह हमें भी सीखना चाहिए। एक बार यदि अपने सद्गुरु के प्रति हमारा दृढ़ विश्वास कायम हो जाता है फिर संदेह करना तर्क-कुतर्क जैसे बातों के लिए हमारे मन में स्थान ही नहीं होता। आज की स्थिति में तो किसी को भी सद्गुरु का स्थान देने से पहले, उन्हें अच्छी तरह से जाँच परखकर, उनकी पूरी जानकारी हासिल करके सच्चाई का पता लगाना अति आवश्यक हो गया है। परंतु एक बार विश्वास दृढ़ हो जाने के बाद बार बार शंका-कुशंका करके हम स्वयं ही अपनी प्रगति के मार्ग में बाधा उत्पन्न करते रहते हैं।

इन स्त्रियों ने साईबाबा के हाथ से जाते का खूंटा खींचकर अपने हाथों में लेकर खूंटनेवाली वृत्तियों को परास्त कर उन्नति का बहुत बड़ा रास्ता खोल दिया। परन्तु जब पायलीभर गेहूँ पीसकर हो गया, तब उनके मन में कल्पना के तरंग नाचने लगे। बाबा स्वयं भिक्षा माँगते हैं, खुद तो चपाती या रोटी भी नहीं बनाते, फिर इतना सारा आटा लेकर बाबा क्या करेंगे? स्त्रियों के मन में ‘तर्क’ शुरू हो गया। बाबा तो बालब्रह्मचारी हैं, उनका ना तो घर-बार है, ना ही संसार, फिर वे इतना सारा आटा लेकर क्या करेंगे? बाबा परमकृपालु होने के कारण उन्होंने हमारे लिए ही यह गेहूँ पीसने की लीला रची है और अब वे ये सारा आटा हम चारों में बाँट देंगे।

करेंगे अब चार भाग (हिस्सा)।
एक एक का एक-एक विभाग।
ऐसी मन की तरंगें देख।
वे सभी कल्पना करने लगी।

श्रीसाईसच्चरित

यह खयाली पुलाव पकाना ही कल्पना करना है, फलाशा करना है। सिर्फ़ इतनी ही फलाशा कर वे शांत नहीं होती, बल्कि उस आटे को चार हिस्सों में बाँटकर अपने अपने घर ले जाने की तैयारी करने लगती हैं। यही फलाशा मनुष्य के लिए घातक सिद्ध होती है, इस बात का यह एक सुंदर उदाहरण है। ‘कर्म करना यह मेरा धर्म है, फल देना यह साईनाथ का धर्म है’ यानी गेहूँ पीसना यह मेरा धर्म है और उस आटे का क्या करना है यह साईनाथ का अधिकार है। मैं ही फलाशा के चंगुल में फँसकर परस्पर आटे का हिस्सा करने लगूँ अर्थात फल कैसा चाहिए यह स्वयं ही निश्चित करने लगूँ तो वह मेरा क्षेत्र, मेरा अधिकार न होने के कारण मैं ‘मर्यादा का उल्लंघन’ करता हूँ यानी स्वधर्म का पालन न कर अधर्म का आचरण करता हूँ।

मुझे सिर्फ़ पीसने का ही कर्म करते हुए आनंद का उपभोग करना चहिए, आटे का क्या करना है यह सर्वथा साईबाबा का अधिकार है। परन्तु मन की पतंग उडाने से यानी फलाशा करने से हम स्वधर्म से कैसे विमुख (पराङ्मुख)हो जाते हैं, इस बात का पता हमें यहाँ पर चलता है। अब तक उचित प्रकार से स्वधर्म का पालन करनेवाली स्त्रियों के मन में फलाशा के प्रवेश करते ही किस तरह वे अनुचित दिशा में भटकने लगीं, इस बात पर हमें गौर करना चाहिए।

वास्तविक तौर पर गेहूँ किसका था? बाबा का। वह भी बाबा को नेवासकर के द्वारा अर्पण किया गया। बाबा की इस गेहूँ पीसनेवाली लीला में हमें सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, यही हमारे लिए बहुत है। इस आटे पर मेरा क्या अधिकार है? बाबा के कृपा से द्वारकामाई में प्रवेश करने की और बाबा की इस गेहूँ पीसने की क्रिया में उन्हें मदद करने का अवसर बाबा ने मुझे दिया, इसके लिए उनके ॠण का स्मरण करना चाहिए। परन्तु मैं ही यदि आटे का बँटवारा करने लगूँगा, तो वह सरासर गलत है। आरंभ में गेहूँ पीसने तक इन स्त्रियों के मन का शुद्ध प्रेमभाव, शुद्ध स्वधर्म अब इस फलाशा नाम की राक्षसी के प्रवेश करते ही पूरी तरह डगमगा जाता है। ‘इदं न मम। इदं साईनाथाय। साईनाथार्पणमस्तु।’ यह कहकर मुझे अपने कर्म को बाबा के चरणों में अर्पण कर देना चाहिए। आटे की फलाशा करने की बजाय यानी बाबा मुझे आटा देंगे यह कल्पना करने के बदले बाबा से बाबा को ही माँगना चाहिए। मुझे यदि कुछ चाहिए तो पूरा का पूरा साईनाथ ही चाहिए और कुछ भी नहीं चाहिए। दर असल गेहूँ पीसने की क्रिया तो पूरी हो गई थी, मगर फ़िर भी कर्म पूरा नहीं हुआ था, उस आटे को  गाँव की सीमा पर डालना था और वह भी इन चारों स्त्रियों की तरह रहनेवाले अन्य सभी भक्तों की सुरक्षा हेतु! बाबा ने इन चारों स्त्रियों के हाथों होनेवाले फलाशाप्रेरित कार्य को रोककर उन्हीं से पुन: स्वधर्म-पालन करवाया।

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