श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-८१

श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन फलाशा का पूर्णविराम किस तरह से करता है इससे संबंधित अध्ययन हमने पिछले अध्याय में देखा। रोहिली का एक अर्थ जिस तरह हमने पिछले लेख में देखा ‘फलाशा’। बिलकुल उसी तरह भक्तिमार्ग में आनेवाली सिद्धियाँ, ये भी रोहिली ही हैं। ‘सिद्धियाँ’ जैसे योगमार्ग में प्राप्त होती हैं, वैसे ही भक्तिमार्ग में भी उत्तरोत्तर भक्ति जैसे-जैसे बढ़ती जाती है वैसे ही ये सिद्धियाँ हमारी राह में बाधा बनकर आड़े आ जाती हैं। भक्ति सेवा यह भी एक तपश्‍चर्या ही हैं और इस तपश्‍चर्या के कारण ही यें विभिन्न प्रकार की सिद्धियाँ हमारी राह में बाधा उत्पन्न करने लगती हैं।

अधिकतर कथाओं में हम पढ़ते हैं कि कोई भी तपस्वी योगसाधना के लिए तपश्‍चर्या करने के लिए बैठे ही रहते हैं और इसी तपश्‍चर्या के आधार पर वे प्रगति करते रहते हैं। उन्हें तपोबल से सिद्धि प्राप्त होती है और इन्हीं सिद्धियों के चक्कर में फँसकर उन्हें पुन: सबकुछ गंवा देना पड़ता है। कभी ऐसा भी होता है कि उस तपस्वी को तपश्‍चर्या भंग करने के लिए कोई अप्सरा आ जाती है। जिसके मोह में पड़ने से उनकी तपश्‍चर्या भंग हो जाती है इससे होता यह है कि उनकी सारी साधनाएँ उस अप्सरा के मोह में पड़ने से व्यर्थ चली जाती हैं। इन सभी बातों का मथितार्थ यह है कि ये सिद्धियाँ ही उन तपस्वियों का घात करती हैं।

रोहिला एक काफ़ी बड़ा पहलु प्राप्त कर चुका भक्तिमार्गी है। जब भक्त एक-एक पायदान पर कदम रखते-रखते एक-एक शिखर पार करने लगता है, वैसे-वैसे ही एक-एक सिद्धियाँ उसके राह मे आती रहती हैं। सच पुछा जाये तो ‘मुझे कुछ भी नहीं चाहिए’ ‘मुझे केवल साईनाथ ही चाहिए’ इसी निर्धार के साथ बगैर अन्य कोई भी इच्छा किए भक्त का अपना प्रवास आरंभ रहता है। तात्पर्य यह है कि उसे इन सिद्धियों से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है, सिद्धियाँ प्राप्त करना यह उसका ध्येय नहीं होता है। परन्तु भक्तिमार्ग में जैसे भक्त आगे-आगे बढ़ता रहता है उसी के अनुसार ये सिद्धियाँ भी एक के पिछे एक सामाने आती रहती हैं। किसी भक्त को बाचा सिद्धि प्राप्त हो जाती है, तो किसी अन्य को कोई और ही। ये हर एक सिद्धियाँ हर एक पड़ाव पर सामने आती ही रहती हैं और यहीं पर हर एक भक्त को अपने-आप को बहुत संभालना पड़ता है।

इन सिद्धियों के वश होकर जो अपना प्रवास रोक देता है, उसे पुन: आरंभ से अपना प्रवास शुरु करना पड़त है। रोहिला अर्थात चित्त की दिशा में प्रवास करनेवाला उत्क्रान्त होनेवाला मन और इस उत्क्रांत के हरएक पड़ाव पर इन सिद्धियों से स्वयं को बचाना अधिक महत्त्वपूर्ण है। घर में जबरन घुसनेवाली रोहिली का गुणधर्म इस सिद्धि के साथ हुबहू मिलता जुलता है। सिद्धी भी अपने मन को तुरंत ही अपने कब्जे में कर लेती हैं। घर में घुसकर, घर एवं घर के मालिक दोनों को ही अपने कब्जे में कर लेनेवाली रोहिली ही सिद्धि है।

श्रीसाईनाथ के अनन्य भक्त को मात्र इस रोहिलीसे कोई भय नहीं होता है। मर्यादाशील भक्तिमार्ग में पतनभय नहीं रहता इसका कारण यह है कि मर्यादाशील भक्त उत्क्रांति के प्रवास के हर एक पड़ाअ पर साईनाथ का गुणसंकीर्तन करता ही रहता है। और साईनाथ का गुणसंकीर्तन, इस ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन ही हमारे मन को इन सिद्धियों के कब्जे में नहीं जाने देता है। रोहिले की इस कथा से हमें यही सीख लेनी चाहिए कि हम भक्तिमार्ग के प्रवास में किसी भी पड़ाव पर क्यों न हो परन्तु साईनाथ का गुणसंकीर्तन करते रहना हमारे लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि इन सिद्धियों के मोह में फँसकर हमारे मन को उलझने नहीं देने वाला एकमेव साईनाथ का गुणसंकीर्तन ही हैं।

साईनाथ का गुणसंकीर्तन करनेवाले भक्त को साईनाथ के अलावा और कोई दिखाई देता ही नहीं है, सिद्धियाँ राह रोकने के लिए मार्ग में पड़ी ही रहती हैं परन्तु सच्चा भक्त उनकी ओर घुमकर देखता भी नहीं हैं। वह अपने साईनाथ के गुणसंकीर्तन में ही मग्न रहता है। और श्रीसाईनाथ के अलावा और कुछ भी उसे दिखाई देता ही नहीं है। इसके साथ ही श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन जहाँ पर भी चल रहा होता है वहाँ पर सिद्धियाँ कभी बाधा उत्पन्न कर ही नहीं सकती है।

‘मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।’

यह महाविष्णु द्वारा नारद के समान श्रेष्ठ भक्त को दी गई ग्वाही ही है कि मेरे भक्त जहाँ पर भी गुणसंकीर्तन करते हैं, वहाँ पर मैं सदैव उनके आगे-पिछे चहुँओर खड़ा ही रहता हूँ। मैं अपने भक्तों का, गुणसंकीर्तन करनेवाले भक्तों का प्रतिपाल करता ही हूँ। फिर जहाँ पर ये साईनाथ के स्वयं मेरे संग खड़े हैं, मेरे संग चल रहे है, वहाँ पर सिद्धी तो क्या, अन्य कोई भी वहाँ पर नहीं आ सकता है।

सिद्धियों का सामना करना यह मनुष्य के बस की बात तो है ही नहीं। उसे केवल वे साईनाथ ही सहज सिद्धि धारण कर सकते हैं। इसीलिए हमें इन सिद्धियों के झमेलों में पड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है। क्योंकि इनक हमें कोई उपयोग नहीं हैं। ये सिद्धियाँ हमारे हाथ में आ गई है ऐसा सोचते ही हम स्वयं ही उन सिद्धियों का आहार बन चुके होते हैं। इस सिद्धीरूपी रोहिली को हमेशा के लिए अपने जीवन से दूर निकाल फेंकने के लिए श्रीसाईनाथ का नित्यप्रति गुणसंकीर्तन करते रहना यही एक सहज आसान उपाय है।

सिद्धियों के मोह में न पड़ना यह बड़े-बड़े ज्ञानी, तपस्वी, कर्मठ, योगी जैसे लोगों के लिए अत्यन्त क़ठिन है। परन्तु श्रद्धावानों के लिए यह अत्यन्त आसान है। और इसका एकमेव कारण है अपने ये सहजसिद्ध श्रीसाईनाथ। अपने इस साईनाथ की हम पर कितनी बड़ी कृपा है, श्रीसाईनाथ का हम पर कितना बड़ा ऋण है कि इस साईनाथने हमारे लिए गुणसंकीर्तन की पैदल यात्रा निर्माण कर हमारे प्रवास को सहज आसान बना दिया है। श्रीसाईनाथ का गुणसंकीर्तन श्रीसाईनाथद्वारा दिया गया अभेद्य कवच ही है, वज्रकवच है कि जिससे हमारी सर्वथा रक्षा ही होती है। हमारे लिए यह परमार्थ का मार्गक्रमण है।

श्रीसाईगुणसंकीर्तन के द्वारा श्रीसाईनाथने भक्तिमार्ग को इतना आसान बना दिया है फिर अन्य किसी मार्ग को तलाशने की आवश्यकता ही क्या? इस गुणसंकीर्तन के मार्गपर ये साईनाथ सदैव हमारे साथ हमारा प्रतिपाल करने के लिए स्वयं ‘प्रत्यक्ष’ चलते ही रहते हैं और इसीलिए इस मार्ग पर पतनभय तो क्या अन्य किसी भी प्रकार का भय नहीं हैं।

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