श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-९२

रूखी सूखी माँगकर खाता। अन्यथा भूखे पेटही रहता।

ऐसे रोहिले की कैसी पत्नी। कैसे वह जाती बाबा के पास॥

रोहिले के पास फूटी कौड़ी भी न थी। फिर कैसी पत्नी कैसी शादी।

बाबा बालब्रह्मचारी। कथा यह सारी काल्पनिक॥

(ओलें कोरडें मागूनि खाईल। नातरी उपाशीही राहील। तया रोहिल्यासी कैंची बाईल। कोठूनि जाईल बाबांशी॥ रोहिला कफल्लक दिडकीस भारी। कैंचे लग्न कैंची नारी। बाबा बाळब्रह्मचारी। कथा ही सारी मायिक॥)

बाबा बालब्रह्मचारी’ यह काफ़ी महत्त्वपूर्ण बात हेमाडपंत यहाँ पर बतला रहे हैं। बाबा बालब्रह्मचारी हैं अर्थात माया बाबा को कभी स्पर्श कर ही नहीं सकती है। बाबा साक्षात परात्पर परब्रह्म ही है, माया से सर्वथा अलिप्त ही है। माया सबको नचाती है, परन्तु बाबा मात्र साक्षात परमात्मतत्व होने के कारण माया बाबा को स्पर्श भी नहीं कर सकती है। हमें यदि इस माया के जाल में नहीं फँसना है तो केवल साईनाथ के शरण जाने के अलावा दूसरा मार्ग ही नहीं ‘अन्य देव सारे काल्पनिक। साईनाथ ही एक शाश्‍वत देव है।’ यह बात हमें सदैव ध्यान में रखनी चाहिए।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईजो माया के आधीन हैं, वे ब्रह्मादिक भी माया में फँसे हुए होने के कारण वे हमें माया से मुक्त नहीं कर सकते हैं। फलाशारूपी, मायारूपी रोहिली को केवल साईनाथ ही हमारे जीवन से हद्दपार कर सकता है। इसके लिए ही भावविवेक रूपी रोहिले को बाबा के पास आश्रय के लिए जाना, ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करते रहना अति महत्त्वपूर्ण है। इस साईनाथ का अभयहस्त जिसके सिर पर है। उसे इस फलाशारूपी माया का भय नहीं है। यह कथा ‘काल्पनिक’ है। इसका एक अर्थ रूपात्मक है। इसके साथ ही फलाशारूपी माया पर विजय कैसे प्राप्त करना है, इस माया का उच्चाटन समूल रूप में कैसे करना है इस बात का दिग्दर्शन करनेवाली यह एक ‘काल्पनिक’ कथा है।

इसीलिए ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन मैं जहाँ पर भी जिस स्थिती में भी हूँ, वहीं पर अत्यन्त प्रेमपूर्वक करते रहना मेरे लिए अति महत्वपूर्ण है। बाबा तक मेरा गुणसंकीर्तन पहुँचता होगा क्या? बाबा का ध्यान मुझ पर है क्या? बाबा तक मेरी पुकार भी पहुँच रही है क्या? आदि बातों के बारे में सोचते रहने के बजाय हमें गुणसंकीर्तन करते रहना चाहिए। बाबा को हर बात उसी क्षण पूर्ण रूप में समक्ष में आ जाती है। इसीलिए मैं जो कुछ भी करता हूँ, उसकी इत्यंभूत खबर उन्हें होती ही है। इसी विश्‍वास के साथ मुझे गुणसंकीर्तन करना चाहिए।

अकसर हम फँस जाते हैं वह यहीं पर, हमें ऐसे लगता है कि गुणसंकीर्तन करतेकरते इतना समय बीत गया, परन्तु मुझे प्रतीति अब तक क्यों नहीं मिली? मेरे संकटों की परंपरा अब तक खंडित क्यों नहीं हुई? उलटे नयेनये संकट आकर सामने भला क्यों खड़े हो रहे हैं? इस प्रकार के प्रश्‍न अकसर हमें परेशान करते रहते है और फिर साईनाथ का ध्यान मेरी ओर है या नहीं? बाबा तक मेरा भाग पहुँच रहा है या नहीं? इसप्रकार के प्रश्‍नों की शृंखला भी शुरु हो जाती है।

और यही पर श्रद्धा को सबुरी की जोड़ देकर सबुरी को बढ़ाकर मुझे निष्ठापूर्वक गुणसंकीर्तन शुरु ही रखना चाहिए। रोहिले की कथा के पश्‍चात् बाबा के मुख से जो वचन प्रस्फुटित हुए हैं उन्हें हमें ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए और अपने हृदय पर उसे अंकित कर लेना चाहिए। इसीलिए हेमाडपंत रोहिले की कथा के पश्‍चात् ‘साई उवाच’ अर्थात साई के अमृतवचन हमें सुनाते हैं।

एक बार मध्यान्ह आरती हुई। लोग स्वस्थान जाने के लिए निकल पड़े।

बाबा के मुखसे जो वचन निकला। उस मधुरवचन को सुनिये॥

(एकदां माध्याह्नीं आरती झाली। मंडळी स्वस्थानीं जावया परतली। बाबांच्या मुखावटे जी निघाली। मधुर वचनावली ती ऐका॥)

एक बार मध्यान्ह अर्थात दोपहर के समय की आरती समाप्त होने पर वहाँ पर उपस्थित लोग अपनेअपने गंतव्य स्थान पर जाने के लिए निकल पड़े। ऐसे में बाबाने भक्तों से मधुरवचन कहे। रोहिले के पिछेपिछे ही हेमाडपंत बाबा के इस मधुर उपदेश को हमें सुना रहे हैं।

कहीं भी रहो, कुछ भी करो। इतना मात्र सदैव स्मरण रहे।

की तुम्हारे इत्यंभूत कृति की खबरें। नित्यप्रति मुझे पता चल जाती हैं॥

(‘कुठेंही असा कांहीही करा। एवढे पूर्ण सदैव स्मरा। कीं तुमच्या इत्यंभूत कृतीच्या खबरा। मज निरंतरा लागती॥)

अत्यन्त सुंदर हैं ऐसे बाबा के वचन। सचमुच केवल एक पंक्तिने ही हमें कितना जबरदस्त विश्‍वास दिलाया है। हमारे अपने इस साईनाथ का ‘जानते हैं वर्म सभी के’ ऐसे हैं ये साईनाथ जो हर किसी की हर एक बात को जानते हैं। उनका ध्यान हर किसी की ओर रहता ही है। और वे हर किसी के लिए, हर किसी के जीवन के लिए तत्पर तो है ही। इस बात का विश्‍वास इस पंक्ति से हमें हो जाता है।

मैं कही भी रहूँ, कुछ भी करूँ फिर भी मेरी हर एक कृति की इत्यंभूत जानकारी श्रीसाईनाथ को होती ही है। ‘इत्यंभूत कृति की खबरें’ ये शब्द काफी महत्त्वपूर्ण हैं। हर एक कृति ही नहीं बल्कि उस कृति के पिछे होनेवाला हेतु, कारण एवं भाव इन सबके साथ संपूर्णत: खबरें साईनाथ को बिलकुल उसी क्षण मिलही जाती हैं। इसके साथ ही कृति अर्थात केवल शारीरिक कृतिही नहीं बल्कि मानसिक एवं बौद्धिक कृति भी इनमें अन्तर्भूत है।

फिर यदि बाबा को हर किसी के कृतियों की इत्यंभूत खबर मिल जाती है, तो फिर मेरे द्वारा किया जा रहा गुणसंकीर्तन निश्‍चित ही बाबा तक पहुँच जाता है, मेरी हर पुकार उसी क्षण बाबा तक पहुँच जाती है। और उस पर बाबा उचित कारवायी कर ही रहे हैं। इसीलिए मुझे सारी शंकाओं आदि को छोड़कर मुझे अपनी भक्ति एवं सेवा करते ही रहना है। बाबा देख रहे हैं कि नहीं, बाबा को पता चल रहा है या नहीं, इस प्रकार के प्रश्‍न ही उक्तपंक्ति के अनुसार अप्रस्तुत साबित होती हैं। बाबा को हर एक बात का अक्षरानुक्षर पता है। और वे अपना काम पूरी लगन के साथ कर ही रहे हैं। बस् मुझे अपना काम ईमानदारी के साथ करना है। मुझे गुणसंकीर्तन करने में जी चुराकर नहीं चलनेवाला है।

श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज प्रथम खंड सत्यप्रवेश इसमें होनेवाला प्रथम चरण भी हमें यहीं समझा रहा है और वह भी पुरुषार्थ की व्याख्या को आसान करके समझा रहे हैं। मैं हर एक कार्य परमेश्‍वर के लिए ही कर रहा हूँ और उन्हें यह बात उसीक्षण पता चल जाती है। इस बात का ध्यान रखकर ही मुझे अपना कर्तव्य पूरा करते रहना है और जो इस प्रकार से अपना कर्म करता है वही तो सही मायने में सच्चा पुरुषार्थी हैं।

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