श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग-३२)

जहाँ पर वादविवाद की बुद्धि। वहाँ पर अविद्या-माया-समृद्धि।
नहीं वहाँ पर स्वहित-शुद्धि। सदैव दुर्बुद्धि तर्क-कुतर्क॥

साईनाथ ने हेमाडपंत को चरित्रलेखन की अनुमति प्रदान करते हुए कहा कि बेकार की बातों का सर्वथा त्याग करके शुद्ध प्रेम की कथाओं का संग्रह करो, क्योंकि जहाँ पर वाद-विवाद की बुद्धि होती है, वहाँ पर सुबुद्धि अर्थात विवेक का अभाव होता है और वाद-विवाद करने वाली दुर्बुद्धि के कारण मन सदैव तर्क-कुर्तकों के पीछे खींचा चला जाता है। इससे होता यह है कि ऐसे स्थान पर सद्विद्या कभी रह ही नहीं सकती और वहाँ पर अविद्या एवं माया ही अपने पैर पसारे चली जाती है। दुर्बुद्धि के कारण ‘स्वयं का हित किस में है’ यह समझ में न आने के कारण मनुष्य धोखा खा सकता है। ऐसा मनुष्य सदैव ‘दूसरों को नीचा कैसे दिखाया जा सकता है’ इस प्रकार के कुविचार में फ़ॅंसा रहता है। इस तरह तर्क-कुतर्क के, कुविचार के, कुमति के जाल में फ़ॅंसा होने के कारण उस मनुष्य को इस बात का पता भी नहीं चलने पाता है कि आखिर ‘मेरा हित है किस में’ और इस बात का पता न चल पाने के कारण वह दलदल में और भी फ़ॅंसता चला जाता है।

जहाँ पर सद्बुद्धि नहीं होती वहाँ सद्विद्या नहीं होती और सद्विद्या के बिना साईबाबा के चरित्र-लेखन-कार्य का होना संभव हीं नहीं है। यहाँ पर बाबा यही कहना चाहते हैं कि परमेश्‍वरी कार्य करने के लिए, परमेश्‍वरी मार्ग पर चलते हुए अपना विकास करने के लिए सद्बुद्धि का दामन थामे रहना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वाद-विवाद करने की कुमति मनुष्य को कभी न खत्म होने वाले द्वंद्व में फ़ॅंसा देती है। जिस में से बाहर निकल पाने का उपाय वह नहीं ढूँढ़ पाता है। फ़िर ऐसे मनुष्य को ‘आत्मज्ञान’ कैसे प्राप्त होगा? क्योंकि जिसे आत्महित की, स्वहित की परवाह ही नहीं होगी, उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति होगी भी कैसे? हमें सदैव इन बातों का स्मरण रखना चाहिए।

हम अकसर इसी वाद-विवाद-बुद्धि के कारण अपनी प्रगति को कुंठित कर लेते हैं। ‘मैं बड़ा कि तुम बड़े’, ‘मैं सच्चा या तुम सच्चे’, ‘मैं जो कह रहा हूँ वह सच है और तुम जो भी कह रहे हो वह सब झूठ है’ इस तरह की बातें इस वाद-विवाद वाली बुद्धि के कारण ही निर्माण होती हैं। और फ़िर सामने वाले को झूठा साबित करने के लिए, वादविवाद में उसका पराभव करने के लिए दुर्बुद्धि अनेक प्रकार के कुतर्क करने लगती है। जिस बुद्धि के बल पर ‘स्वयं का हित किस में है’, इस बात का विचार करके मन को परमेश्‍वरी भक्ति के रास्ते पर ले जाना चाहिए, उस बुद्धि के बल को हम कुतर्क एवं वादविवाद जैसी तुच्छ बातों में खर्च करते हैं। इस तरह बिना वजह बुद्धि का बल गलत स्थान पर खर्च करके हम क्या प्राप्त करते हैं? बुद्धि के बल का गलत इस्तेमाल करके मानों मेरी जीत हो भी जाती है, मैं सामने वाले को नीचा दिखा भी देता हूँ, तो इससे मेरी अहंकार वृत्ति और भी बढ़ जाती है और यही अहंकार पुन: उसी वादविवाद वाली वृत्ति को बल पहुँचाने लगता है और यह एक ऐसी श्रृंखला है, जिसका कहीं अंत ही नहीं है और यही शृंखला हमें विनाश की दिशा में ले जाती है।

किन्तु श्रद्धावान साईनाथ की शरण में रहने के कारण, साईचरणों में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाने के कारण इस प्रकार के वादविवाद जैसे झमेलों से सदैव दूर ही रहता है। ‘मैं बड़ा हूँ या तुम’ इन सब झमेलों में न पड़ते हुए ‘मैं’, ’तुम’ आदि से परे जाकर ‘मेरे साईनाथ ही सबसे बड़े हैं’ इस विश्‍वास के साथ वह किसी भी प्रकार की बेकार की बातों में, झमेले में न पड़कर केवल साईनाथ का ही गुणगान करते रहता है। ‘मैं हारा या तुम हारे’ अथवा ‘मैं जीता या तुम जीते’ इन सब बातों में न पड़कर ‘मेरे साईनाथ ही सदैव विजयी होते हैं’ इसी दृढ़-विश्‍वास के साथ वह साईराम का वानरसैनिक बनकर मर्यादा मार्ग पर अपना मार्गक्रमण करता रहता है। ‘मैं सही-तुम गलत’, ‘मैं जो कहता हूँ वह सच और जो तुम कहते हो वह झूठ’ इन सभी झमेलों में न पड़ते हुए ‘साईनाथ ही को सच्चाई का पता है और वे जो कुछ भी कहेंगे वही सच है’ इस दृढ़-विश्‍वास के साथ वह बाबा के हर एक शब्द को पूरा सच मानकर अपने आचरण में उतारते रहता है।

वाद-विवाद का नाम आते ही दो पक्ष सामने आ जाते हैं। फ़िर होता क्या है कि पहला पक्ष एक विचार प्रस्तुत करता है, वहीं दूसरा पक्ष उस विचार का खंडन करता है। इस तरह यह बहस चलती ही रहती है और मुख्य बात तो यह है कि इसके फलस्वरूप कुछ भी प्राप्त नहीं होता। चर्चा जरूर करनी चाहिए, विचार-विनिमय भी करना चाहिए, परन्तु उसे बेकार की बकवास का, बहस का रूप नहीं देना चाहिए। हमें घर में भी इस बात का ध्यान रखकर ही व्यवहार करना चाहिए। घर में यदि सास एक बात कहे और बहू उस बात का विरोध करे अथवा बहू कुछ कहती है और सास उसका विरोध करती है, पति कुछ कहता है तो पत्नी उसका विरोध करती है, पत्नी कुछ कहती है तो पति उसका विरोध करता है, ऐसा नहीं होना चाहिए। इससे क्या होता है कि प्रथम पक्ष के अहंकार (इगो) को ठेस लगती है और सामने वाले के विचार का खंडन किया जाता है। ‘मैं जो कहता हूँ वह ठीक है और ऐसा ही होना चाहिए’ इसी वृत्ति से घर में क्लेश बढ़ता है और वाद-विवाद भी कभी खत्म नहीं होता।

यदि घर में किसी बात पर एकमत न हो रहा हो तो सभी लोगों को एकसाथ बैठकर मिलजुलकर प्यार मोहब्बत के साथ चर्चा करनी चाहिए। मुझे जो भी कहना है उसे प्रेमपूर्वक प्रस्तुत करना चाहिए। सर्वप्रथम अपने विचार प्रेमपूर्वक प्रस्तुत करने चाहिए। कोई भी किसी की ख़ामियों के बारे में आरंभ में कुछ नहीं कहेगा, क्योंकि चर्चा का आरंभ ही यदि हम ऐसे ही बेकार की बातों से करेंगे तो उस चर्चा का झुकाव गलत दिशामें ही होगा। इसके साथ ही यह भी ध्यान में रखें कि ‘पहले तुमने ऐसा व्यवहार किया था क्या वह ठीक था?’ इस तरह की बातें करना उस समय उचित नहीं है। पिछले झमेलों को याद करके हम आज की समस्या को सुलझाने की बजाय और अधिक उसे उलझा देते हैं। आज जिस बात पर हमें चर्चा करनी है, जिस विषय पर हमारी चर्चा चल रही है, उसका कम से कम एवं सुस्पष्ट शब्दों में खुलासा करके उसे निपटा देना चाहिए। किसी कार्य के परिणाम के बारे में भी हमें ज्ञात होना चाहिए कि यदि हम ऐसा करते हैं तो इसका यह परिणाम ऐसा होगा। इसके साथ-साथ हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि सामनेवाले को भी अपने विचार प्रस्तुत करने का पूरा अधिकार है। इसके पश्‍चात् ही भली भाँति सोचविचार करके ही फ़ैसला करना चाहिए। प्रश्‍न चाहे कोई भी हो, घरेलू समारोह से संबंधित हो, आर्थिक हो अथवा अन्य कोई भी हो, हर किसी को चाहिए कि वह इस तरह प्यार-मोहब्बत के साथ मिल-मिलाकर, प्रेमपूर्वक चर्चा करके, सलाह-मशवरा करके, बातचीत करके उस प्रश्‍न का हल निकालना चाहिए।

वाद-विवाद के कारण प्रश्‍न का उत्तर ढूँढ़ना तो दूर की बात रही, हम इस वादविवाद से अन्य प्रकार के अनेक उलझे हुए प्रश्‍नों की शृंखला तैयार कर देते हैं। चर्चा के पश्‍चात् मुझे ऐसा लगता है कि मैं ही गलत था, तब भी इसमें शर्म की कोई बात नहीं है। प्यार से अपनी गलती का स्वीकार कर लेने से हम कोई छोटे नहीं हो जायेंगे। अपने परिवार में किसी प्रकार का संकोच करने का सवाल ही नहीं उठता है। बेकार की बहस करके अपने आप को बड़ा बनाने का क्या मतलब है! महज़ मेरा कहना कहीं झूठा न पड़ जाये इसलिए मैं झूठ को छिपाने के लिए और दस झूठ बोलता हूँ। आखिर क्यों? ऐसा करके हम स्वयं ही अपने लिए गड्ढ़ा खोदने का काम करते हैं। वाद-विवाद की बुद्धि का, कुतर्कों का शिकार बनना इन सब बातों का ही अर्थ है कि हम अपने लिए स्वयं ही गड्ढ़ा खोदते रहते हैं। वहीं ‘संभाषण’ के माध्यम से अपनी समस्या सुलझाने का प्रयास करने का अर्थ है, ‘सेतु’ बनाना।

यदि हम अपने जीवन के प्रवास को आनंदमय, सुखदायी बनाना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें यह सोचना चाहिए कि हमें अपनी राह में गड्ढ़े खोदाना क्या योग्य है? दर असल सेतु बनाना ही उचित है। इस बात का विचार तो हमें ही करना है। ‘प्रत्यक्ष’ दैनिक समाचार पत्रिका का तो ब्रीद ही यह है- ‘तुटे वाद संवाद तो हितकारी’। इसका सरलार्थ यही है कि वादविवाद को छोड़कर संभाषण का जो मार्ग है, वही हमारे लिए हितकारी है। हमारा हित हम केवल संभाषण के माध्यम से मसले को सुलझाने से ही साध्य कर सकते हैं। वादविवाद के झमेले में पड़ने से हित नहीं हो सकता। स्वयं श्रीसाईनाथ भी हमें यही समझा रहे हैं कि वाद-विवाद से कुछ भी साध्य नहीं होता, ‘संवाद’ ही हितकारी है। ‘प्रत्यक्ष’ साईनाथ के मुख से उच्चारित होनेवाले ये बोल ही हमारे लिए सर्वोच्च मार्गदर्शक हैं।

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