श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-१०७

एवं च पावन साईचरित्र। वाची तयाचें पावन वक्त्र।
श्रोतयांचे पावन श्रोत्र। होईल पवित्र अंतरंग॥

श्रीसाईसच्चरित हर एक जीव के लिए महत्त्वपूर्ण है, यह हमें हेमाडपंत ने इसी अध्याय में किस तरह से स्पष्ट करके बतलाया है, यह तो हमने पिछले लेखों में देख लिया।

भगवान की, परमात्मा की कथाओं का श्रवण करना और उनके गुणों का संकीर्तन करना यह बात हर एक मानव के लिए आवश्यक है, यह भी हम अकसर देखते ही हैं। परन्तु इस श्रवण एवं कीर्तन से हमें निश्‍चित तौर पर क्या लाभ होता है, किंबहुना साईसच्चरित का श्रवण एवं पठन करने से क्या लाभ होता है, यही हेमाडपंत ऊपरलिखित ओवी के माध्यम से स्पष्ट करते हैं।

जो कोई भी इस साईनाथ के चरित्र का पठन करता है, उसका मुख अर्थात हम जहाँ से बोलते हैं वह हमारा मुख पावन बन जाता है और जो कोई इस साईसच्चरित के चरित्र का श्रवण करता है अर्थात सुनता है, उसके कान पावन हो जाते हैं। वैसे देखा जाए तो दिनभर में अनेकों बार हम मुँह से अनेक प्रकार की बातें करते रहते हैं, उनमें से कुछ बातें अनुचित भी हो सकती हैं। यह क्रिया मनुष्य की ओर से कभी जाने तो कभी अनजाने में होते रहती हैं। बोलते समय और सुनते समय कई बार मनुष्य अपने कानों से अनुचित बातें सुनता है। यह भी कभी जाने-अनजाने में घटित होनेवाली क्रिया है। इससे हमारी वाक् इन्द्रिय और श्रवणेन्द्रिय दूषित हो जाते हैं। इसीलिए फिर इस पर सबसे आसान उपाय हेमाडपंत हमें बतलाते हैं कि साईसच्चरित के श्रवण से तुम्हारे कान निर्दोष होंगे और मुखपावन अर्थात निर्दोष हो जायेगा। केवल इतना ही नहीं बल्कि इस कथा का वाचन करने से और श्रवण करने से केवल वक्त्र एवं श्रोत्र इनमें ही निर्मलता नहीं जायेगी, बल्कि हमारा अन्त:करण ही पवित्र हो जायेगा।

भारतीय चिकित्साशास्त्र अर्थात आयुर्वेद ने बारंबार एक सिद्धांत बतलाया है और वह है ‘प्रज्ञापराधात् रोग:।’ प्रज्ञापराध यह मन के द्वारा किया जानेवाला बुद्धि का अपराध है, जिससे रोग उत्पन्न होते हैं।

श्रीमद्पुरुषार्थ के प्रथम खंड के सत्यप्रवेश में सद्‌गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने ‘प्रज्ञापराधात् रोग:’ इससे संबंधित अत्यंत सुंदर विवेचन किया है।

उस विवेचन में वे कहते हैं ‘आहार, विहार, आचार, विचार इनमें मानव जब अपराध करता है, तब उसके शरीर में और शरीर के बाहर विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं।’ (संदर्भ श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रन्थराज प्रथम खण्ड – सत्यप्रवेश)

मुख से बोलना और कानों से सुनना इनका परस्पर संबंध क्या हो सकता है, यह हम देखते हैं।

मुख से बोलना यह मनुष्य की एक क्रिया है अर्थात् उसका यह आचरण हैं। कान से सुनना यह भी एक प्रकार की क्रिया ही है। कान से सुनना अर्थात कान के द्वारा शब्द का सेवन करना, यह श्रोत्र नामक इंद्रिय का आहार है और बोलना यह जिह्वा (जीभ), जो उभयात्मक इंद्रिय है, जो बोलने की क्रिया करती है और स्वाद लेने की भी क्रिया करती है, ऐसे इस वाक् नामक इंद्रिय की यह क्रिया है। इन्द्रिय के माध्यम से मन प्रज्ञापराध करता है और उसके परिणाम मनव को भुगतने पड़ते हैं।

आयुर्वेद रोगों के संबंध में बात करते हुए कहता है,

कालार्थकर्मणां योगो हीनमिथ्यातिमात्रक:।
सम्यक्-योगश्‍च विज्ञेयो रोगारोग्यैककारणम्॥

काल, अर्थ (इंद्रियों का अर्थ यानी विषय), कर्म का न करना या कर्म का अतिप्रमाण में, अत्यन्त कम प्रमाण में अथवा गलत यानी अनुचित प्रकार से किया जाना इससे ही रोग उत्पन्न होते हैं, लेकिन जब ये तीनों ही उचित होते हैं, उस वक्त स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।

अब जब हम अनुचित बोलते हैं, तब भी वह प्रज्ञापराध कहलाता है, क्योंकि यह हमारे आचरण का अपराध है। वैसे ही जब हम अनुचित बातें सुनते हैं, तब भी वह हमारा प्रज्ञापराध ही है, क्योंकि यह भी हमारे आहार का अपराध है।

वैसे ही अनुचित बोलना और सुनना यह कर्म एवं अर्थ का प्रज्ञापराध ही है। अनुचित बोलना और सुनना ये दोनों ही बातें नये-नये रोगों को जन्म देती हैं।

कभी अनजाने में कोई गलती होती है तो उसके लिए परमदयालु परमात्मा क्षमा प्रदान करते हैं, परन्तु जब यह क्रिया बारंबार घटित होती है और सब कुछ जानने के बावजूद भी ऐसी क्रिया अस्तित्व में न आने पाये इसके प्रति मनुष्य यदि कोई भी प्रयास नहीं करता है, तब वह प्रज्ञापराध रोगों को जन्म देता है।

और इस प्रज्ञापराध के कारण रोग भी कौन सा उत्पन्न होता है? इससे शारीरिक रोग तो होते ही हैं, परन्तु मुख्य तौर पर मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। अर्थात् मन पर पूरी तरह रजोगुण और तमोगुण का राज्य स्थापित हो जाता है और सत्त्वगुण को परास्त कर दिया जाता है। शारीरिक रोगों की अपेक्षा मानसिक रोगों का ठीक होना अत्यधिक कष्टप्रद, कठिन एवं काङ्गी अधिक समय लेनेवाला साबित होता है।

मनुष्य अकसर मन के ही अधीन रहता है। इसी लिए जहाँ तक हो सके हमें प्रज्ञापराध के मामले में सदैव सावधान एवं सतर्क रहना चाहिए। परन्तु चौबीस घंटे सतर्क एवं सावधान रहना यह बहुत कम लोगों के लिए संभव हो सकता है और इसी लिए इन सभी जंजालों से छूटने के लिए ही हेमाडपंत कहते हैं कि श्री साईनाथ की कथाओं का श्रवण एवं कीर्तन करते रहना, यही सबसे अधिक सरल, आसान एवं मार्ग वे हमें बताते हैं।

श्रीसाईनाथ की कथाओं का श्रवण करना और उन कथाओं का कीर्तन करना ये बातें मनुष्य को जन्म-मरण के द्वंद्व से छुड़ानेवाली हैं, यह निर्विवाद सत्य तो है ही; परन्तु इसके साथ ही हर एक जीव को प्रज्ञापराध से, रोग से, मर्यादाभंग करने से बचाकर उसे सदैव परमात्मा के देवयानपथ पर रखनेवाली हैं।

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