श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग-५९)

द्वितीय अध्याय में हेमाडपंत ने अपनी पहली शिरडी यात्रा का वर्णन किया है। इस द्वितीय अध्याय का महत्त्व यही है कि इसमें हमें हेमाडपंत एक महत्त्वपूर्ण बात बताना चाहते हैं। ‘अण्णासाहब दाभोलकर’ से लेकर ‘हेमाडपंत’ तक का उनका यह प्रवास बाबा ने उनसे कैसे करवाया, इसी बात का एक वर्णन इस अध्याय के अन्तर्गत किया गया है। पहलेवाले दाभोलकरजी और शिरडी यात्रा कर लौटनेवाले दाभोलकरजी यानी हेमाडपंत इनके बीच के फ़र्क के बारे में वे हमें बताना चाहते हैं। पहले ‘मैं’ कैसा था और ‘बाबा से हुई पहली मुलाकात में, एक ही मुलाकात में बाबा ने मुझे किस तरह बदल दिया’, इस बात का वर्णन हेमाडपंत इस अध्याय में नामकरण कथा के द्वारा कर रहे हैं।

‘प्रत्यक्ष’ में हम दो चित्रों में होने वाले फ़र्क की पहेली सुलझाते हैं। इस चित्र को देखिए और उस चित्र को देखिए और उन दोनों में रहनेवाले फ़र्क को पहचानिये, ऐसा हम कहते हैं। बिलकुल उसी प्रकार से पहलेवाला वह ‘मैं’ और बाबा से होनेवाली प्रथम मुलाकात के पश्‍चात् का यह ‘मैं’ इनके बीच के अंतर को हेमाडपंत स्वयं ही इस अध्याय के अन्तर्गत हमें बतला रहे हैं। स्वयं ही बुद्धि का अभिमान रहनेवाले, कर्म के अटल सिद्धांत के एक ही पहलू पर ही विचार करनेवाले और ‘गुरु के पास क्यों जाना चाहिए’, ‘गुरु की आवश्यकता ही क्या है’ ऐसी मनोभूमिका रहनेवाले हेमाडपंत वाद-विवाद में रुचि रखनेवाले थे। परन्तु बाबा से मुलाकात होने पर तथा विशेष तौर पर बाबा के द्वारा हेमाडपंत नाम रखे जाने पर उनके जीवन में आमूलाग्र परिवर्तन हुआ।

प्रवास

बाबा से मुलाकात होने से पहलेवाले हेमाडपंत और बाबा से मुलाकात होने के पश्‍चात् वाले हेमाडपंत इन में होनेवाला अंतर यदि एक वाक्य में कहना हो तो इस प्रकार से कह सकते हैं। पहलेवाले दाभोलकरजी हर एक मानव की तरह वे अपनी स्वयं की धारणा रखते थे और अपनी ही बात को सच मानते थे। परन्तु साई को लोटांगण करने के पश्‍चात् और हेमाडपंत नामकरण होने के पश्‍चात् वे जैसा साई चाहते थे वैसे ही बनने लगे। साई जैसा चाहते थे वैसा बनने की दिशा में उनका प्रवास तेज़ी से होने लगा। हमें इसी बात पर गौर करना चाहिए कि मैं अपने-आप को कैसा रखना चाहता हूँ इसकी अपेक्षा साई मुझे कैसा बनाना चाहते हैं इस बात पर अधिक जोर देना चाहिए और इसी के अनुसार बाबा की इच्छा को नज़र में रखते हुए, उनकी आज्ञा के अनुसार उनके बोलों को अपने आचरण में उतारकर स्वयं में उचित बदलाव करना चाहिए। क्योंकि मैं स्वयं को जो अच्छा बनाने की कोशिश करता हूँ, वह मेरी बुद्धि का और इस जन्म के मेरे अनुभवों का, विचारों का सार होता है और मनुष्य की बुद्धि और इस जन्म के अनुभवों की क्षमता कितनी हो सकती है? मेरे आज तक के पूर्वजन्म और मेरा प्रारब्ध इनके बारे में मुझे मालूम ही नहीं होता है, तो फिर उस प्रारब्ध को मात देने के लिए बाबा मुझे जैसा बनाना है वे मुझे वैसा ही बनाते हैं और मेरे लिए जो उचित है वैसा ही वे मुझे बनाते हैं। क्योंकि वे ही सब कुछ जानते हैं। इसीलिए मुझे स्वयं अपने आप को कैसा बनाना है, इससे अधिक महत्त्व इस बात का है कि साईनाथ मुझे कैसा बनाना चाहते हैं। इस बात का ध्यान रखना अधिक महत्त्वपूर्ण है।

वाद-विवाद करके अपनी बुद्धि को योग्य लगने वाले मत प्रतिपक्ष से कबूल करवाना यह पहलेवाले दाभोलकरजी की भूमिका थी। परन्तु बाबा के ‘हेमाडपंत’ नामकरण करते ही ‘यह वाद-विवाद घातक है और इसके पीछे छिपा अहंकार तो सर्वनाश करनेवाला है’, यह बात हेमाडपंत जान गये और वाद-विवाद छोडकर साई के साथ निरंतर संवाद करनेवाले हेमाडपंत बन गए। शिरडी में जाने से पहलेवाले हेमाडपंत वाद-अभिमानी थे, वहीं शिरडी से लौटते समय वे ही संवादमार्गी बन गए, निराभिमानी बन गए। शिरडी जाते समय ‘क्यों व्यर्थ ही गुरु के चक्कर में पड़ना’ ऐसा विचार रखनेवाले दाभोलकरजी ने शिरडी जाते ही प्रथम दिन ही भाटे के साथ ‘गुरु की आवश्यकता ही क्या’ इस बात पर ही विवाद खड़ा कर दिया, परन्तु ये ही दाभोलकरजी बाबा के द्वारा उनका ‘हेमाडपंत’ नामकरण किये जाते ही ‘सद्गुरु यही हर एक की सर्वोच्च ज़रूरत है, सद्गुरु के बगैर कुछ भी प्राप्त नहीं होता है’ इस दृढ़ मत के बन गए। हम उच्चार, कृति और आकृति के आधार पर, पहले वाले हेमाडपंत अर्थात अण्णा साहेब दाभोलकर तथा शिरडी मुलाकात के पश्‍चात्वाले हेमाडपंत इनसे संबंधित चर्चा करेंगे। एक ही मनुष्य के उच्चार, कृति और आकृति में ज़मीन-आसमान का अंतर, एक बहुत ही उचित परिवर्तन आ गयाहै, यह बात हम इससे जान सकेंगे। ये साईनाथ अपने भक्तों की उचित मनोभूमि कैसे बनाते हैं, उन्हें उचित दिशा, उचित मार्ग किस तरह प्रदान करते हैं, इस बात को हम इस वर्गीकरण के आधार पर समझ सकेंगे।

शिरडी मुलाकात के पूर्व के हेमाडपंत
उच्चार:
किमर्थ आपुलें स्थान सोडा।
कशासी गुरुचे मागें दौडा।
सुखाचा जीव दु:खात पाडा।
कवण्या चाडा कळेना॥
(अपना स्थान छोडकर सद्गुरु के पीछे दौडने से क्या मिलेगा?)

कृति:
प्रारब्धकर्मप्राबल्यता।
तीच साईदर्शनीं शिथिलता।
प्राप्त झाली या माझिया चित्ता।
पडला मोडता गमनांत॥
(मेरे प्रारब्ध के कारण साईनाथजी के दर्शन करने के लिए जाने में मुझसे देरी हो रही थी।)

आकृति:
आधीं हा लेखक खटयाळ।
जैसा खट्याळ तैसा वाचाळ।
तैसाचि टवाळ आणि कुटाळ।
नाहीं विटाळ ज्ञानाचा॥
नाहीं ठावा सद्गुरुमहिमा।
कुबुद्धी आणि कुतर्कप्रतिमा।
सदा निज शहाणीवेचा गरिमा।
वादकर्मां प्रवृत्त॥
(शिरडी जाने से पहले मुझ में वादविवाद करने की प्रवृत्ति थी, मुझे अपनी बुद्धि पर घमंड था, मैं सद्गुरु महिमा नहीं जानता था।)

ऐसे थे शिरडी मुलाकात से पूर्व अण्णा साहेब दाभोलकर शिरडी मुलाकात के पश्‍चात कैसे हो गए देखिए।

शिरड़ी मुलाकात पश्‍चात् के हेमाडपंत
उच्चार :
लाधलो साईचा चरण स्पर्श।
पावलों जो परामर्ष
तोचि या जीवाचा परमोत्कर्ष
नूतन आयुष्य तेथूनी॥
(साई का चरणस्पर्श होते ही मेरे नये जीवन की शुरुआत हो गयी।)

कृति:
असो ऐसे हे पूर्वोक्त लक्षण।
साईमुखोदित विलक्षण।
प्रसंगोचित सार्थ नामकरण।
तें म्यां भूषण मानिलें॥
हें ‘हेमाडपंत’ नामकरण।
प्रात:कालींचा वाद या कारण।
तेणेंचि बाबासीं हेमाडस्मरण।
मनीं मीं खूण बांधिली॥
(साई के द्वारा किया गया ‘हेमाडपंत’ यह नामकरण शिरोधार्य मानकर मैंने अहंकार, वादविवाद से दूर रहने का निर्धार कर लिया।)

आकृति:
तेथें माझी काय मात।
वादावादी करावी किमर्थ।
गुरुविण ज्ञान वा परमार्थ।
नाहीं हा शास्त्रार्थ दृढ केला॥
साईचि आपुली सुखसंपत्ती।
साईचि आपुली सुखसंवित्ती।
साईच आपुली परम निवृत्ती।
अंतिम गति श्रीसाई॥
(सद्गुरु के बिना उद्धार नहीं हो सकता, मेरा सब कुछ मेरे साईनाथजी ही हैं, यह भाव मुझ में दृढ हो गया।)

हेमाडपंत इस माध्यम से हमें यह कहना चाहते हैं कि बाबा ने मुझे इस तरह से प्रथम मुलाकात में ही बदल दिया, एक छोर से दूसरी छोर तक ले गए और साथ ही प्रथम मुलाकात में ही बगैर किसी उपदेश आदि के ही यह उचित परिवर्तन किया, फिर ये साई तुम में भी निश्‍चित ही परिवर्तन करेंगे। केवल मुझे ‘मैं ऐसा ही रहूँ’ ऐसी ज़िद छोड़कर ‘साईनाथ, आप जैसा चाहते हैं, वैसा ही मुझे बनाइए’, ऐसी हमारी भूमिका होनी चाहिए। और इस बात की हमारी तैयारी होनी चाहिए। बाबा अपना काम निश्‍चित रूप में करते ही हैं। मुझे ही अपना काम करना चाहिए, उसकी तैयारी करनी चाहिए।

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