श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ५४)

अद्भुतरस के बारे में हम अध्ययन कर रहे हैं। गेहूँ पीसने वाली इस कथा के माध्यम से श्रद्धावान इस अद्भुत रस का स्वाद कैसे ले सकते हैं। हमने यह भी देखा कि जो श्रद्धावान है, वही इसके स्वाद का आनंद ले सकता है, इस अद्भुत रस ने हेमाडपंत के जीवन को किस तरह रसमय बना दिया। बाबा की गेहूँ पीसने वाली कथा में, ‘सब्र रखने से ही बाबा की लीला का रहस्य ज्ञात होता है’, इस बात का हेमाडपंत को पता चल गया और तब इस अद्भुत रस का अनंत भंडार ही उनके अंत:करण में प्रस्फुरित हो उठा।

sainathबाबा की किसी भी लीला के आरंभ में किसी को भी इसके संबंध में पता नहीं चलता। गेहूँ पीसने वाली कथा में भी यही हुआ। परन्तु सच्चे श्रद्धावान हेमाडपंत आरंभ से ही बाबा की लीला का आनंद मन:पूर्वक उठा रहे थे। अंत में जब बाबा ने उस आटे को गाँव की सीमा पर डालने को कहा और उसी दिन से महामारी पर बंधन लग गया अर्थात उसका खतरा टल गया। तब जाकर सब को वास्तविकता का पता चल गया कि बाबा ने इस गेहूँ पीसने वाली लीला से महामारी का नाश किया। इस बात का पता चलते ही हेमाडपंत के मन में अद्भुत रस की गंगा उमड़ पड़ी। बाबा ने आटे के द्वारा महामारी का नामोनिशान मिटा दिया, इस साईलीला में रहनेवाला अद्भुत रस मन के कोने-कोने में छलछलाकर प्रवाहित होने लगा।

गेहूँ और रोग का क्या संबंध? सच में देखा जाये तो दूर-दूर तक इसका कोई संबंध नहीं है, फिर भी कार्य तो है, जो प्रत्यक्ष रूप में दिखाई दे रहा है। यह सब कुछ तर्कातीत है, कार्यकारण संबंध से परे है और इस तरह का अद्भुत कार्य मेरे साईनाथ ही कर सकते हैं। इसी साईमहिमा ने हेमाडपंत के मन को साईचरणों में सुस्थिर कर लिया और उनके मन में इस अद्भुत रस के प्रवाह के कारण ही यह विचार उत्पन्न हुआ कि इस तरह की, अद्भुत रस का परिपोष करने वाली बाबा की लीलाओं का संग्रह करना चाहिए, यह प्रेरणा उनके हृदय में प्रवाहित हो पड़ी।

देख पीसाई की लीला। आनंदविभोर हो उठा मेरा मन।
क्या  है इसमें कार्यकारणभाव। इन दोनों का ताल मेल कैसे हो॥
क्या हो सकता है यह अनुबंध। गेहूँ-रोग का क्या  संबंध।
देख अर्तक्य कारण निर्बंध। जी में आया प्रबंध लिख डालूँ ॥
क्षीरसागर में जिस तरह उठती हैं लहरें। प्रेम उमड़ पड़ा उसी तरह अंतर्मन में।
उठी चाह कि गाऊँ जी भरकर। कथा माधुरी बाबा की॥

हमारे मन में बाबा की लीला के प्रति कौतुक की भावना होना यह अच्छी बात है, परन्तु उस कौतुक का रूपांतरण बाबा की लीलाओं के अद्भुत रस का अनुभव जो हम करते हैं, उसे सिर्फ अपने तक ही न रखकर दूसरों को भी बताने में ङ्मानी गुणसंकीर्तन में हो जाना चाहिए। इससे यह अद्भुत रस हमारे अंतर में बढ़ते रहता है और इससे जीवन और भी अधिक रसमय होता है। साथ ही दूसरों के जीवन में भी यह अद्भुत रस प्रवाहित होने के लिए यह निमित्त बनते हैं, दूसरों की उनके जीवनविकास में सहायता करने का, उसे रससंपन्न बनाने का उत्तम कार्य यह करते हैं और अत एव हमें परमेश्‍वरी ऊर्जा अधिक से अधिक मिलती रहती है। हेमाडपंत साईसच्चरित में बाबा के केवल चमत्कार बताना नहीं चाहते, बल्कि उनकी लीलाओं का वर्णन भी करना चाहते हैं। चमत्कार और लीला में मूलभूत फर्क होता है वह इस अद्भुत रस का ही। कल को कोई जादू दिखाकर हवा से कुछ निकालता है अथवा मुर्गे को बकरा बना देता है, वह जादू के खेल का चमत्कार होगा, परन्तु उसमें अद्भुत ऐसा कुछ भी नहीं होगा, दर असल उसमें बस हातचालाकी होगी। ऐसे चमत्कारों से हमारे जीवन में कोई भी रस निष्पन्न नहीं होता।

इसके विपरीत साईनाथ की पूर्ण मानवी मर्यादा को ध्यान में रखकर की गई हर एक लीला अद्भुत रस की महानदी ही है। साई की हर एक लीला ने भक्तों के जीवन को रसमय बना दिया, उनका जीवनविकास किया। गेहूँ पीसने की इस साईलीला का सार यदि हम लेते हैं, तो वह है- इस लीला से बाबा ने सभी भक्तों को महामारी के संकट से मुक्त किया और साथ ही परमात्मा के सामर्थ्य  से परिचित कराकर के भक्तिमार्ग पर उन्हें दृढ़ किया। उन्हें श्रद्धा-सबूरी इन सर्वोत्तम तत्त्वों की दीक्षा दी और सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि ‘शांत रस’ प्रवाहित किया। महामारी के भय से गाँव में, हर किसी के घर में, मुख्यत: मन में जो अशांति उत्पन्न हो गई थी, उस अशांति को भी बाबा ने पूर्णत: नष्ट कर दिया और शांति प्रदान की। इस अध्याय में अद्भुत रस के साथ ही कथा के अंत में हेमाडपंत शांतरस का उल्लेख करते हैं।

गाँव में महामारी फैली थी। साई के द्वारा किये गए उपाय से।
दूर हो गयी बीमारी की दहशत। गाँव में शांति आ गई।

‘अशांति’ ही ‘महामारी’ है जो मानवजीवन को मृतवत् बना देती है। जब तक मनुष्य का मन शांत नहीं होता, तब तक उसका जीवन क्लेशमय बना रहता है और उसका जीवनरस सूख जाता है। अपने प्रारब्ध से अपाहिज़ हुआ ऐसा मनुष्य सदैव बेचैन एवं अस्थिर होने के कारण ना तो उसका कोई पुरुषार्थ सिद्ध होता है और ना ही उसे तप्ति मिलती है। इस कारण उसका जीवन दुखभरा हो जाता है। बाबा ने इस लीला के द्वारा गाँव में अर्थात हर एक मन-रूपी गाँव में शांति प्रदान की। साईनाथ ही रसराज हैं और उनकी हर एक लीला में सच्चा अद्भुत रस भरा हुआ है। ये साईनाथ ही हर मनुष्य को शांतरस प्रदान करने वाले हैं। साईभक्त सर्वथा भयमुक्त होकर अपना जीवनविकास करता है इस विश्‍वास पर कि मेरे जीवन में कोई भी अड़चन आ भी गई तब भी मेरा समर्थ साईनाथ मेरे साथ हैं और मेरा साईनाथ उस अड़चन का रूपांतरण अवसर में कर मेरे जीवनविकास को उचित दिशा प्रदान करेगा ही। यह सब होता है इस शांत रस के कारण, जो भक्त के मन में विश्‍वास बन कर दृढ़ हो चुका होता है।

भक्त के लिए सबसे श्रेष्ठ एवं महत्त्वपूर्ण शांत रस ही है, जिसका भक्त के पास होना जरूरी है और यह मेरे साईनाथ के सिवाय कोई भी मुझे नहीं दे सकता है। ज्ञानेश्‍वर महाराज कहते हैं कि बाकी के आठ रसों से जिसकी आरती उतारनी चाहिए वह है शांतरस। कहने का तात्पर्य यह है कि शांतरस के बिना जीवन आनंदित हो ही नहीं सकता। इस शांत रस के मूल स्रोत भगवान ही हैं। ‘शान्ताकारं भुजगशयनं…’ इस श्‍लोक में ‘शांताकार’ इस नाम  से महाविष्णु का वर्णन किया गया है। शांतरस जिसकी आकृति है और जो इस शांत रस की आकृति मन को देता है ऐसा ‘शांताकार’ महाविष्णु ही है। मेरे मन को शांतरस की आकृति मेरे साईनाथ ही दे सकते हैं। गेहूँ पीसने वाली कथा के माध्यम से हेमाडपंत हमें इसी सत्य से परिचित करा रहे हैं। शांतरस अर्थात् संतोष/समाधान। हमारे पास यदि सब कुछ है परन्तु संतुष्टि नहीं है तो सब कुछ होकर भी न होने के समान ही रहेगा। साईनाथ ने गेहूँ पीसने वाली लीला से मेरे मन से सिर्फ  महामारी ही नहीं बल्कि सभी प्रकार के भय को खत्म कर मुझे पूर्णत: शांत एवं समाधानी बना दिया है। अब इसके बाद महामारी क्या साक्षात् कलिकाल भी मुझ तक चलकर आये तब भी मुझे उनसे बिलकुल भी डर नहीं है। साईनाथ के कारण मेरा मन पूर्ण शांत हो चुका है। ये साईनाथ जहाँ स्वयं क्रियाशील रहते हैं वहाँ शांतरस होता ही है और जहाँ पर शांतरस रहता है वहाँ पर भय आदि के लिए कोई स्थान भला कैसे हो सकता है?

‘शांतत्व प्राप्त होता है’ इस बात का गूढ़ार्थ यह है कि ऐसा भक्त अंतर्मुख हो जाता है। अंतर्मुखता यह है महाप्राण की दिशा, ग्यारहवी दिशा। राम के प्रति अभिमुख होना यह सच्ची अंतर्मुखता जब होती है, तब वह मानव अशांत कैसे रह सकता है! यह अशान्त क्यों रहते हैं? तो हमारे बहिर्मुख होने के कारण ही। हमारा मन निरंतर बाहरी विषयों के प्रति अथवा कल्पनाओं के प्रति आसक्त होता रहता है, रामविमुख होता रहता है।  कितना भी उपाय क्यों न कर लें यह हम नहीं रोक नहीं पाते हैं। हम अपने मन को अन्तर्मुख नहीं बना पाते हैं। परंतु हम साईनाथ की कथा को बारंबार याद करते रहें, दूसरों को बताते रहें, गाते रहे, बाबा जैसे चाहते हैं उस तरह हम अपने जीवन में यदि बदलाव लाते रहें, तब अपने आप साईनाथ मेरे मन को अन्तर्मुख बनाते ही हैं। इस कथा का स्मरण करते ही मेरे साईनाथ मेरे अन्तर्मन में (द्वारकामाई में) गेहूँ पीसना आरंभ कर देते हैं और उनकी यह गेहूँ पीसने की लीला ही मेरे गाँव में (मन में) शांति प्रदान करती है, अन्तर्मुखता प्रदान करती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published.