श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-१०६

काल के भी शास्ता रहने वाले सद्गुरु श्रीसाईनाथ के चरित्र का एक भी शब्द कालबाह्य नहीं है, बल्कि वह हर एक काल में उतनी ही सच्चाई के साथ अपने स्थान पर स्थिर है और इसीलिए श्रीसाईसच्चरित का हर एक शब्द, काल की स्थिति चाहे जैसी भी हो, मग़र फिर भी वह शब्द हर एक जीव के लिए मार्गदर्शन करने वाला ही है।

बदलते हुए काल के अनुरूप मनुष्य भी बदलता रहता है। हर एक व्यक्ति यह अवश्य अनुभव करता होगा कि उसके बचपन में उसके साथ रहने वाला अन्य लोगों का आचरण और आज का आचरण, इसमें फर्क है। काल भले ही बदल क्यों न जाये, मग़र फिर भी भगवान और उनके भक्तों की भक्ति का स्वरूप कभी नहीं बदलता। समय चाहे जो भी हो, मग़र भगवान अपनी ‘अकारण कारुण्य’ एवं ‘निरपेक्ष प्रेम’ इन विशेषताओं का त्याग कभी नहीं करते। भगवान किसी भी काल में अपने पावित्र्य-अधिष्ठित सत्य, प्रेम और आनंद इन मूल्यों का त्याग कभी भी नहीं करते। चाहे द्वापार युग हो या कलियुग, अठारहवीं सदी हो अथवा इक्कीसवीं सदी हो, भगवान की हर एक जीव के प्रति अकारण करुणा रहती ही है और वे सबसे निरपेक्ष प्रेम करते ही रहते हैं। साथ ही वे सदैव सत्य, प्रेम एवं आनंद इस त्रिसूत्री के आधार पर अपना हर एक कार्य करते रहते हैं। परन्तु जो मनुष्य परमात्मा के नियमों का उल्लंघन करता है और मर्यादा का त्याग करता है, उसका न्याय भगवान निश्‍चित रूप से करते ही हैं और जिस तरह भगवान किसी भी काल में नहीं बदलते, ठीक उसी तरह उनकी भक्ति भी कभी नहीं बदलती।

श्रीसाईसच्चरित आखिर है क्या? हेमाडपंत ने श्रीसाईसच्चरित की विभिन्न भक्तों की कथाओं के माध्यम से भगवान एवं भक्ति के स्वरूप को हम सभी लोगों के लिए उजागर किया है। भक्ति और भगवान किसी भी काल में नहीं बदलते हैं, इसी लिए उसके स्वरूप को मेरे लिए उजागर करनेवाला श्रीसाईसच्चरित का हर एक शब्द भी कभी भी कालबाह्य हो ही नहीं सकता।

संक्षेप में यदि देखा जाए तो ‘भगवान कैसे हैं’, ‘उनकी भक्ति कैसे करनी चाहिए’ इस तरह के मनुष्य के मन में उठनेवाले अनेकों प्रश्‍नों के उत्तर श्रीसाईसच्चरित देता है। भगवान और भक्ति के संबंध में श्रीसाईसच्चरित मुझे मार्गदर्शन करता है यह तो ठीक है परन्तु एक और भी प्रश्‍न मन में उठ सकता है कि मुझ जैसे घर-गृहस्थी में व्यस्त रहने वाले मनुष्य को साईनाथ के इस चरित्र का क्या उपयोग है?

इस प्रश्‍न का उत्तर हेमाडपंत ने पहले ही दे रखा है और यह एक ही उदाहरण ‘श्रीसाईसच्चरित के हर एक काल में सबके लिए होनेवाले आत्यंतिक महत्त्व’ को दर्शाने के लिए काफी है।

गुरुभजना जो पाठिमोरा। तो एक अभागी पापी खरा।
भोगी जन्ममरणयेरझारा। करी मातेरा स्वार्थाचा॥

‘मुझे साईचरित्र का क्या उपयोग है’ इस प्रश्‍न का उत्तर ऊपर लिखित चार पंक्तियों में है। नरजन्म की प्राप्ति होने के बावजूद भी जो सद्गुरु का, परमात्मा का नाम नहीं लेता, वह अभागा ही रह जाता है। नामस्मरण यह गृहस्थी और पुरुषार्थ का उत्तम मेल-जोल करके मनुष्य से पुरुषार्थ करवाता है। जो लोग सद्‌गुरु का, परमात्मा का नाम नहीं लेते हैं, उन्हें इस जन्म-मरण के जंजाल में फँसकर बारंबार उलझते ही रहना पड़ता है। अर्थात मेरा वर्तमान जीवन, मेरा जन्म, मेरी मृत्यु यह हर एक बात परमात्मा की इच्छा के अनुसार न होकर कर्म के अटल सिद्धांत के अनुसार अर्थात भगवान के नियमों के अनुसार होती रहती है। और इस प्रारब्ध की जकड़ में मनुष्य एक बार यदि फँस जाता है तो मान लो कि उसने अपना हित मिट्टी में झोंक दिया। तात्पर्य यह है कि सद्गुरु साईनाथ का, परमात्मा का स्मरण, कीर्तन और उनकी कथाओं के कीर्तन का श्रवण करके मेरे प्रारब्ध के बजाय मेरे सद्‌गुरु के हाथों में मेरे सारे सूत्रों को सौंप देना और स्वयं का कल्याण करवा लेना, यही बात हमें श्रीसाईसच्चरित सिखाता है और इसीलिए हेमाडपंत पुन: एक बार कहते हैं –

मागुती जन्म मागुती मरण। हे तों लागलें नित्य भ्रमण।
म्हणूनि करूया कथाश्रवण। निजोद्धारण संपादूं॥

‘स्वयं ही स्वयं का उद्धार करवा लो’ इन भगवान के भगवद्गीता के वचनों का ही आधार लेकर हेमाडपंत हर एक जीव को ‘निजोद्धार’ अर्थात स्वयं का उद्धार करवा लो, यह कह रहे हैं।

उद्धरेत् आत्मना आत्मानम्। आत्मानं अवसादयेत्।
आत्मैव हि आत्मनो बन्धु:। आत्मैव रिपु: आत्मन:॥

और यह ‘निजोद्धार’ करना अर्थात् स्वयं का उद्धार स्वयं ही करना यह प्रक्रिया कब होती है? जब श्रीसाईसच्चरित जैसे ग्रंथ का श्रवण-वाचन-मनन मनुष्य करता है और केवल उस ग्रंथ का ही श्रवण-वाचन-मनन करके रुकता नहीं है, बल्कि उस ग्रंथ में कहेनुसार तत्त्वों को अपनाता है, ग्रन्थ में होनेवाले मूल्यों को अपने जीवन में उतारता है, तब। जैसे ही मनुष्य इस दिशा में प्रयास करना शुरू करता है, वैसे ही उसका भगवान के देवयान पथ पर से आगे बढ़ना शुरू हो जाता है।

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