श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-१०८

एवं च पावन साईचरित्र। वाची तयाचें पावन वक्त्र।
श्रोतयांचे पावन श्रोत्र। होईल पवित्र अंतरंग॥

साईसच्चरित के वाचन एवं श्रवण से मनुष्य का वक्त्र एवं श्रोत किस तरह से पावन बनते हैं यह तो हमने देख लिया; परन्तु इसके साथ ही और एक बात हेमाडपंत बता रहे हैं कि इससे अंतरंग पवित्र होगा। अंतरंग इस शब्द का सरल अर्थ है – मनुष्य का आभ्यंतर अंग अर्थात् न दिखाई देनेवाला मन। संक्षेप में देखा जाए तो मनुष्य का अंतरंग यानी अंत:करण।

अकसर हम देखते हैं कि मनुष्य बाहर से कुछ और दिखाई देता है और उसके अंत:करण में अलग भाव होता है। तात्पर्य यह है कि उसका अंत:करण एवं बाह्यरंग भिन्न-भिन्न होते हैं। अर्थात दिखाई देने में सीधा-सादा लगनेवाला मनुष्य कभी-कभी धूर्त एवं कपटी भी हो सकता है। बाह्यरंग जैसा होता है, वैसा ही अंतरंग भी होना जरूरी नहीं है।

साईनाथ के कथा का श्रवण एवं वाचन करने से अंतरंग भी पवित्र होता है अर्थात् अन्त:करण की शुद्धि होती है, ऐसे हेमाडपंत कहते हैं।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईकोई भी चीज़ मिट्टी में गिर जाने पर वह खराब हो जाती है और उसे पानी से धो देने पर वह साफ भी हो जाती है। किसी वस्तु पर लगी मिट्टी को साफ करने के लिए उसे जल से धोना यह सीधी एवं आसान शुद्धि की क्रिया है। इस प्रकार की शुद्धि हम बाह्य इंद्रियों की कर सकते हैं। हाथ या पैर में मिट्टी लग जाने पर साबुन-पानी से हाथ-पैर धो देने से साफ हो जाते हैं। यह तो हुई बाह्य अंग की शुद्धि। परन्तु जो अंग अर्थात् अंतरंग दिखाई ही नहीं देता है, उसकी शुद्धि साबुन-पानी से कैसे हो सकती है? इसकी शुद्धि के लिए हेमाडपंत के द्वारा बताया गया उपाय ही सरल, सहज एवं सुन्दर है।

मनुष्य का अंतरंग अर्थात् उसका मन यही मानव की हर एक क्रिया को करवाता है। मन दिखाई तो नहीं देता, फिर उसे स्वच्छ कैसे करेंगे? मन का अस्तित्व मनुष्य की ओर से की जानेवाली क्रिया से पहचाना जाता हैं। जब मनुष्य अनुचित क्रिया करता है, उस वक्त उसके मन की अवस्था अयोग्य है, यह हम जान सकते हैं।

तो फिर साईनाथ की कथाओं का श्रवण एवं कीर्तन यह मन को शुद्ध करने का और उचित मार्ग पर ले आने का उपाय कैसे हो सकता है?

हेमाडपंत निरंतर हमसे कहते रहे हैं कि श्रीसाईनाथ की कथाओं का श्रवण, कीर्तन बारंबार नियमित रूप में करते रहो और यही बारंबार एवं नियमित रूप से की जानेवाली क्रिया ही अंतरंग को पवित्र करती है।

क्योंकि जब इसी तरह की कोई बात हम बारंबार और नियमित रूप में करते हैं, तब उस कार्य की आदत पड़ जाती है। हम बिलकुल सादा सा उदाहरण लेते हैं। हम ट्रेन में लिखी यह सूचना बारंबार पढ़ते हैं कि चलती ट्रेन में चढ़ना मना है, अनेक बार हम अनाऊन्समेन्ट सुनते हैं, परिणाम यह होता है कि हम अपने-आप ही चलती गाड़ी में चढ़ना टाल देते हैं और धीरे-धीरे वह हमारी आदत बन जाती है और यदि कभी मन में चलती ट्रेन में चढ़ने का विचार आ भी गया तब भी बुद्धि उसे डाँटकर उसे उसकी आदत का स्मरण करवाती है और उससे उचित कृति करवाती है।

साईसच्चरित बारंबार एवं नियमानुसार पठन करने से, श्रवण करने से भले ही धीरे-धीरे ही क्यों न हो उसके मूल्य हमारी कृति में उतरने लगते हैं। और फिर साई के द्वारा बताये गए मूल्य ये केवल साईसच्चरित में ही न रहकर वह हमारी सहज-प्रवृत्ति बन जाते हैं। जब भी जब हमारा यह चंचल मन उचित मार्ग छोड़ने की कोशिश करता है, ऐसे में बुद्धि बलपूर्वक उसे उचित मार्ग पर ले ही आती है। जी हाँ, चलते ट्रेन में न चढ़ने वाले उदाहरण के समान ही यह सब कुछ होता रहता है।

और मानवी अंतरंग की शुद्धि का अर्थ है – मन:पूर्वक उचित एवं मर्यादापूर्ण कृति करना।

इसी लिए मन को मर्यादामार्ग पर एवं उचित मार्ग पर रखने के लिए पठन एवं श्रवण बारंबार एवं नियमित रूप से करते रहना अति आवश्यक है, क्योंकि इसी पद्धति के अनुसार किया गया मन का आचरण यही मन की अर्थात अंत:करण की शुद्धि करता है।

मन जब दिखाई नहीं देता, फिर उसकी शुद्धि कैसे होगी, इस प्रश्‍न को हर एक मनुष्य के लिए स्वयं परमात्मा ही सुलझाते रहते हैं, क्योंकि मनुष्य चाहे कितना भी क्यों न कहे, मगर फिर भी स्वयं के मन को नियंत्रित करना यह कोई आसान काम नहीं है। लेकिन जब उसकी इस कृति को अर्थात् मन को नियंत्रित करने की कृति को भगवान का अधिष्ठान प्राप्त होता है, तब यह क्रिया सहज एवं सुलभ हो जाती है। और एक बार यदि मानव का मन उसके नियंत्रण में रहने लगता है तो मान लो वह मर्यादामार्ग का प्रवासी बन गया है और उसका अंतरंग भी शुद्ध हो चुका होता है।

इन सभी कृतियों में एक महत्त्वपूर्ण बात भूलकर नहीं चलनेवाला है और हेमाडपंत हमें उसी की याद दिला रहे हैं।

प्रेमें करितां कथाश्रवण। होईल भवदु:खांचें हरण।
ओळेल साई कृपाघन। प्रकटेल संपूर्ण शुद्धबोध॥
(प्रेमपूर्वक करने से कथाश्रवण। होगा भवदुखों का हरण।
बरसेगा श्रीसाई कृपाघन। प्रकट होगा संपूर्ण शुद्धबोध॥)

श्रवण और पठन करते समय इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि श्रवण एवं पठन मानव को प्रेमपूर्वक, सच्चे दिल से करना चाहिए।

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