श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ३३)

किसी सुबह एक दिन । बाबा ने किया दंतधावन ।
करके मुखप्रक्षालन । करने लगे गेहूँ की महीन पीसाई ॥

Saibaba_Dalan

स्वयं के आचरण से साईनाथ हमें उचित आचरण का मार्गदर्शन किस प्रकार कर रहे हैं, इस बात का अध्ययन हम कर रहे हैं । गेहूँ पीसने की क्रिया का आरंभ करने से पहले बाबा ने सुबह जल्दी उठकर दाँतौन किया, मुँह धोया इन सब बातों का उल्लेख हेमाडपंत बिलकुल सुस्पष्ट रूप में कर रहे हैं । हेमाडपंत कहते हैं- सुबह होते ही, दाँत साफ़ करके मुँह धोकर फिर इसके पश्चात् ही उन्होंने गेहू का महीन आटा पीसना आरंभ किया। यह सब करके बाबा हमें ‘समय की पाबंदी’ का महत्त्व सिखा रहे हैं । इस बात का उल्लेख हेमाडपंत इसीलिए कर रहे हैं ताकि हम इससे सीख लेकर उसके अनुसार आचरण कर सके ।

जिस तरह सुबह समय पर उठने के लिए सोने से पहले घडी में अलार्म लगाना पड़ता है, उसी तरह रात्रि समय में निद्रादेवी के आगोश में जाते जाते साईराम का नाम लेते रहने से सुबह ये साईराम ही हमें जगाते हैं और अपने आप साईनाम के साथ अथवा साईस्मरण में ही नींद खुलती है । श्रीमद्पुरुषार्थ प्रथम खंड ‘सत्यप्रवेश’ में इस बात का उल्लेख किया गया है । आगे चलकर हेमाडपंत साईसच्चरित में अपने स्वयं के रामनाम के अनुभव के बारे में बताते समय इसी तत्त्व को स्पष्ट करते हैं । जीवन के प्रत्येक अंग में ‘नियोजन करना’ सबसे महत्त्वपूर्ण होता है और ‘समय का नियोजन करना’ यह हर एक मनुष्य के लिए गृहस्थी एवं परमार्थ में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।

साथ ही इस कथा की उन चारों स्त्रियों के आचरण से हम ने यह भी सीखा कि जब बाबा किसी कार्य को करना शुरू करते हैं, तब सबसे पहले बाबा के कार्य को प्राथमिकता देनी चाहिए । यह भी नियोजन का ही एक हिस्सा है यानी साई पीसने बैठे हैं इस बात का पता चलते ही दौड़कर वहाँ पहुँचकर उनके कार्य में हमें सहभागी होना चाहिए । ऐसे समय में पूर्व नियोजित कार्य के चक्कर में न पड़ते हुए बाबा के कार्य को प्राथमिकता देनी चाहिए । यह भी नियोजन का ही एक हिस्सा है।

साई पीसने बैठे हैं इस बात का पता चलते ही दौड़कर वहाँ पहुँचकर उनके कार्य में सहभागी होनेवाली वे श्रद्धावान महिलाएँ हमें यही सीख देती हैं । ऐसे समय में वे पूर्वनियोजित कार्य के चक्कर में न पड़ते हुए बाबा के उस पीसाई के कार्य में सहभागी होना अधिक महत्त्वपूर्ण है यह उनका सप्रेम सहज निर्धार है, क्योंकि वे जानती हैं कि साईनाथ के कार्य में सम्मिलित होना यही उस समय की हमारी सबसे बडी ज़रूरत होती है ।

साथ ही इस पीसाई का काम पूरा होते ही मुझे अपने पूर्वनियोजित काम को पूरा करना चाहिए और इसके लिए मुझे समयसारिणी (टाईमटेबल) निश्चित करनी चाहिए । मेरे द्वारा नियोजित किया गया काम नहीं, बल्कि साईनाथ के द्वारा नियोजित किया गया काम ही इस वक्त की सबसे बडी ज़रूरत है, इस बात का ध्यान भी रखना चाहिए । क्योंकि यदि महामारी आती है तो जहाँ मैं ही नहीं बचूँगा, मेरी ही स्थिति बिकट हो जायेगी, वहाँ मेरे द्वारा नियोजित किया गया काम क्या मैं खाक करूँगा?

इसीलिए नियोजन करते समय ‘आपात्कालीन स्थिति में पहले क्या करना चाहिए’ इस बात की तैयारी हमेशा होनी ही चाहिए । ए. ए. डी. एम. का अभ्यासक्रम सीखकर हमें आपत्ति का मुकाबला कैसे करना चाहिए, उस समय की योजना कैसी होनी चाहिए इस बात का ध्यान रखकर और साथ ही ये साईनाथ जब स्वयं पीसने बैठे हैं, तब सारे पूर्व नियोजित काम काज छोड़कर उस समय बाबा के कार्य को प्रमुखता देना इस बात का नियोजन सदैव मन में जागृत रखना चाहिए ।

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात है, जो बाबा के आचरण से हमें सीखनी चाहिए, वह है- एक काम करते समय दूसरे काम के प्रति अनदेखा नहीं करना चाहिए । एक काम करते समय यदि दूसरा काम उससे संबंधित नहीं भी है, फिर  भी मुझसे संबंधित रहनेवालीं अन्य बातों के मामले में भी सतर्क रहना ज़रूरी होता है । पीसाई का काम हाथ से करनेवाला काम है, इस में मुँह का कोई संबंध नहीं है, इसीलिए दाँत साफ़ करना, मुँह धोना इन सभी जाति ज़िंदगी के संदर्भ में रहनेवाले कामों की तरफ ध्यान न देकर, उसे पूरा न करते हुए पीसाई के काम में लग जाना उचित नहीं है, परन्तु मेरे साथ तो उसका संबंध है ही और शारीरिक स्वच्छता रखने के लिए मनुष्य को दाँत साफ़ करना, मुँह धोना आदि क्रियाओं के प्रति अनदेखा करना अनुचित है, इसे पूरा करके ही मुझे पीसाई का काम करना चाहिए ।

बाबा के पूर्णत: मानवी स्तर पर होनेवाले इस आचरण से हम यही सीखते हैं कि एक कार्य करते समय मुझसे संबंधित रहनेवाली अन्य बातों का ध्यान भी मुझे रखना चाहिए । हमें यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात बाबा यहाँ पर सिखाते हैं । हम भक्ति करते हैं, सेवा करते हैं, फिर  हमें अपनी बाहरी वेशभूषा के प्रति, ठीक-ठाक से रहने के प्रति विचार करने की क्या आवश्यकता है? बाह्य वेशभूषा का, रोबदार रहने का, अच्छी तरह से रहने का भक्ति के साथ, सेवा के साथ भला क्या संबंध है? इसलिए हम कैसे भी रहें, मस्त-मौला बनकर रहें, क्या फर्क पडता है?  ऐसा कोई कहेगा तो वह उचित नहीं है ।

ऐसी सोच रखकर भक्ति-सेवा करते हुए अपनी वेशभूषा, रहन-सहन के प्रति अनदेखा करके यूँही पडे रहना सर्वथा अनुचित है । हम भक्ति करते हैं इसीलिए कैसे भी कपडे पहने लिये, कैसे भी रहें यह कहना मुनासिब नहीं है । भक्ति का बाह्य परिवेश के साथ भले ही संबंध न हो, मगर फिर  भी हम गृहस्थाश्रमी होने के कारण हमारा समाज में अनेक स्थानों पर आना-जाना रहता है और इसी कारण सामाजिक सभ्यता, शिष्टाचार आदि का ध्यान रखना भी ज़रूरी होता है ।

हम यदि व्यवस्थित रूप में अच्छी वेशभूषा कर के, अच्छी तरह से रहते हैं तब ही हमारा सामाजिक स्थान भी अच्छा ही रहेगा । अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार साज-सज्जा, वस्त्र परिधान आदि करना आवश्यक होता है । हमारे पास जो भी हो, वह साफ़-सुथरा, ढंगपूर्वक हो और अपनी सभ्यता, मर्यादा के अनुसार ही हो । हम यदि गरीब भी हैं, तब भी फटीचरों की तरह भी नहीं रहना चाहिए । कम से कम हमारे कपडे अस्त-व्यस्त, गंदे, फटे हाल तो नहीं होने चाहिए । हमें व्यवस्थित रहकर, समाज में स्वाभिमान के साथ रहना चाहिए । भक्त होने के कारण, कैसे भी रहे तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, इस गलत धारणा को छोड़ देना चाहिए । भक्ति करते हैं इसलिए अपने जाति जीवन के प्रति उदासीनता दिखाना गलत है ।

गेहूँ पीसना यह हाथ का काम है, फिर  भी शारीरिक स्वच्छता की ओर ध्यान देना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, यह जैसे हमने बाबा के आचरण से सीखा, उसी तरह भक्ति करते समय व्यवस्थित, साफ़-सुथरा, ढंगपूर्ण वेशभूषा में रहना इन बातों को अनदेखा करने के बजाय बारीकी से इन सब बातों का भी पालन करना चाहिए ।

हम भक्त हैं इसलिए कैसे भी फटीचरों की तरह घूमते रहें और लोगों की नज़रों में हँसी-मजाक का विषय बनते रहें तो यह बिलकुल भी उचित नहीं होगा । हमें ज़रूरत से ज़्यादा ऊँचे-ऊँचे दिखावा करनेवाले पोशाखों की भी ज़रूरत नहीं है और सभी प्रकार के सुन्दरता प्रसाधनों का उपयोग करने की ज़रूरत नहीं है, ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ इस बात का ध्यान हमें रखना चाहिए। क्योंकि ‘वाहवा ! दूल्हे जैसे लग रहे हो।’ यह कहकर बाबा ने दासगणूजी को अनावश्यक वेश का त्याग करने का इशारा दिया और साथ ही नारदीय पद्धति के अनुसार आवश्यक परन्तु ढंगपूर्वक व्यवस्थित पोशाख धारण करने का निर्देश भी। कीर्तन के लिए जितना ज़रूरी होता है उतना ही पोशाख व्यवस्थित ढंग से पहनना चाहिए, यह मार्गदर्शन साईनाथजी ने किया । बिलकुल मस्त-मौला भी नहीं रहना चाहिए और ना ही ज़रूरत से ज्यादा सजधज करनी चाहिए । यही बाबा को वहाँ पर बताना है । उसी तरह इस प्रथम अध्याय में मुखप्रक्षालन – दंतधावन करके गेहूँ पीसने के लिए बैठनेवाले बाबा हम गृहस्थाश्रमियों को सभी तरह से हर मामले में दक्ष रहने को कहते हैं । हम भक्ति-सेवा में तो दक्ष रहते ही हैं । परन्तु साथ ही कपडे़, वेशभूषा आदि के मामले में भी दक्ष रहकर हमें समाज में अपनी पहचान बनाकर रखनी चाहिए, यह इशारा भी देते हैं । इससे हमारी गृहस्थी और परमार्थ दोनों भी उत्तम होंगे और समाज में हम उपहास का विषय भी नहीं बनेंगे।

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