श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग १५) उद्धरेत् आत्मना आत्मानम्

महामारी का निर्दलन करने में साईनाथजी तो समर्थ हैं ही, मुद्दा यह है कि मुझे इस कथा से क्या सीखना चाहिए? मुझे यह सीखना चाहिए कि मन के सारे संकल्प-विकल्प छोडकर यह मेरा साईनाथ ही सत्य संकल्पप्रभु है, इस दृढ़ विश्वास के साथ साईबाबा के कार्य में अपनी पूर्ण क्षमता के अनुसार मुझे शामिल हो जाना चाहिए। साई के प्रेम में, साईलीला का गान करते हुए, साई का नाम लेते हुए, उपासना करते-करते हाथों से सेवा भी करते रहना चाहिए। यह कार्य करते समय यदि मेरे हाथों से कोई गलती हो भी जाती है, तब भी मेरे ये साईनाथ उसी समय मुझे सद्बुद्धी देते हैं, इस बात का भरोसा मन में रखकर अपना कार्य करते रहना चाहिए। बाबा क्रोधित होते हैं, तो वे मुझपर क्रोधित नहीं होते, बल्कि वे इस क्रोध को धारण कर वे मेरे अन्दर के अनुचित का नाश कर रहे हैं। इस बात का पूरा ध्यान हमें रखना चाहिए।

Saibaba

साई के ‘सत्यसंकल्प’ के कारण जिस तरह महामारी का उच्चाटन हुआ, उसी तरह श्रीसाईसच्चरित का लेखन करने की प्रेरणा भी हेमाडपंत के मन में प्रकट हुई इस बात अध्ययन हमने किया। साईसच्चरित के प्रथम अध्याय में इसीलिए हेमाडपंतने यह गेहूँ पीसनेवाली कथा प्रतिपादित की है, जिसके माध्यम से उन्होंने साई के ‘सत्यसंकल्प’स्वरूप को दर्शाया है, साई का ही संकल्प सत्य साबित होता है, वही अमोघ कार्यकारी है और इसी लिए मुझे अपने जीवन में अन्य सभी बातों को छोड़कर मेरे इस साईनाथ को ही अपने जीवन में क्रियाशील होने देना चाहिए, जिससे कि मेरे जीवन में भी सत्य, प्रेम, आनंद एवं पावित्र्य प्रवाहित होगा।

साई का ‘सत्यसंकल्प’स्वरूप ही मेरे सारे विकल्पों को नष्ट करके ‘मुझे सिर्फ मेरे इस साई का ही होकर रहना है’ यह निश्चय प्रदान करनेवाला है। ‘विकल्प’ ही महामारी है, जिसे यह प्रथम अध्याय की कथा समूल विच्छेदित करती है। साई की यह ‘अद्भुत’ लीला सुनते ही सच्चे भक्त के मन के सारे विकल्प अपने आप ही संपूर्णत: नष्ट हो जाते हैं और साई का ही होकर रहने का निश्चय जोर पकड़ने लगता है।

यह प्रथम अध्याय ही अंधकार का रूपांतरण प्रकाश में करता है। विकल्पों के कारण ही मैं इस प्रेममय सूर्य से दूर चला जाता हूँ, राम से विमुख होते ही संदेह (संशय) के घने अंधकार में राह भटक जाती है और असत्यरूपी तम के साम्राज्य में मैं स्वयं अपनी ही अधोगति कर लेता हूँ। इस साईसूर्यनारायण के सत्य का प्रकाश सदैव हर किसी को प्रकाशमान करेगा ही, परन्तु मैं ही यदि विकल्पों के कारण गलत दिशा में भटकते रहूँगा, तो मैं ही अपनी अनुचित कृति के कारण इस सत्यप्रकाश से स्वयं को वंचित कर लेता हूँ। असत्य ही वह बैरी है, जिसे साईनाथ जॉंते में रगड़ रहे हैं और सत्य के प्रकाश को अपने भक्तों के जीवन में फैला रहे हैं। स्वच्छ शुभ्र धवल रंग का यह आटा ही प्रकाश का रूपक है।

बाबा का क्रोध यह केवल अनुराग हेतु ही है, इस सच्चाई का पता हेमाडपंत हमें इस कथा के माध्यम से बताते हैं और इसीलिए साईनाथ जो कुछ भी कहते हैं, उसी के अनुसार आचरण करना ज़रूरी है, क्योंकि उसी के अनुसार बाबा मेरी गलतियों को सुधार लेते हैं और मेरे प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं।

सिर्फ़ यह कथा ही नहीं, बल्कि साईनाथजी की हर एक कथा पढ़ते समय मु़झे स्वयं को क्या करना चाहिए, इस बात का बोध ग्रहण करना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है और इसके लिए ‘उस कथा का साईनाथ के पास आया हुआ या संबंधित पात्र मैं ही हूँ’ इस भूमिका में उतरकर उसके अनुसार कथा का भावार्थ समझना ज़रूरी है। यदि मैं उस समय इस घटना के स्थान पर होता, तो क्या करता, इस बात का विचार करना चाहिए। इन कथाओं का चिंतन करना भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और उस समय ‘मैं’ यदि यह घटना घटित होते समय वहॉं पर होता तो मुझे क्या करना चाहिए था और क्या नहीं करना चाहिए था, इस बात का चिंतन भी अनिवार्य है।

मेरे ‘अहंकार’ को बाबा के चरणों में छोड़ देने के लिए इस हर एक कथा में इस ‘मैं’ पन को खत्म करना चाहिए। मुझे उस कथा का हर एक पात्र बनकर उस कथा में प्रवेश करना चाहिए और साथ ही मुझे अपनी भूमिका के (पात्र के) अनुसार उस कथा में प्रवेश कर मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं इस बात का भली भॉंति विचार कर अपने आप में बदलाव लाना चाहिए। इस चिंतन के द्वारा ही मेरे अंदर का अहंकारी ‘मैं’ पन साई चरणों में पूर्ण विराम लेकर शुद्ध होकर इस साईनाथ का दास के रूप में रहनेवाला सच्चा ‘मैं’ सक्रिय हो जाता हूँ। उदाहरण के तौर पर इसी कथा में मेरे इस ‘मैं’ को किस प्रकार बदलना है, यह हम देखेंगे। हर कोई अपनी पद्धति से चिन्तन करके इस ‘मैं’ को बदल सकता है। हर किसी का अपने आप को बदलने का तरीका और उसके लिए लगनेवाला समय अलग-अलग भी हो सकता है, परन्तु ‘मैं’ को बदलने की दिशा साईकथाओं का मनन, चिन्तन, निदिध्यास एवं उचित परिवर्तनसहित आचरण यही होगा और ‘मैं’ को बदलने का स्थान एकमात्र ‘साईचरण’ ही है।

इस कथा में इस ‘मैं’ को हम किस तरह बदल सकते हैं, इसका एक उदाहरण यहॉं पर देखेंगे। फिर हमारे लिए इस कथा का स्वरूप और भी अधिक स्पष्ट हो जायेगा। हम साई की इस गेहूँ पीसनेवाली लीला का चिन्तन-मनन करते-करते ‘मैं यदि उस समय द्वारकामाई में होता तो मेरा व्यवहार कैसा रहा होता’ इस बात की चर्चा करेंगे।

सर्वप्रथम मैं शिरडी में यदि होता भी, तब भी क्या मैं बाबा को सद्गुरु का सम्मान दे पाता? या यह सोचता कि ‘यह कोई सरफिरा फकीर है’। क्या ऐसा माननेवालों के साथ मैं होता? यहॉं पर मुझे सर्वप्रथम इस बात का विचार करना चाहिए कि मेरे लिए इस साईनाथ के द्वारा दिखाये गए भक्ति मार्ग पर ही चलना उचित है, यदि मुझे अपनी स्वयं की प्रगति करनी है तो।

मैं बाबा को माननेवालों में से एक होता और मुझे पता चलता कि बाबा गेहूँ पीसने बैठे हैं, तो क्या इस बात का पता चलते ही मैं दौड़ते-भागते बाबा के प्रेम में बँधा बाबा का कष्ट कम करने के लिए उनके कार्य सहभागी होने के लिए द्वारकामाई में जाता? बाबा गेहूँ पीसने बैठे हैं, यह जानने पर, ‘पीसने बैठे हैं तो पीसने दो, इससे मुझे क्या’ ऐसा विचार करके क्या मैं निष्क्रिय बना रहता? यदि द्वारकामाई में जाता भी तो दूसरे देखनेवालों की भीड़ में मैं भी एक दर्शक बनकर मूक खडा ही रहता या हेमाडपंत की तरह साईलीला का यह अद्भुत दृश्य निहारते हुए साईचरणों में अपने विश्वास को और भी अधिक दृढतर बना लेता?

बाबा को गेहूँ पीसते देख मेरे मन में कैसे-कैसे विचार उठते? बाबा गेहूँ क्यों पीस रहे हैं? इस आटे का वे क्या करेंगे? बाबा व्यर्थ ही सुबह-सुबह क्यों पीसने बैठे हैं? आश्चर्य, कौतुहल, शंका-कुशंका, जिज्ञासा, प्रश्न, विकल्प इनमें से विशेषकर कौन सा विचार मेरे मन में उठता? उन चारों स्त्रियों के साथ बाबा को लड़ते देख मेरे मन में क्या विचार उठता? फिर बाबा के हाथों से खूंटा खींचकर गेहूँ पीसते हुए वे जब बाबा के गीत गाने लगीं, तब बाबा मुस्कुराने पर मेरे मन में क्या विचार उठता? क्या मैं उनका हाथ बँटाता? यदि मैं उनका हाथ न भी बँटा पाता, तब भी जब वे बाबा के गीत गा रही थीं, तब मुझे भी उनके पीछे-पीछे गुनगुनाना चाहिए, ऐसा क्या मुझे लगता? मुझे भी आगे बढ़कर गेहूँ पीस रही मेरी उन बहनों का हाथ बँटाना चाहिए, यह विचार क्या मेरे मन में आता? मान लीजिए कि उस समय पुरुष होने के कारण क्या गेहूँ पीसने में मुझे शर्म आती? परन्तु बाबा स्वयं गेहूँ पीस रहे हैं, यह देखने पर उन चारों औरतों के आने से पहले मैं ही आगे क्यों नहीं बढ़ गया?

उन चार स्त्रियों की तरह क्या मैं भी उस आटे में अपने हिस्से की कल्पना करनेवाला होता? बाबा से खूंटा खींच लेने पर बाबा जब गुस्सा कर रहे थे, तब वे बाबा से बिना डरे अपना कार्य करती रहीं, परन्तु आटे का हिस्सा करने पर जब बाबा गुस्सा हो गये, तब उन औरतों ने चुपचाप उनकी बात मान ली। अपनी गलती को सुधारने की, उसका स्वीकार करने की ऐसी तत्परता क्या मुझ में है? ‘बाबा, इतनी मेहनत करके गेहूँ हमने पीसा, फिर अब यह आटा बेकार में गॉंव की सीमा पर क्यों डाल दें?’ इन औरतों ने तो ऐसा कुछ भी नहीं पूछा। क्या मैंने ऐसा पूछ लिया होता?

बाबा को ‘आटा गॉंव की सीमा पर डालने की’ आज्ञा देते देख मेरे मन में कैसे विचार उठे होते? बाबा आटे को बेकार में क्यों फेंकना चाहते हैं? स्वयं की और साथ ही उन औरतों की मेहनत वे क्यों बेकार कर रहे हैं? क्या ऐसा विचार मेरे मन में आया होता? और गॉंववाले कहते हैं कि आटे से बाबा ने महामारी को प्रतिबंधित किया, जड़-मूल सहित उसे दूर कर दिया। इन गॉंववालों की बातों पर क्या मुझे विश्वास हुआ होता? आटे से महामारी कैसे दूर हो सकती है? बाबा के सामर्थ्य पर क्या मैं भरोसा करता?

हकीकत में इस लीला का मेरे मन पर क्या प्रभाव पड़ता? यह सिर्फ़ एक संजोग या इत्तफाक है या चत्मकार? मुझे हेमाडपंत की तरह ‘यह साई का सत्यसंकल्प है’ यह मानकर क्या बाबा के चरणों में पूर्णत: निष्ठावान बनना आया होता? मुझे इस सभी प्रश्नों के उत्तर स्वयं ही पारदर्शक रूप में ढूँढ़ने चाहिए। तब ही मैं जान पाऊँगा कि फिलहाल मैं उचित रूप में कैसा और कहॉं पर हूँ और मुझ में क्या अनुचित है और उचित आचरण करने के लिए मुझे क्या करना होगा। ‘अपना ही संवाद अपने ही साथ’ यही तो इसका मर्म है। ‘उद्धरेत आत्मना आत्मानम्’ यही तो हमें करना होता है। हम सभी को अपने-अपने चिन्तन के द्वारा इस सच्चाई को खोजना होता है।

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