श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग १४) साईसच्चरित-नदी का उद्गम

हेमाडपंतजी कहते हैं कि यह गेहूँ पीसने की लीला बाबा ने मेरे जीवन में घटित कर इस साईसच्चरित को प्रकट करवाया। मेरे जीवन में बाबा ने जॉंते के दोनों पत्थरों को सक्रिय कर दिया, नीचेवाला पत्थर यानी श्रद्धा और ऊपरवाला पत्थर यानी सबूरी इन दोनों को सदैव कार्यरत करनेवाले मेरे बाबा ही हैं। इन पत्थरों के द्वारा पीसा जा सके इसलिए जॉंते के खूंटे को ठोककर मज़बूत करनेवाले भी मेरे बाबा ही हैं| ‘अनन्यता’ का प्रतीक रहने वाला यह खूंटा बाबा ने ही ठोक ठोककर मज़बूत किया और मेरे जीवन में बाबा की गेहूँ पीसने की लीला शुरू हो गई।

sai baba

हमने इस ‘सहजसिद्ध’ ‘सत्यसंकल्पप्रभु’ साईनाथ के ‘सहज’ गुणों का अध्ययन किया और साथ ही सिर्फ़ साईनाथ के ही संकल्प सत्य होते हैं, इस बात का भी अध्ययन किया। अनन्यसत्यस्वरूप महाशेष जिनके आधार एवं छत्र हैं अर्थात ‘सत्य’ यही जिनका निवास सदा-सर्वदा रहता है, ऐसे ये परमात्मा ही ‘सत्यसंकल्पप्रभु’ हैं। गेहूँ पीसनेवाली लीला में गेहूँ के आटे में महामारी जैसी भयंकर बीमारी को नष्ट करने की शक्ति आ जाने के पीछे साईनाथ का सत्यसंकल्प ही है, इस बात को हमें समझना चाहिए|

हेमाडपंत भी यहॉं पर हमें यही बताते हैं कि गेहूँ और बीमारी का क्या संबंध? इस गेहूँ के आटे से महामारी का विनाश होनेवाली घटना के ‘कार्यकारणभाव’ के बारे में कैसे सोचा जा सकता है? परन्तु हेमाडपंत पूरे विश्वास के साथ यह भी बताते हैं कि इस गेहूँ के आटे से ही यह महामारी नष्ट हुई, इसी सत्य का मैंने अनुभव किया है। इस तरह हेमाडपंत हमें बाबा के ‘सत्यसंकल्पप्रभु’ स्वरूप के बारे में बताना चाहते हैं|

हेमाडपंत ने गेहूँ पीसने की कथा का सर्वप्रथम अध्याय में वर्णन करके हमें यह बताया है कि इस कथा के माध्यम से ही साईसच्चरित का लेखन करने की इच्छा का ‘उद्भव’ हुआ है। हेमाडपंत इसी कथा के माध्यम से बाबा का ‘सत्यसंकल्पप्रभु’ यह स्वरूप भी हमें बताना चाहते हैं| गेहूँ पीसनेवाली लीला में जिस तरह साईनाथ का ‘सत्यसंकल्प’ ही कार्यकारी हुआ है, उसी तरह इस साईसच्चरित के लेखन का संकल्प भी साईनाथ का ही होने के कारण इस साईसच्चरित के प्रकटन के पीछे भी साई की ही अद्भुत लीला है। हेमाडपंत के मन में यही दृढ भाव है कि इस श्रीसाईसच्चरित का संकल्प मेरा न होकर साक्षात् मेरे इस परमात्मा का ही है, इस साईनाथ का ही है और इसीलिए तो वह सत्य में साकार हुआ है। साईसच्चरित लेखन की इच्छा मेरे मन में उत्पन्न हो इस में भी साई के सत्यसंकल्प का ही हाथ है, बाबा के सत्यसंकल्प से ही मेरे मन में यह इच्छा अंकुरित हुई है।

हेमाडपंत श्रीसाईसच्चरित के प्रथम अध्याय में ही साफ़ साफ़ लिखते हैं- ‘श्रीसाईसच्चरित’ यह मेरे साईनाथ का ही ‘सत्यसंकल्प’ है। इस हेमाडपंत से यह साईसच्चरित कैसे लिखा गया? मुझ जैसे पामर के हाथों यह अद्भुत कार्य कैसे घटित हुआ? हेमाडपंत स्वयं ही स्वयं से यह प्रश्‍न पूछकर कह रहे हैं कि सचमुच मेरे हाथों श्रीसाईसच्चरित विरचित हो इसके पीछे होनेवाले कार्यकारणसंबंध को भला मैं कैसे जानूँ?

प्रथम अध्याय की इस कथा के साथ ५२वें अध्याय में अर्थात हेमाडपंत द्वारा लिखित अंतिम अध्याय में हेमाडपंत का जो भाव है, उसे जोडकर देखा जाये, तो हेमाडपंत साई के सत्यसंकल्पप्रभु स्वरूप के बारे में हमें जो बताना चाहते हैं, वह सुस्पष्ट हो जाता है। हेमाडपंत के ५२ वे अध्याय की सभी पंक्तियॉं भक्तिपथ का सर्वोच्च शिखर हैं। साई का सत्यसंकल्प ही यह ‘साईसच्चरित’ है और मेरे मन में साईसच्चरित लेखन की इच्छा का बाबा की गेहूँ पीसनेवाली लीला को निहारते ही उत्पन्न (उद्भवित) होना यह साई के सत्यसंकल्प का प्रथम अंकुर है’ इस भाव को सुस्पष्ट रूप से वर्णित करनेवाली हेमाडपंत की इन पंक्तियों को हम देखेंगे –

इसीलिए हेमाड साईचरणों में अनन्यशरण होकर सद्गुरुचरण थाम लेता है। इससे जन्म-मरण के फेरे से मुक्ति दिलानेवाला निज उद्धार साईनाथ करेंगे। असंख्य भक्तों के उद्धार हेतु बाबा ने निर्माण किया यह निजचरित (श्रीसाईसच्चरित)। और इसमें निमित्तकारण बनाया हेमाड को, यह मेरे साई की अद्भुत लीला है।

यह श्रीसाईसमर्थचरित। हो मेरे हाथों घटित।
कैसे यह संभव होता साईकृपा बिना। बाबा ने ही मुझ से करवाया।
ना बहुत दिनों का सहवास। ना मुझमें शोधक दृष्टि का वास।
आडे आता रहा अविश्वास। कभी ना रहा अनन्य भाव।
बैठा ना पलभर भी भजन-कीर्तन करने या सुनने।
ऐसे मेरे हाथों चरित-लेखन। कर दिखलाया जग को।
निजवचनार्थ साध्य हेतु। साई ही दिलाते याद इस ग्रंथ का।
पूरा करवा लिया यह निजकार्य साई ने ही। हेमाड यह तो बस नाम के लिए है। 
मशक (मच्छर) क्या उठा पाये मेरू।
टिटिहरी (जलस्रोत के किनारे रहने वाली एक चिडिया) कहॉं लॉंघ सके सागर।  
पर पीछे हो यदि सद्गुरु। 
तो अद्भुत भी करवा लेते हैं।

इन पक्तींयों को पढ़ने पर और कुछ कहने की जरूरत ही नहीं रहती। हेमाडपंत यहॉं पर साई के सत्यसंकल्प का ही स्पष्टीकरण कर रही हैं। मनुष्य के संकल्प से जो कार्य होता है, वह सुसंपूर्ण नहीं होता, प्रभावकारी नहीं होता। परन्तु जब परमात्मा संकल्प करते हैं, उसी समय वह कार्य पूर्णत: सत्य ही होता है, परिपूर्ण हो चुका होता है और उसका परिणाम, प्रभाव जैसा जहॉं पर होना होता है, वैसा वहॉं पर अचूक होता ही है, बिना किसी गलती के वह बिलकुल होता ही रहता है।

हेमाडपंत कहते हैं कि यह गेहूँ पीसने की कथा एवं साईसच्चरित ग्रंथ की कथा कोई अलग नहीं हैं। क्योंकि इसमें मेरे बाबा का ही सत्यसंकल्प है, बाबा की लीलाओं में कार्यकारण भाव ढूँढते मत बैठो, उनकी हर लीला में जो उनका सत्यसंकल्प है, उसे ढूँढो यानी सत्य, प्रेम, आनंद एवं पवित्र भाव ढूँढो़, उनके नि:स्वार्थ प्रेम को ढूँढो़, अकारण कारुण्य को ढूँढो़, अपरंपार कृपा को ढूँढो़।

साईसच्चरित के प्रथम अध्याय में आनेवाली कथा में गेहूँ पीसने की क्रिया स्वयं मेरे ये साईनाथ ही कर रहे हैं। प्रथम अध्याय में जिस प्रकार गेहूँ पीसा उसी प्रकार यहॉं पर अक्षर पीस रहे हैं, मेरा हाथ पकड़कर मुझसे कलम चलवा रहे हैं। हेमाडपंत कहते हैं कि गेहूँ पीसने की यह लीला मेरे जीवन में घटित कर इस साईसच्चरित को प्रकट किया है। मेरे जीवन में बाबा ने इस जॉंते के दोनों चक्कों का ताल-मेल बिठाया, नीचेवाला तह (चक्का) है श्रद्धा और ऊपर वाला चक्का है सबूरी। श्रद्धा का चक्का मज़बूती से स्थिर रखकर सबूरी सदैव कार्यकारी करवाते रहनेवाले मेरे बाबा ही हैं। इन कथाओं को पीसा जा सके इसलिए जाते के खूंटे को ठोककर मज़बूत करनेवाले मेरे बाबा ही है। अनन्यता के इस खूंटे को मेरे बाबा ने ही मज़बूत किया और मेरे जीवन में बाबा की यह गेहूँ पीसनेवाली लीला शुरू हो गई।

चार स्त्रियों के हाथों बाबा ने गेहूँ पिसवा लिया| मेरे अन्त:करण-चतुष्टय से यानी चित्त-अहंकार- बुद्धि एवं मन इन से यह कार्य साई ने ही करवा लिया और मेरे संपूर्ण देह के कोने कोने में इन कथाओं के भावार्थरूपी आटे को फैला दिया। बाबा ने गेहूँ के स्थान पर मेरे अहंकार को जॉंते में रगड़ दिया और शारण्यभाव के आटे को मेरे मन में फैला दिया। बाबा ने ही स्वयं पुरुषार्थ करके इस साईसच्चरित लेखन का आटा पीसा। स्वयं कुरते का हाथ ऊपर कर, पैर पसारकर द्वारकामाई में (मेरे अन्तर्मन में) बाबा ने यह लीला की। मेरे बाबा के पैर में लगे आटे के एक कण के बराबर ही मैं हूँ। मेरे बाबा का ही अस्तित्व अब मुझमें समाया हुआ है। हेमाडपंत ने यहीं पर प्रथम अध्याय में ही बाबा को ‘लोटांगण’ किया है।

प्रथम अध्याय में गेहूँ पीसने की ही कथा क्यों? इसका उत्तर हमें इस अध्ययन से मिल ही गया होगा। अहंकार को पीसकर इन कथाओं का आटा बाबा ने हमें दिया है, जो हमारे जीवन में आ सकने वाली महामारी का अर्थात जन्ममरण के फेरे का नाश करने के लिए पूर्णत: समर्थ है।

यह सारा का सारा साईसच्चरित (संपूर्ण) मेरे इस साईनाथ का ही सत्यसंकल्प है। यही बात प्रथम अध्याय में हेमाडपंत पूरे विश्वास के साथ कह रहे हैं और बाबा का संकल्प ही सत्यसंकल्प होने के कारण यह प्रथम अध्याय साईसच्चरित-नदी का उद्गम भी है और उसी नदी का मुख भी ! क्योंकि जब यह संकल्प ये साईनाथ करते हैं तब ही इस का उद्गम होता है और तब ही वह परिपूर्ण भी हो ही चुका होता है।

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