समय की करवट (भाग ७६) – भाई-भाई में दरार

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इसमें फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उसके आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।
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‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर
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इसमें फिलहाल हम पूर्व एवं पश्चिम ऐसी दोनों जर्मनियों के विभाजन का तथा एकत्रीकरण का अध्ययन कर रहे हैं।

यह अध्ययन करते करते ही सोव्हिएत युनियन के विघटन का अध्ययन भी शुरू हो चुका है। क्योंकि सोव्हिएत युनियन के विघटन की प्रक्रिया में ही जर्मनी के एकीकरण के बीज छिपे हुए हैं, अतः उन दोनों का अलग से अध्ययन नहीं किया जा सकता।

सोविएत युनियन का उदयास्त-३६

‘क्युबन मिसाईल क्राइसिस’ इतना चरमसीमा तक जाकर भी, उसके कुछ सबक सीखकर ‘कोल्ड वॉर’ ख़त्म नहीं हुआ, बल्कि वह जारी ही रहा। ‘कोल्ड वॉर’ के दोनों पक्षों को एक-दूसरे की प्रचंड ताकत का अँदाज़ा होने के कारण (या फिर निश्‍चित अँदाज़ा न होने के कारण कहिए), उन्होंने कभी भी एक-दूसरे के खिलाफ़ प्रत्यक्ष युद्ध छेड़ने का दुःसाहस नहीं किया। जहाँ सोव्हिएत प्रत्यक्ष रूप में युद्ध में उतरे, वहाँ अमरीका ने अपने अंकित देशों के ज़रिये उन्हें रोकने की कोशिशें कीं; वहीं, जहाँ अमरीका प्रत्यक्ष रूप में युद्ध में उतरी, वहाँ सोव्हिएत ने प्रत्यक्ष हिस्सा न लेते हुए, अपने अंकित देशों को अमरीका के विरोध में आगे किया। इस प्रकार, दुनियाभर में जारी कई छोटे-बड़े संघर्षों में उलझे विभिन्न देशों को अपने-अपने प्यादे बनाकर, एक-दूसरे को मात देने की कोशिशें दोनों देशों ने जारी ही रखीं।

कोरियन युद्ध और साथ ही क्युबन मिसाईल क्रायसिस! क्युबा के क्रायसिस के बाद माहौल थोड़ा ठण्ड़ा पड़ रहा है ऐसा लगने लगा था। दोनों शत्रुदेशों में ‘हॉटलाईन’ की स्थापना हो चुकी थी। उसका उस समय शायद प्रॅक्टिकली उपयोग न भी हुआ हों, मग़र दोनों देश एक-दूसरे के साथ संवाद बनाये रखना चाहते हैं, यह भी कुछ कम नहीं था। इस सुविधा के कारण शायद प्रत्यक्ष परमाणुयुद्ध होने की घड़ी टली भी हों, लेकिन उसके अलावा जिस व्यापक कारण के लिए इस सुविधा का निर्माण किया गया था – वह यानी संवाद को बढ़ाकर एक-दूसरे के प्रति होनेवाले तीव्र अविश्‍वास को कम करना, वह उद्दिष्ट साध्य हुआ ही नहीं। बल्कि उसका उपयोग संवाद बनाये रखने की अपेक्षा एक-दूसरे पर हावी होने के लिए, एक-दूसरे से बचने के लिए ही ज़्यादा किया गया।

सोव्हिएत नेतृत्व कम्युनिझम का दुनियाभर प्रसार करना चाहता था और सोव्हिएत के कम्युनिझम प्रसार का सभी स्तरों पर विरोध करने की पूँजीवादी अमरीका की मूलभूत नीति, इनमें से कोल्डवॉर झुलसता रहा। अपने इन प्रमुख उद्दिष्टों को साध्य करने के लिए ये दोनों देश, हर किसी आंतर्राष्ट्रीय छोटे-बड़े संघर्ष में, कई बार विनावजह ही टाँग अड़ाते रहे। एक-दूसरे के प्रति होनेवाला अविश्‍वास, शक़ और ग़लतफ़हमियाँ इनसे कोल्डवॉर बढ़ता गया।

सोव्हिएत कम्युनिझम की नींव ही – ‘शोषण करनेवाली पूँजीवादी व्यवस्था को नष्ट करना’ यह थी।

….और ‘यदि हमने सोव्हिएत को जहाँ जहाँ संभव है, वहाँ रोका नहीं, तो सोव्हिएत सारी दुनिया कम्युनिझम से ही भर देंगे’ इस डर के कारण ही पूँजीवादी अमरीका इस ‘कोल्ड वॉर’ में आगे आगे बढ़ती रही। (यही है वह अमरीका की ‘कन्टेनमेंट पॉलिसी’)

लेकिन १९६० के दशक तक इस युद्ध का स्वरूप – पूँजीवादी अमरीका के नेतृत्व में होनेवाले ‘पूँजीवादी पश्‍चिमी देश’ बनाम कम्युनिस्ट सोव्हिएत रशिया के नेतृत्व में होनेवाला ‘कम्युनिस्ट ईस्टर्न ब्लॉक’ ऐसा था।

लेकिन सन १९६० बाद ऐसे दो सुस्पष्ट गुट नहीं रहे। कई देश इस गुट से उस गुट में, उस गुट से इस गुट में, तो कोई तटस्थ; ऐसी मिलावट हो गयी। दोनों में से किसी भी गुट में न जाना चाहनेवाले देश अर्थात् ‘थर्ड वर्ल्ड’ इस संकल्पना को अधिक सुस्पष्ट स्वरूप प्राप्त होगा गया। खुद सोव्हिएत के एकसमान ‘कम्युनिस्ट’ गुट में, सोव्हिएत का छोटा भाई माने जानेवाले चीन तथा सोव्हिएत में दरार पड़ गयी।

ऊपरी तौर पर स्टॅलिन चाहे चीन को अपना क्रांतिबंधु संबोधित करता हो, प्रत्यक्ष रूप में उसने कई बार माओ के साथ तुच्छतापूर्वक व्यवहार किया।

इस दरार के बीज बहुत पहले से ही बोये हुए थे। सन १९४९ की चिनी राज्यक्रांति के तुरन्त बाद ही। सोव्हिएत की कम्युनिस्ट क्रांति यह ‘मज़दूर’ को केंद्रबिंदु मानकर की गयी थी; वहीं, चीन के लिए मज़दूर की अपेक्षा भी ‘किसान’ अधिक महत्त्वपूर्ण था; क्योंकि चीन उस समय कृषिप्रधान देश था, अतः चिनी क्रांति यह ‘किसान’ अधिष्ठित थी। सोव्हिएत की ‘लाल’सेना में मज़दूरवर्ग बड़े पैमाने पर था; वहीं, माओ की ‘लाल’सेना यह किसानों से भरी थी। यह था मूलभूत फ़र्क़! लेकिन इस फ़र्क़ के कारण ही स्टॅलिन चिनी राज्यक्रांति को, चिनी सेना को और कुल मिलाकर माओ को ही ग़ौण मानता था। चीन की जो राज्यक्रांति कर माओ ‘लोगों का शासन’ चीन में ले आया था, उस चिनी राज्यक्रांति में भी अन्त तक स्टॅलिन ‘चँग-कै-शेक’ को ही समर्थन देता रहा। यहाँ तक कि आगे चलकर कोरियन युद्ध में भी स्टॅलिन ने अपना छोटा कम्युनिस्टबंधु होनेवाले चीन की सेना को आख़िर तक समर्थन नहीं दिया, इसका भी ग़ुस्सा माओ के दिल में था ही।

लेकिन स्टॅलिन जब तक था यानी तक़रीबन सन १९५३ तक (सन १९४९ की चिनी राज्यक्रांति के बाद के पहले ४-५ वर्ष) चीन की हालत भी ऐसी थी कि चीन में पुनः अराजक फैलने न देने के लिए, सोव्हिएत सहायता पर निर्भर रहने के अलावा चीन के पास और कोई चारा भी तो नहीं था।

स्टॅलिन के और बाद में ख्रुश्‍चेव्ह के, चीन से तुच्छता से पेश आने के रवैय्ये के कारण माओ झेडूंग सोव्हिएत पर हमेशा ग़ुस्सा करता रहा।

उसके बाद के इस ‘क्युबन मिसाईल क्रायसिस’ को सोव्हिएत ने जिस तरह से हँडल किया और उसका अंजाम जिस प्रकार सोव्हिएत पीछे हटने में हुआ, उससे तो माओ को अच्छाख़ासा मुद्दा मिल गया। कम्युुनिझम का जन्म पूँजीवाद के विरोध पर ही हुआ और सोव्हिएत ने तो दुनिया की रेस में टिके रहने के लिए थोड़ी मात्रा में ही सही, लेकिन पूँजीवाद का स्वीकार किया; यह बात माओ को बिलकुल भी रास नहीं आयी थी।

माओ ने ‘सोव्हिएत ये केवल कागज़ पर के शेर हैं’ ऐसा प्रचार कम्युनिस्टजगत् में शुरू किया और ‘मैं ही दरअसल ‘शुद्ध’ कम्युनिझम का प्रणेता होने के कारण, कम्युनिस्टजगत् का नेता हूँ’ ऐसी हवा कम्युनिस्टजगत् में निर्माण की।

इस ‘भाई-भाई में पड़ी दरार’ का अर्थात् ‘सोव्हिएत की छाया में से चीन बाहर निकलने का’ आगे चलकर भविष्य पर बहुत बड़ा असर होनेवाला था!

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