४७. मॅक्कबीज् की बग़ावत; ‘हनुक्का’ त्योहार

अब तक ज्यूधर्मियों पर राज किये विदेशी राज्यकर्ताओं में जिसे सबसे अधिक क्रूर कहा जा सकता है, ऐसे अँटिओकस (चतुर्थ) ने ज्यूधर्मियों पर दमनतन्त्र का कहर ढ़ाया था| अपने साम्राज्य में ग्रीकीकरण के कार्यक्रम पर जोरोंशोरों से अमल करते हुए उसने, ज्यूधर्मियों पर उनकी – शब्बाथ का पालन करना आदि धार्मिक रूढ़ियों-परंपराओं का व्यक्तिगत रूप में पालन करने पर भी पाबंदी लगायी| इन रूढ़ियों-परंपराओं का पालन करते हुए यदि कोई पकड़ा जाता, तो उसे क्रूरतापूर्वक ज़ाहिर रूप में देहदंड की सज़ा देने की उसने शुरुआत की| टोराह की कापी रखना यह भी गुनाह कहलाने लगा| किसी के पास ऐसी कापी पायी जाने पर वह जला दी जाती थी ओर उसे रखनेवाले को कड़ी सज़ा दी जाती थी|

ज्यूधर्मियों के ‘सर्वोच्च धर्मोपदेशक’ पद की अनौपचारिक रूप में ‘नीलामी’ करने के बाद होली टेंपल की पवित्रता भी उसने नष्ट की थी| उसने होली टेंपल के भांडार को लूटकर वहॉं की धार्मिक विधियॉं तो बन्द कर ही दीं; साथ ही, होली टेंपल में ग्रीक देवताओं की मूर्तियों की स्थापना कर, ज्यूधर्मियों के ईश्‍वर को नैवेद्य अर्पण करने की वेदी पर अब ग्रीक देवताओं को बलि अर्पण किये जाने लगे|

ज्यूधर्मियों में जो ग्रीकपरस्त थे, वे तो ग्रीकों के ईशारों पर ही नाच रहे होने के कारण, उन्हें इन सबमें कोई दिक्कत नहीं थी; लेकिन अब पारंपरिक ज्यूधर्मियों की सहनशक्ति ख़त्म हो चुकी थी और अब अधिक भार वे सह नहीं सकनेवाले थे!

इस असन्तोष को रास्ता मिला, वह इसवीसनपूर्व १६७ में ‘मॅटॅथियस’ नामक एक पारंपरिक धर्मोपदेशक की बग़ावत से| ‘मॅक्कबियस’ घराने से होनेवाला मॅटॅथियस यह ईश्‍वर पर गहरी श्रद्धा होनेवाला, टोराह का मनःपूर्वक पालन करनेवाला निष्ठावान पारंपरिक ज्यूधर्मीय था| नयी पीढ़ी के अनेक सदस्य ग्रीकपरस्त बन रहे होने का ग़ुस्सा उसके मन में धा ही| एक घटना से वह उबलकर बाहर आया|

वह हुआ यूँ – ज्युडाह पर नियुक्त किये राजप्रतिनिधि ने किसी उपलक्ष्य में, होली टेंपल में स्थापित किये ग्रीक देवता के सामने बलि चढ़ाने का तय किया| लेकिन उसकी इस आज्ञा का पालन करने से, वहॉं धर्मोपदेशक होनेवाले मॅटॅथियस ने साफ़ इन्कार कर दिया| इतना ही नहीं, बल्कि जब उन्हीं में से एक ग्रीकपरस्त ज्यूधर्मीय ने आगे आकर ऐसी बलि चढ़ाने की तैयारी दर्शायी, तब मॅटॅथियस ने सीधे उस ज्यूधर्मीय को और उस ग्रीक राजप्रतिनिधि को भी मार दिया और फिर वहॉं पैदा हुए अफ़रातफ़री के माहौल का फ़ायदा उठाकर वह अपने पॉंच बेटों के साथ वहॉं से पहाड़ियों में भाग गया| लेकिन जाने से पहले उसने – ‘जो ईश्‍वर के साथ रहना चाहते हैं, वे मेरा साथ दें’ ऐसे आशय का वाक्य वहॉं के उपस्थित ज्यूधर्मियों को संबोधित कर कहा|

नयी पीढ़ी को हालॉंकि ग्रीक संस्कृति का बढ़ता आकर्षण था, ईश्‍वर पर तथा अपने धर्म पर गाढ़ा विश्‍वास होनेवाले पारंपरिक ज्यूधर्मियों की संख्या भी कुछ कम न थी| ऐसे लोग धीरे धीरे मॅटॅथियस आकर से मिलने लगे| उनमें से सेना का निर्माण करना अब उसने शुरू किया|

शुरुआती दौर में को केवल यह लड़ाई राजनीतिक उद्दिष्टों के लिए अर्थात् राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए नहीं थी| क्योंकि अब तक बॅबिलोनियन्स, पर्शियन्स, टोलेमी और सेल्युसिड्स ऐसे सभी राजसत्ताओं ने एक के बाद एक जेरुसलेम स्थित ज्यूधर्मियों पर राज किया था और कुछ समय बाद ज्यूधर्मियों ने भी उन सबका स्वीकार किया था| इसका मुख्य कारण यह था कि इन राजसत्ताओं ने (अँटिओकस के पहले के सेल्युसिड सम्राटों ने भी) ज्यूधर्मियों ज्यूधर्मतत्त्वों का पालन करने से कभी भी मनाही नहीं की थी| लेकिन अब धार्मिक स्वतन्त्रता का गला घोंट दिया जाने के कारण ज्यूधर्मीय क्रोधित हुए थे|

मॅटॅथियस ने हालॉंकि इस असंतोष को मार्ग दिखाया था, चन्द कुछ महीनों में ही उसका निधन हुआ और उसके आगे का कार्य करने की ज़िम्मेदारी उसका पुत्र ज्युडास के कन्धे पर आ गयी| उसे उसके चारों भाइयों का मज़बूत साथ था| शुरू शुरू में उनसे आकर मिले लोगों की संख्या कम थी, शस्त्रास्त्र बहुत ही अपर्याप्त थे, लेकिन उनका निग्रह पर्वत जितना था| धीरे धीरे यह संख्या बढ़कर ६ हज़ार तक जा पहुँची|

इसी दौरान इस बग़ावत की भनक लग चुके अँटिओकस ने उसे कुचल देने के लिए तक़रीबन ४५ हजार सेना जेरुसलेम भेजी|

अपने सामने का कार्य आसान नहीं है, इसका ज्युडास को पूरा एहसास था| इस कारण उसने एक अलग ही व्यूहरचना की| इतनी ताकतवर सेल्युसिड सेना से इतनी अपर्याप्त सेना के साथ सीधा मुक़ाबला करने जाना यानी आत्मघात को न्योता ही देना, यह जानकर ज्युडास ने गुरिल्ला (छापामार) पद्धति से यह लड़ाई शुरू की और अपनी सेना के छोटे छोटे गुट बनाकर विभिन्न स्थानों पर तैनात ग्रीक सेना को, रात के अन्धेरे में उनके असावधान होते हमले कर मार दिया| अब ग्रीक सेना के हथियार भी ज्यूधर्मियों के हाथ लगने लगे थे| उनका आत्मविश्‍वास अधिक ही बढ़ने लगा था| इसी बात की तीन बार पुनरावृत्ति हुई और आख़िरकार सेल्युसिड् की सेना को ज्यूधर्मियों पर धावा बोलने का ईरादा छोड़कर वापस लौटना पड़ा| उसी दौरान सेल्युसिड सम्राट अँटिओकस का भी एक मुहिम पर होते हुए अज्ञात परिस्थिति में निधन हुआ था|

इस प्रकार संख्या से अपर्याप्त होनेवाले ज्यूधर्मियों ने केवल ईश्‍वर के प्रति विश्‍वास और धर्म के प्रति कड़ी निष्ठा इन ‘शस्त्रों से’ ताकतवर सेल्युसिड्स पर जीत हासिल की थी| मॅक्कॅबीज़् की बग़ावत क़ामयाब हुई थी| इस मॅक्कबीज् परिवार को ‘हॅस्मोनियन’ भी कहा जाता है और इस बग़ावत को ‘हॅस्मोनियन रिव्होल्ट’ यह भी नाम है|

अँटिओकस की मृत्यु के पश्‍चात् सेल्युसिड्स ने ज्यूधर्मियों के पहले जैसी धार्मिक स्वतन्त्रता बहाल किया| लेकिन ज्यूधर्मीय अभी तक राजनीतिक दृष्टि से आज़ाद नहीं थे, ज्युडाह प्रांत अभी तक सेल्युसिड साम्राज्य का ही हिस्सा था|

लेकिन धार्मिक दमनतन्त्र के विरोध में की गयी मॅक्कॅबीज् की बग़ावत का तात्कालिक उद्दिष्ट तीन ही सालों में सफल हुआ था| अँटिओकस के विभिन्न अध्यादेशों से अपवित्र हुए होली टेंपल को पुनः शुद्ध करा लेने की योजना ज्युडास ने तैयार की| उसने होली टेंपल की मरम्मत भी करा ली और ग्रीक देवताओं की मूर्तियों को टेंपल से बाहर निकालकर धार्मिक विधियों से टेंपल का शुद्धिकरण भी करा लिया|

इस समय एक चमत्कार हुआ बताया जाता है| टेंपल में जब इस शुद्धिकरण के समारोह के लिए दीये जलाने की बारी आयी, तब ध्यान में आया कि उसके लिए आवश्यक ख़ास प्रक्रियायुक्त तेल, जो टेंपलस्थित सीलबंद डिब्बों में से ही इस्तेमाल किया जाता था, वह केवल एक दिन के लिए पर्याप्त हो सकेगा इतना ही बाक़ी है| फिर भी मायूस न होते हुए उन्होंने उसी तेल से दीये जलाये और अधिक तेल पर आवश्यक प्रक्रिया शुरू की| लेकिन अचरज की बात यानी इस – केवल एक दिन के लिए ही पर्याप्त हो सकनेवाले तेल में, टेंपल के दीये अगले तेल का प्रबंध होने तक, पूरे आठ दिन तक जलते रहे! आवश्यक होनेवालीं सभी धार्मिक विधियॉं करने के बाद इस होली टेंपल को पुनः ईश्‍वर को समर्पित कर दिया गया| (री-डेडिकेशन)

इस ईश्‍वरी चमत्कार की और होली टेंपल पुनः ईश्‍वर को समर्पित किये जाने की याद में हर साल आठ दिन ज्यूधर्मियों का ‘हनुक्का’ त्योहार मनाया जाता है, जिसमें आठ नीरांजन होनेवाला दीया जलाया जाता है|

इस प्रकार ज्यूधर्मियों को पुनः धार्मिक स्वतन्त्रता मिली थी| इस सफलता से प्रेरित होकर अब राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए भी लड़ने का ज्यूधर्मियों ने तय किया| लेकिन ज्युडास की इसवीसनपूर्व १६० में एक लड़ाई में मृत्यु हुई| उसके बाद उसके भाइयों ने और भतीजे ने अगले लगभग २५ साल यह लड़ाई जारी रखी और आख़िरकार अपने ध्येय को प्राप्त करने में वे क़ामयाब हुए|(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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