क्रान्तिगाथा-४७

अनेक भारतीय युवक स्वातन्त्र्यवीर सावरकर द्वारा स्थापित किये गये ‘अभिनव भारत संगठन’ के सदस्य थे। स्वातन्त्र्यवीर सावरकर को काले पानी की यानी उम्र कैद की सज़ा सुनायी जाने के बाद अभिनव भारत संगठन के अनेक युवा सदस्य अँग्रेज़ों के अत्याचारों से बेचैन हो गये थे।

अनन्त कान्हेरे का जन्म अंजनी/अयनी इस छोटे से गाँव में १८९१ में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद अगली पढ़ाई करने के लिए वह औरंगाबाद में था। आज़ादी के युद्ध में कुछ करने के लिए उसका खून खौल रहा था। इस वजह से वह नासिक चला गया, अपनी मातृभूमि के लिए कुछ करने का संकल्प करके।

नासिक का कलेक्टर रहनेवाले जॅक्सन का तबादला मुंबई में बड़े ओहदे पर हुआ था। उसे अलविदा कहने के लिए नासिक के विजयानंद थिएटर में ‘शारदा’ नाम के नाटक का प्रयोग आयोजित किया गया था, ज़ाहिर है कि उसे मराठी नाटकों में दिलचस्पी थी इसलिए।

नाटक शुरू हो गया और जॅक्सन उसकी जगह पर आकर बैठ ही गया था कि उसपर गोलियाँ बरसायी गयीं। जॅक्सन वहीं पर ढ़ेर हो गया और खुद पर गोलियाँ चलाने की कोशिश अनन्त कान्हेरे के द्वारा की ही जा रही थी कि उप-जिला-अधिकारी रहनेवाले एक भारतीय ने ही उसे वैसा न करने देते हुए सीधे ग़िरफ्तार कर लिया।

कान्हेरे को ग़िरफ्तार करने के बाद इस कृति में और कौन सम्मिलित है इसकी छानबीन शुरू हो गयी और अनन्त कान्हेरे के साथ कृष्णाजी कर्वे और विनायक देशपांडे पर भी मुकदमा दायर कर दिया गया। फैसला क्या सुनाया जायेगा यह तो भारत जानता ही था। २० मार्च १९१० को ऊपर उल्लेखित तीन क्रान्तिवीरों को ङ्गाँसी की सजा सुनायी गयी।

और १९ अप्रैल १९१० को ठाणे की जेल में तीनों को फाँसी दी गयी। जॅक्सन के वध के पश्‍चात् महज़ चार महीने बाद। १९ अप्रैल १९१० को फाँसी पर चढ़े अनन्त कान्हेरे की उम्र थी, महज़ १८ वर्ष।

भारत में अँग्रेज़ सरकार को हो रहा विरोध दिन प्रति दिन बढता ही जा रहा है, यह बात अब सूरज की रोशनी जितनी साफ़ थी। वैसे देखा जाये तो यह विरोध केवल शाब्दिक या वैचारिक नहीं था, तो भारत की स्वतन्त्रता के लिए भारतीय युवक हँसी खुशी फाँसी के फंदे पर चढ रहे थे; इस विश्‍वास को मन में रखते हुए की आज नहीं तो कल मेरी मातृभूमि स्वतंत्र होगी ही।

इसी समय अँग्रेज़ों ने फिर एक बार यह जताना शुरू किया की वे भारतीयों के हित की बात कर रहे है और भारतीय लोगों को/ जनता को प्रशासन में प्रतिनिधित्व दे रहे है। १९०९ में ‘मॉर्ले-मिंटो सुधार कानून’ (मॉर्ले-मिंटो रिफॉर्म्स अ‍ॅक्ट) लाया गया। इसे ‘इंडियन कौन्सिल अ‍ॅक्ट १९०९’ इस नाम से भी जाना जाता है। यह कानून जिन दो व्यक्तियों के नाम से जाना जाता है, उनमें से मॉर्ले, यह सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया यह पद सँभाल रहा था और मिंटो उस समय भारत का व्हॉइसरॉय था। इस कानून के तहत भारतीयों को प्रशासन में ज्यादा से ज्यादा अधिकार देने का प्रयास किया गया है, ऐसा अँग्रेज़ सरकारद्वारा जाहिर किया गया।

जिन लेजिस्लटिव्ह असेंब्लीज् द्वारा शासन चलाया जाता था, उनमें भारतीयों के प्रतिनिधियों को नियुक्त किया गया। संक्षेप में भारत की शासन व्यवस्था में अब भारतीयों को अपनी राय देने का, अपनी सलाह देने का अधिकार दिया गया है, ऐसा अँग्रेज़ों ने जाहिर किया। पूरे भारत का शासन करनेवाली लेजिस्लटिव्ह असेंब्ली और हर प्रांत की लेजिस्लटिव्ह असेंब्ली इन दोनों में भारतीयों को नियुक्त किया गया।

लेकिन इसमें कुछ बातें ऐसी थी जो खटकनेवाली थी। सबसे अहम बात यह थी की इस कानून के तहत नियुक्त किये गये भारतीय प्रतिनिधियों की संख्या काफ़ी कम थी। दूसरी बात यह थी की भारत में स्थित एक विशिष्ट धर्म के लोगों के लिए हर एक जगह की लेजिस्लटिव्ह असेंब्ली में कुछ सीटें आरक्षित की गयी थी और उन लोगों को उन्हीं के धर्म के लोग वोट दे, ऐसी व्यवस्था की गयी थी। यानी कि फिर एक बार ‘डिव्हाइड अँड रुल’ इस नीति को अँग्रेज़ों ने अपनाया था। तिसरी महत्त्वपूर्ण बात यह थी की इस कानून के जरिये ब्रिटिश यह जता रहे थे की वे इससे भारत में स्थित धनवानों को उपकृत कर रहे है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो भारत के धनवान और उच्च वर्ग के लोगों के लिए ही इस कानून का इस्तेमाल किया गया। यानी कि एक मुद्दे के आधार पर भारतीय समाज में धर्म के नाम पर फूट डाली गयी और साथ ही भारतीय समाज में उच्च वर्ग और निम्न वर्ग ऐसी दरार भी बनायी गयी।

भारत में स्थित छोटे-बड़े राज्य अब रियासतों में परिवर्तित हो चुके थे और अँग्रेज़ों के अधिकार में थे। मगर फिर भी रियासतदार ऐषोआराम की जिंदगी, सुख की जिंदगी जी रहे थे और आम भारतीय ब्रिटिशों के पैरोंतले कुचला जा रहा था।

ऐसे समय में ही १९११ में ‘दिल्ली दरबार’ का आयोजन किया गया। ‘दिल्ली दरबार’ इस शब्द से हम जान सकते है कि यह दिल्ली में हुआ कोई दरबार होगा। लेकिन यह था क्या?

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