क्रान्तिगाथा- ४४

कोर्ट में सुनवाई के समय मदनलाल धिंगरा ने जो कहा, उसका भावार्थ कुछ इस तरह था- हमारी मातृभूमि को ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़नेवाले दुश्मन के ख़िलाफ जंग छेडना यह कोई गुनाह नहीं है। मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए क्रान्तिकारियों के द्वारा किये जा रहे स्वतन्त्रता-आन्दोलनरूपी यज्ञ में मेरे प्राणों की आहुति अर्पण करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है, यही मेरे लिए सर्वोच्च है।

आख़िर मुक़दमे का फैसला सुनाया गया। इसमें कोई ताज्जुब नहीं था कि अँग्रेज़ों के द्वारा मदनलाल धिंगरा को ‘मृत्युदंड’ यानी फाँसी की सज़ा सुनायी गयी। १७ अगस्त १९०९ को इस क्रान्तिवीर को फाँसी दी गयी।

ग़ुलामी की ज़ंजीरों

भारतमाता का एक और सपूत उसे आज़ादी दिलाने का ध्यास मन में रखते हुए हँसते हँसते फाँसी चढ़ गया। लाखों भारतीयों के मन फिर एक बार फूटफूटकर रो रहे थे।

इस तरह भारत के नवयुवकों को फाँसी पर लटकाने से भारतीयों का मनोबल टूट जायेगा यह अँग्रेज़ों की इसके पीछे की सोच थी; लेकिन ऐसा होना कदापि संभव नहीं था।

‘इंडियन सोशॉलॉजिस्ट’ के अगस्त के इश्यु में इस घटना की ख़बर छपी थी और मदनलाल धिंगरा के प्रति हमदर्दी जताने का इलज़ाम रखकर इस पत्रिका के प्रिंटर को १२ महीनों की सश्रम कारावास की सज़ा सुनायी गयी।

विचार स्वतन्त्रता पर पाबंदी लगाने की अँग्रेज़ों की कुटिलता पुन: एक बार दुनिया के सामने आ गयी। इससे पहले भी स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उद्देश्य से प्रकाशित की जानेवालीं कई पत्रिकाओं, समाचार पत्रों पर अँग्रेज़ों ने पाबंदी लगायी ही थी।

भारतीयों की विचार स्वतन्त्रता पर पाबंदियाँ लगाने की नीति अँग्रेज़ पहले से ही अपना चुके थे। १८५७ के स्वतन्त्रता संग्राम में अँग्रेज़ों को पहला बड़ा धक्का लगने के बाद अँग्रेज़ों को अब भारतीयों की ताकत का अँदाज़ा हो गया था। भारतीय समाज के तत्वचिन्तक एवं मार्गदर्शक भारतीयों को स्वतन्त्रता की भोर दिखाने के लिए निरंतर प्रयास कर रहे थे। एकसाथ हज़ारों लोगों तक पहुँचने का मार्ग यानी अपने विचार हज़ारों लोगों के सामने प्रस्तुत करने का मार्ग, भारत को आज़ादी दिलाने की कोशिशें कर रहे इन वीरों को मिल गया था और वह था समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का मार्ग। इनके माध्यमसे अपने विचार एक साथ बहुत बड़े भारतीय जनसमुदाय तक पहुँचाना आसान था।

उस वक़्त भारत भर के एवं भारत के बाहर से प्रकाशित होनेवाले समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं ने बहुत बड़ी वैचारिक क्रान्ति भारतीय समाज में करायी। क़लम की ताकत का पता जिस तरह भारतीयों को चल गया था, उसी तरह अँग्रेज़ों को भी चल ही गया था; लेकिन भारतीयों की क़लम की ताकत से वे चिन्ता में पड़ गये थे और १८७८ में ही अँग्रेज़ों ने एक क़ानून पारित कर दिया।

भारत के विभिन्न इलाक़ों में उस व़क़्त भी विभिन्न बोलीभाषाएँ बोली जाती थी। जनजागृति करने के लिए इन भारतीय भाषाओं में समाचार पत्र एवं पत्रिकाएँ प्रकाशित होने लगी थी और यही बात अँग्रेज़ों के लिए सिरदर्द साबित हो रही थी। क्योंकि प्रत्येक भारतीय अब भारत भर में अँग्रेज़ों के द्वारा की जा रही तानाशाही, अत्याचार को अपनी भाषा में जान रहा था।

१८७८ में ही लॉर्ड लिट्टन के अधिकार में ‘व्हर्नाक्युलर प्रेस अ‍ॅक्ट’ यह क़ानून पारित कर दिया गया। इस क़ानून का मूल उद्देश्य था – भारतीय समाचार पत्रों में छपकर आनेवाले अँग्रेज़ सरकार विरोधी लेखन पर नियन्त्रण रखना। अँग्रेज़ों की दृष्टी से यह लेखन राजद्रोही लेखन था और इस लेखन से ही भारतीयों के मन में बग़ावत की ज्वाला भड़क रही थी। इसी वजह से भारतीय स्थानीय भाषाओं के समाचार पत्रों में छपकर आनेवाले इस तरह के राजद्रोही (ज़ाहिर है कि भारतीयों के देशभक्तिपूर्ण लेखन को अँग्रेज़ राजद्रोही ही कहेंगे) लेखन पर, उस लेखन के प्रसार पर नियन्त्रण एवं निर्बन्ध रखने की दृष्टि से यह व्हर्नाक्युलर प्रेस अ‍ॅक्ट पारित किया गया था।

दर असल १८५७ के स्वतन्त्रतासंग्राम के तुरन्त बाद ‘गेज़िंग अ‍ॅक्ट’ यह क़ानून पारित किया गया था। इस क़ानून के अनुसार प्रिटिंग प्रेस की स्थापना करने पर और उसके द्वारा प्रकाशित किये जानेवाले समाचार पत्रों पर नियन्त्रण एवं निर्बन्ध रखने के अधिकार अँग्रेज़ों के पास थे।
लेकिन भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का उग्र हो रहा स्वरूप देखकर अँग्रेज़ों को यह ‘गेज़िंग अ‍ॅक्ट’ पर्याप्त नहीं लग रहा था और इसीलिए यह ‘व्हर्नाक्युलर प्रेस अ‍ॅक्ट’ पारित किया गया।

यह क़ानून जब लागू किया गया, तब अकेले बंगाल इला़के में ही स्थानीय भाषा में लगभग ३५ समाचार पत्र एवं पत्रिकाएँ प्रकाशित की जा रही थी। यह क़ानून पारित करने से पहले भारत के लगभग १५ स्थानीय भाषाओं के समाचार पत्रों में छपे ४५ अँग्रेज़ सरकार विरोधी लेखनों का अध्ययन इस दृष्टि से किया गया और वे अँग्रेज़ों की दृष्टि से राजद्रोहात्मक यानी आक्षेपार्ह होने के कारण ही यह क़ानून पारित किया गया है, ऐसा अँग्रेज़ों का कहना था।

सारांश, भारतीय समाचार पत्रों की आवाज़ दबाना यही अँग्रेज़ों का मक़सद था।

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