क्रान्तिगाथा-४६

‘अलिपुर बम केस’ में बारीन्द्र घोष अँग्रेज़ों की दृष्टि से अहम आरोपी थे। क्योंकि बम, शस्त्र-अस्त्र जहाँ बनाये जाते थे, वह जगह बारीन्द्र घोष की थी यह बात सामने आ गयी और इसीलिए अँग्रेज़ों की दृष्टि से वे इस मुक़दमे में अहम आरोपी थे। स्वाभाविक रूप से अँग्रेज़ सरकार से विद्रोह करनेवाले को सुनायी जानेवाली सज़ा अब इस मुक़दमे में ग़िरफ्तार किये गये क्रान्तिवीरों को अँग्रेज़ों के क़ानून के अनुसार दी गयी।

बारीन्द्र घोष और उलस्कार दत्त को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी। लेकिन आगे चलकर फाँसी के बजाय उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा देने का तय किया गया और उन्हें अंदमान की कुख्यात सेल्युलर जेल में काले पानी की सज़ा भुगतने के लिए भेजा गया। आगे १९२० में उन दोनों की कारावास से मुक्तता की गयी।

अरविन्द्र घोष भी इस घटना में शामिल थे, यह साबित करने की भरपूर कोशिश अँग्रेज़ों के द्वारा की गयी। चित्तरंजन दास नाम के वकील ने अरविन्द घोष का पक्ष न्यायालय में रखा और अरविन्द घोष इसमें सम्मिलित नहीं थे यह बात साबित हो गयी।

‘अलिपुर बम केस’ के बाद अरविन्द घोष के जीवन में एक नया ही मोड़ आ गया। इसके बाद अरविन्द घोष का सफ़र योग एवं अध्यात्म के मार्ग पर से शुरू हो गया।

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इस मुकदमे में आरोपी के कटघरे में अँग्रेज़ों ने जिन क्रान्तिवीरों को खड़ा किया था, उनमें से प्रत्येक को अलग अलग सज़ा सुनायी गयी। इनमें से कुछ को आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गयी और साथ ही उनकी जायदाद जप्त कर दी गयी। कानून की विभिन्न दफाओं का आधार लेकर और उसे भारतीयों के सामने रखकर अँग्रेज़ सरकार ने इन क्रान्तिवीरों को सज़ा सुनायी।

कुछ क्रान्तिवीरों की जायदाद हड़प ने के साथ साथ किसी को सात साल या किसी को दस साल की सज़ा सुनायी गयी और जिन व्यक्तियों पर का इलज़ाम साबित नहीं हुआ, उन्हें तो बक़ायदा बाइज़्ज़त बरी करने के अलावा सरकार के पास कोई चारा नहीं था।

मग़र प्रमुख क्रान्तिकारियों को मातृभूमि से दूर अंदमान भेजने के पीछे का अँग्रेज़ों का कूट हेतु छिपा नहीं था। ये क्रान्तिकारी उनकी मातृभूमि से यानी भारत से दूर रहेंगे, तो अपने आप ही यहाँ के क्रान्तिकारियों की गतिविधियाँ खण्डित हो जायेंगी ऐसा अँग्रेज़ सोच रहे थे। लेकिन मातृभूमि की स्वतन्त्रता के उद्देश्य से लडनेवाले भारतीयों को मार्गदर्शकों की कमी महसूस नहीं होगी, यह बात अँग्रेज़ सरकार कुछ ही समय में समझ गयी। क्योंकि इन क्रांतिवीरों में से हर कोई समूह में लडने में जितना सक्षम था, उसी तरह एक अकेला क्रांतिवीर भी अँग्रेज़ों के साम्राज्य को हिलाने के लिए काफ़ी था और इस बात को अँग्रेज़ भूतकालीन घटनाओं से समझ गये थें।

भारत भर में एवं भारत के बाहर हो रही घटनाएँ, जो भारत के स्वतन्त्रतासंग्राम से जुड़ी हुई थीं, वे घटनाएँ भारत की जनता में, ख़ास कर युवावर्ग में अभूतपूर्व जोश उत्पन्न कर रही थीं। भारत के युवाओं का खून अब अपनी मातृभूमि के लिए कुछ कर दिखाने के लिए खौल रहा था।

२१ दिसंबर १९०९ को एक ख़बर आयी कि नासिक में नासिक के कलेक्टर जॅक्सन का वध हुआ है और इस काम को अंजाम देने के आरोप में अनन्त कान्हेरे, कृष्णाजी कर्वे और विनायक देशपांडे को ग़िरफ्तार कर दिया गया और जेल में भी डाल दिया गया।

लेकिन हुआ क्या था?

जॅक्सन यह नासिक जिले का कलेक्टर था। वह मराठी नाटक एवं मराठी भाषा में दिलचस्पी रखता था और उसे संस्कृत का भी ज्ञान था। वह भारतीयों में मिलकर उनसे बातचीत भी करता था, ऐसा भी वर्णन मिलता है। मग़र ये सब तो दिखावे की बातें थीं। उसके मन में कुछ अलग ही षड़यन्त्र चल रहा था। भारतीयों से दोस्ती करने का दिखावा करके उन्हें अपनी ग़ुलामी में रखने का उसका मूल उद्देश्य था। उसके मन में भारतीयों के प्रति हमदर्दी नहीं थी, बल्कि भारतीयों को अँग्रेज़ों की ग़ुलामी में ही रहना चाहिए, ऐसी उसकी मनोधारणा थी।

उसकी इस कपटनीति की पोल ये दो घटनाएँ खोलती हैं। किसी अँग्रेज़ अफ़सर की गोल्फ गेंद को हाथ लगाया, इसलिए उस अँग्रेज़ अफ़सर ने यह काम करनेवाले एक गरीब भारतीय को बुरी तरह पीटा; इतना कि उस भारतीय की मौत हो गयी। लेकिन जॅक्सन ने उस अफ़सर को बेक़सूर करार कर दिया और दस्त के कारण उस भारतीय की मौत हुई यह घोषित किया। दूसरी घटना में एक मेले में से लौटते समय कुछ भारतीय युवकों ने ‘वन्दे मातरम्’ के नारें लगाये, उनपर देशद्रोह का इलज़ाम रखकर उन्हें ग़िरफ्तार कर दिया।

और कुछ इतिहासकारों की राय में ऐसा यह जॅक्सन भारतीयों का मित्र था। तो फिर उसके वध के पीछे क्या कारण था?

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