क्रान्तिगाथा-५३

‘भारत देश में भारतीयों का ही शासन हो’ इस विषय में लोगों में जागृति करना यह होमरुल आंदोलन का मुख्य उद्देश्य था। साथ ही भारत में उस समय विद्यमान शिक्षाविषयक स्थिति को देखते हुए भारतीय लोगों को शिक्षा देना यह भी इस आंदोलन का एक मुख्य उद्देश था।

देश की स्वतंत्रता के लिए निरंतर कोशिशों में जुटे हुए लोकमान्य बाळ गंगाधर टिळक इस होमरुल आंदोलन के माध्यम से फिर एक बार देश की स्वतंत्रता के लिए सक्रिय हो गये। टिळकजी के साथ श्री.जी. एस. खापर्डे, श्री. सुब्रमण्यम् अय्यर और अन्य देशभक्त भी थे और इनके साथ एक विदेशी विदुषी महिला भी भारत के स्वतंत्रता संग्राम में शामील हुई थी।

ये विदेशी विदुषी महिला थी – डॉ. अ‍ॅनी बेझंट। थिऑसॉफिकल सोसायटी के साथ जुडी इस महिला को भारत के प्रति रहनेवाली आत्मीयता के कारण ही वे भारत में शुरु हुए होमरुल लीग आंदोलन से जुड गयी; दर असल इस संकल्पना को प्रत्यक्ष रूप में उतारनेवालों में से ही वे एक थी।

क्रान्तिगाथा, इतिहास, ग़िरफ्तार, मुक़दमे, क़ानून, भारत, अँग्रेज़ पूरे भारत में यह आंदोलन फैल गया। इसका मुख्यालय भले ही दिल्ली में स्थित था, तब भी टिळकजी के प्रयासों से पुणे में भी इसका कार्य शुरू हो गया और श्री. सुब्रमण्यम् अय्यर और डॉ. अ‍ॅनी बेझंट के प्रयासों से मद्रास (वर्तमान समय का नाम चेन्नई) में भी इसका कार्य शुरू हुआ। साथ ही मुंबई में भी तेज़ी से इसका कार्य शुरू हुआ।

इस प्रकार मुंबई, मद्रास, कलकत्ता, पुणे में इंडियन होमरुल लीग का कार्य शुरू हुआ। इस आंदोलन को भारत में स्थित शिक्षित समाज का तथा विचारकों का बड़े पैमाने पर समर्थन प्राप्त हुआ।

लेकिन इस आंदोलन को भारत के गांवों में पहुँचने में काफ़ी समय लगा।

सन १९१७ के आसपास भारत के गांवों में इस आंदोलन का प्रचार-प्रसार होना आरंभ हुआ। गुजरात, पंजाब, सिंध प्रांत, युनायटेड प्रोव्हीन्स, बिहार और उडीसा में इस आंदोलन की तेज़ी से शुरुआत हो गयी।

इस बीच सन १९१५ में भारत की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई। यह घटना ही कुछ ऐसी थी की इस घटना ने आगे आनेवाले समय में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के रूप को ही बदल डाला।

क्या थी यह घटना?

१९१५ में भारतमाता के एक सुपुत्र दक्षिण अफ्रिका से भारत लौटे। भारत लौटने से पहले दक्षिण अफ्रिका में उन्होंने जो कार्य किया था, उसे देखते हुए आम लोगों के लिए विशेष रूप से गुलामी में जी रहे लोगों के लिए आस्थापूर्वक और लगन से काम करनेवाले व्यक्ति के रूप में वे विख्यात हो चुके थे।

‘अहिंसा’ इस शस्त्र को लेकर ब्रिटिश साम्राज्य से लडनेवाला यह व्यक्तित्व था – महात्मा गांधी यानी मोहनदास करमचंद गांधी।

विदेश में जन्मी डॉ. अ‍ॅनी बेझंट भारत आ गयी और कुछ समय बाद होमरुल लीग या इंडियन होमरुल लीग के कार्य में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।

विदेश में जन्म होने के बावजूद भी उन्हें भारत के प्रति और भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए चल रही कोशिशों के प्रति इतनी आत्मीयता थी की वे अपने देश से भारत आकर यहीं पर बस गयी और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में तेजी से कार्य करने लगी।

भारत, भारत के लोग और भारत के स्वतंत्रता संग्राम के प्रति आत्मीयता रहनेवाली डॉ. अ‍ॅनी बेझंट को लगता था कि मानो भारत ही उनकी मातृभूमि है।

भारतीय लोग और विश्‍व के लोग उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अग्रसर रहनेवाले व्यक्तित्व के रूप में जितना जानते है, उतनाही एक प्रतिभाशाली लेखक, उत्तम वक्ता और थिऑसॉफी में अग्रगण्य व्यक्तित्व के रूप में भी जानते है।

जिन अँग्रेज़ों ने भारत को गुलामी की जंजीरों में जकड़कर रखा था, उन्हीं अँग्रेज़ों के देश में जन्मी डॉ. अ‍ॅनी बेझंट ने उनके देश के द्वारा गुलाम बनाये गये एक देश को गुलामी से आज़ाद करने के लिए संघर्ष किया। इसे वास्तव में एक आश्‍चर्यजनक घटना ही कहा जा सकता है।

१ अक्तूबर १८४७ में डॉ. अ‍ॅनी बेझंट का लंदन में जन्म हुआ। उनके पिता पेशे से डॉक्टर थे, मगर फिर भी उन्हें दर्शनशास्त्र और गणित इन विषयों में रूचि थी। माता-पिता से उन्हें धार्मिक संस्कार मिले। दुर्भाग्यवश उनकी उम्र के ५वें साल में ही उनके पिता का निधन हो गया। जिससे उन्हें आर्थिक चिंताओं ने घेर लिया। इन्हीं परिस्थितियों में उन्होंने अपनी पढाई पूरी की।

दुर्भाग्यवश असफल हुई शादी के बाद भी उन्हें आर्थिक संकट का सामना करना पडा और यहीं पर कही उनके मन में रहनेवाले अनाथ, असहाय्य और पिडितों की सेवा करने के बीज ने अंकुर का रूप ले लिया। इंग्लंड के मजदूरों के हकों के लिए उन्होंने विशेष रूप से कार्य किया।

१८९३ में डॉ. अ‍ॅनी बेझंट भारत आयी और यहीं से आगे भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए कार्य करने लगी।

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