क्रान्तिगाथा-५४

इंग्लंड में जन्मी डॉ. अ‍ॅनी बेझंट को भारत के प्रती इतनी आत्मीयता थी की भारत के विषय में उन्होंने सन १८७८ में ही अपने विचार प्रकट किये थे। सन १८८३ में उन्होंने ‘सोशालिस्ट डिफेन्स’ नामक संगठन की स्थापना की। इस संगठन के माध्यम से इंग्लंड के मजदूरों और दीन-दुर्बलों के लिए उनका कार्य तेज़ी से शुरू हो गया। लेकिन भारत आने से पहले डॉ. अ‍ॅनी बेझंट जब इंग्लंड में रह रही थी, तब घटित हुई एक घटना ने उनके जीवन को एक अलग ही दिशा दे दी।

मॅडम हॅलेना ब्लॅवॅट्स्की और कर्नल ऑलकॉट ने सन १८७५ में न्यूयॉर्क में एक आध्यात्मिक पंथ की स्थापना की थी। इस पंथ का नाम था – थियॉसॉफिकल सोसायटी।

कुछ समय बाद डॉ. अ‍ॅनी बेझंट इस सोसायटी की विचारप्रणाली और कार्य से प्रभावित होकर इससे जुड गयी और इसके लिए कार्य करने लगी। १९०७ में वे थियॉसॉफिकल सोसायटी की अध्यक्षा के रूप में कार्य करने लगी।

क्रान्तिगाथा, इतिहास, ग़िरफ्तार, मुक़दमे, क़ानून, भारत, अँग्रेज़ सन १८९३ में भारत आयी डॉ. अ‍ॅनी बेझंट का भारत में अधिक समय तक वाराणसी में वास्तव्य रहा। भारतीय समाज में स्थित कई अनुचित प्रथाओं को दूर करने का उन्होंने प्रयास किया। बालविवाह, विधवा विवाह जैसी भारतीय समाज में स्थित अनुचित प्रथाओं को दूर करने का प्रयास किया। सन १८९८ में उन्होंने वाराणसी में ‘सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल’ की स्थापना की। उस समय की भारतीय महिलाओं की स्थिती में सुधार लाने की कोशिशें की।

१९१३ से लेकर १९१९ के दौरान भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रगण्य व्यक्तित्वों में से वे एक थी। १९१६ में लोकमान्य बाळ गंगाधर टिळक के साथ उन्होंने होमरुल आंदोलन का प्रारंभ किया। यह उनके जीवन की और एक महत्त्वपूर्ण घटना थी।

थियॉसॉफिकल सोसायटी के विचारों और कार्य को दुनियाभर में पहुँचाने में उन्होंने एक उत्तम वक्ता की भूमिका निभायी। साथ ही इसी विषय पर लगभग २२० किताबें और लेख लिखे। भगवद्गीता का अँग्रेज़ी भाषा में अनुवाद करने के साथ साथ भारतीय संस्कृति, भारत की तत्कालिन स्थिति आदि विषयों पर भी उन्होंने का़ङ्गी लेखन किया।

यकिनन उनकी इस कृति से अँग्रेज़ सरकार उन पर नाराज न हुई हो तो ही आश्‍चर्य की बात है। उनके एक पुस्तक पर ज़ब्ती लायी गयी । इस विदुषी महिला का २० सितंबर १९३३ में देहांत हो गया और भारत की स्वतंत्रता का उन्होंने देखा हुआ सपना अधूरा ही रहा।

भारत का स्वतंत्रता संग्राम अब शांतिपूर्ण तरीके से आगे बढ रहा है, ऐसा ही कुछ लगने लगा था। लेकिन उसी समय भारतीय क्रांतिवीर शांती से बैठे नहीं थे, अँग्रेज़ सरकार को वे बीच बीच में हिला देते थे।

इसकी एक झलक भारतीय क्रांतिवीरों ने अँग्रेज़ों को १९१२ में फिर एक बार दिखायी थी।

सन १९१२ में हुए दिल्ली दरबार में एक महत्त्वपूर्ण घोषणा की गयी और वह थी अँग्रेज़ सरकार की भारत में स्थित राजधानी को कोलकता से दिल्ली लाया जानेवाला था। इस उपलक्ष्य में दिल्ली में एक शोभायात्रा का आयोजन किया गया था।

उस समय भारत का व्हाईसरॉय रहनेवाला लॉर्ड हार्डिंग्ज इस शोभायात्रा के दौरान एक हाथी के हौदे में सवार था। शोभायात्रा के दौरान इस हौदे पर बम फेंका गया। इस बम का विस्फोट हुआ और हार्डिंग्ज और उसकी पत्नी इसमें जख्मी हो गये। लेकिन हाथी का महावत मारा गया।
यह घटना ‘दिल्ली कॉन्स्पिरसी’ अथवा ‘दिल्ली-लाहोर कॉन्स्पिरन्सी’ के नाम से जानी जाती है। अँग्रेज़ सरकार द्वारा आयोजित समारोह के दौरान हुई घटना थी, तो हमेशा की तरह तेज़ी से बम फेकनेवाले की तलाश शुरू हो गयी।

आखिरकार अँग्रेज़ सरकार इस नतीजे पर पहुँची की इस घटना में बंगाल और पंजाब के भूमिगत क्रांतिवीरों का हाथ है और यह करनेवाले प्रमुख व्यक्तित्व के रूप में रासबिहारी बोस की पहचान की गयी।

सन १९१२ में हुई इस घटना को अंजाम देनेवाले को ढूँढ़ने में अँग्रेज़ सरकार सन १९१४ में कामयाब हुई। बसंतकुमार बिस्वास नामक क्रांतिवीर, जो युगान्तर संगठन से जुडा हुआ था, उसे अँग्रेज़ों ने फरवरी १९१४ में गिरफ़्तार किया। जब बसंतकुमार बिस्वास अपने पिता का अंतिम क्रियाकर्म करने गया था, तब उसे गिरफ़्तार किया गया।

और फिर हमेशा की तरह शुरू हो गया, अंग्रेज़ सरकार का फार्स। गिरफ़्तार किये गये क्रांतिवीर पर मुकदमा दायर करके उस पर लगाये गये इलज़ामों को सिद्ध करके, उसे सजा सुनाने का।

६ फरवरी १८९५ में जन्मे बसंतकुमार बिस्वास पर लॉर्ड हार्डिंग्ज पर बम फेकने का इलज़ाम रखा गया। दिल्ली-लाहोर कॉन्स्पिरसी का मुकदमा शुरू हुआ। बसंतकुमार पर रखे गये इलज़ामों को साबित करने में अँग्रेज़ सरकार कामयाब हुई और २३ मई १९१४ को शुरू हुए इस मुकदमें की सुनवाई अक्तूबर में पूरी होकर बसंतकुमार को सजा सुनाई गयी।

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