क्रान्तिगाथा-२८

२८ दिसंबर १८८५ को हुई एक घटना ने भारत के स्वतन्त्रतासंग्राम के आन्दोलन में एक अहम भूमिका निभायी। वह घटना थी – ‘इंडियन नॅशनल काँगे्रस’ की स्थापना।

उस व़क़्त भारत में कई सुधार हो रहे थे। इस प्रक्रिया में से ही भारतीय विचारकों का एक बहुत बड़ा वर्ग उभरकर सामने आ रहा था। विचारकों की राय में भारत को ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़नेवाले अँग्रेज़ों से साधक-बाधक चर्चा करके ही इसका हल निकाला जा सकता था। साथ ही इस चर्चा में से अँग्रेज़ों की हु़कूमत के साथ जुड़े कई सवालों का भी हल ढूँढा जा सकता था। भारतीय विचारकों की इस भूमिका का कुछ अँग्रेज़ों ने स्वागत भी किया था और इन्हीं कोशिशों के फलस्वरूप ‘इंडियन नॅशनल काँगे्रस’ की स्थापना हुई।

इसमें ब्रिटिश सिव्हिल सर्व्हंट के रूप में काम कर चुके अ‍ॅलन ऑक्टेव्हियन ह्यूम का बहुत बड़ा योगदान था। अँग्रेज़ों की राज्यपद्धति तथा संस्कृति से भारतीय अच्छी तरह परिचित हो जाये, यह इस अँग्रेज़ विचारक की राय थी। इसी प्रक्रिया में २८ दिसंबर १८८५ को मुंबई के ‘गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज’ में ‘इंडियन नॅशनल काँगे्रस’ की स्थापना हुई। उस व़क़्त ७२ लोग उपस्थित थे। इंडियन नॅशनल काँगे्रस की स्थापना एवं संकल्पना में अहम भूमिका रहनेवाले ए.ओ. ह्यूम ने जनरल सेक्रेटरी पद का भार सँभाला और उनका हाथ बँटाने के लिए दो अँग्रेज़ भी उसमें थे। वहीं कलकत्ता के व्योमेशचन्द्र बॅनर्जी को अध्यक्षपद पर नियुक्त किया गया। इसी इंडियन नॅशनल काँगे्रस से भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में कई विचारक और जाँबाज़ व्यक्तित्व उभर आये। इस इंडियन नॅशनल काँगे्रस की स्थापना के बाद लोकमान्य टिळक, गोपाळ कृष्ण गोखले, दादाभाई नौरोजी जैसे व्यक्तित्व इसमें कार्यरत थे।

एक तरफ भारत में ये सारे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे थे, वहीं दूसरी तरफ भारतीय जनता को बीच बीच में अलग तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। ये संकट ऐसे थे कि जिनके सामने इन्सान कुछ भी नहीं कर सकता था। उन आपत्तियों का स्वीकार करते हुए ही आगे बढ़ना पड़ रहा था, क्योंकि वे थीं प्राकृतिक आपदाएँ। १८६० से १८७५ इस १५ वर्ष की अवधि में भारत को चार बड़े अकालों का सामना करना पड़ा। उत्तरी भारत, बिहार, राजस्थान, ओरिसा और दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सें इससे का़फी प्रभावित हुए थे। सूखे में बड़े पैमाने पर लोगों को अपनी जानें गँवानी पड़ीं। १८७३-७४ के सूखे के दौरान कुछ ऐसी उपाययोजनाएँ की गयी थीं, जिससे कि इससे पहले के सूखों की अपेक्षा कम जीवितहानि हुई। फिर भी इन सूखों के दौरान जानें गँवानेवालों का आँकड़ा कई करोड़ों में था। आपादग्रस्तों की सहायता करनेवाले अँग्रेज़ ही थे इसपर भी हमें ग़ौर करना चाहिए। इन अँग्रेज़ों ने सूखाग्रस्त इलाकों में कई रोज़गार के काम शुरू कर दिये और उसके बदले में वहाँ पर काम करनेवालों को थोड़ा बहुत अनाज और एकाद ‘आना’ या उससे भी कम पैसे दिये जाते थे। कुछ जगह तो अँग्रेज़ों ने अचानक ही अनाज का प्रमाण और मज़दूरी कम कर दी, इतनी की इतनी कम मज़दूरी में काम करनेवालों पर कुछ अँग्रेज़ों को ही तरस आ गया। सूखे के दौरान और उसके बाद कई जगह संक्रामक बीमारियाँ फैल रही थीं।

भारत पर अँग्रेज़ राज कर रहे थे और ब्रिटन की महारानी ने अब ‘भारत की साम्राज्ञी’ यह ख़िताब धारण किया था।

इंडियन नॅशनल काँगे्रस‘अँग्रेज़ भारत का आर्थिक शोषण कर रहे हैं’ यह बात तब तक भारत के अनेक उच्चविद्याविभूषितों तथा देशप्रेमियों ने जान ली थी। इसमें सब से आगे थे दादाभाई नौरोजी। सितंबर १८२५ में जन्मे दादाभाई नौरोजी प्रारंभिक समय में एलफिस्टन इन्स्टिट्यूट में प्रोफेसर थे। उस ज़माने में इस तरह का सम्मान प्राप्त करनेवाले वे पहले भारतीय थे। भारतीयों का पक्ष अँग्रेज़ों के सामने रखने के लिए उन्होंने १८६७ में ‘ईस्ट इंडिया असोसिएशन’ की स्थापना में सहायता की थी। इन्हीं दादाभाई नौरोजी को १९वीं सदी के आख़िरी दशक में ब्रिटन की पार्लिमेंट के मेंबर के रूप में चुना गया था।

भारत में इन परिवर्तनों के चलते भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन अब वैचारिक स्तर पर आगे बढ़ेगा ऐसा लगने लगा था। मग़र फिर भी कुछ ऐसे देशप्रेमी थे, जिन्हें ग़ुलामी से आज़ाद होने के लिए सशस्त्र क्रान्ति यही एक विकल्प उचित लग रहा था।

इसी विचारधारा से भारत के कुछ हिस्सों में कुछ ऐसे व्यक्तित्वों का उदय हो रहा था, जो अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्र बनाने के लिए अकेले लड़ रहे थे। १८७२ में पंजाब में एक ऐसी कोशिश की गयी, लेकिन अँग्रेज़ों ने उसे नाकाम कर दिया।

इसी सशस्त्र क्रान्ति का यज्ञ प्रज्वलित रखनेवाला एक व्यक्तित्व महाराष्ट्र में उदयित हुआ, ४ नवंबर १८४५ को, पनवेल तालुके के ‘शिरढोण’ नाम के गाँव में। यहाँ पर जन्म हुआ था वासुदेव बळवंत फडकेजी का। फडकेजी को भारतीय स्वतन्त्रता युद्ध की ‘सशस्त्र क्रान्ति के जनक’ इस प्रकार गौरवान्वित किया जाता है।

बचपन में ही फडकेजी ने कुश्ती आदि खेलों में सामर्थ्य एवं महारत हासिल की थी। आगे चलकर पुणे में लगभर १५ वर्ष तक उन्होंने मिलिटरी अकाऊंट्स् डिपार्टमेंट में नौकरी की। इसी दौरान अँग्रेज़ों के द्वारा किये जा रहे भारत और भारतीयों के शोषण का वास्तविक दर्शन उन्हें हुआ और यही बात वजह बनी, उनके जीवन में एक नया मोड़ लाने के लिए।

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