क्रान्तिगाथा-५७

सन १९१४ से लेकर १९१७ तक की कालावधि में केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पंजाब से लेकर सिंगापुर तक जहाँ जहाँ भारतीय सैनिक अँग्रेज़ों के पक्ष में से लड़ रहे थे, उन्हें अँग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह करके लड़ाने की हिंदु-जर्मन कॉन्स्पिरसी योजना बन रही थी। अलग अलग समय पर अलग अलग स्थानों पर भारतीय सैनिक अँग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह करनेवाले थे। इसके परिणाम स्वरूप प्रथम विश्‍वयुद्ध में अपने शत्रुओं से लड़ने से पहले अँग्रेज़ों को इस बात का सामना करना था।

भारत के बाहर जर्मनी में स्थित भारतीय इसमें सक्रिय रूप से जिस प्रकार सम्मिलित हुए थे, उसी प्रकार ‘गदर पार्टी’ के क्रांतिवीरों का भी इस योजना में बडे पैमाने पर सहयोग प्राप्त हो रहा था। पूरे भारत में स्थित छोटे-बड़े क्रांतिकारी दलों का भी इस कॉन्स्पिरसी में सहभाग था ही; मगर उनमें भी ‘युगान्तर’ के सदस्य इसमे बडे पैमाने पर सहभागी हुए थे। इन ‘युगान्तर’ सदस्यों में से एक प्रमुख क्रांतिकारी व्यक्तित्व पूरे जोश के साथ इसमें सहभागी हुआ था, वह व्यक्तित्व तो दरअसल ‘मातृभूमि की स्वतंत्रता’ इस एक निदिध्यास से ही प्रेरित था।

क्रान्तिगाथा, इतिहास, ग़िरफ्तार, मुक़दमे, क़ानून, भारत, अँग्रेज़जतीन्द्रनाथ मुखर्जी या इन्हें ‘बाघा’ जतीन इस नाम से भी जाना जाता था। ये ‘युगान्तर’ के मुख्य सदस्यों में से एक थे।

७ दिसंबर १८७९ में बंगाल के कायग्राम नामक गांव में इनका जन्म हुआ। जन्म के बाद उनके बचपन के कुछ साल उनके पिता के मूल गांव में व्यतीत हुए। दुर्भाग्यवश जतीन्द्रनाथ की आयु जब ५ साल की थी तब उनके पिता का देहान्त हो गया और उन्हें उनके माँ के गांव भेजा गया। उनकी माँ ने बचपन में ही उन पर देशभक्ति और भगवद्भक्ति के संस्कार किये थे। बचपन में जतीन्द्रनाथ स्वयं हनुमानजी, प्रह्लाद आदि भूमिकाएँ बडी ही तल्लीनता से करते थे।

युवा होने तक उन्होंने अच्छा खासा शारीरिक बल भी प्राप्त किया था। सन १८९५ में महाविद्यालयीन शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे कलकत्ता सेंट्रल कॉलेज में दाखिल हुए और साथ ही स्टेनो टायपिस्ट का काम भी करने लगे।

इतिहास से पता चलता है कि उत्तम शारीरिक बल प्राप्त कर चुके जतीन्द्रनाथ को ‘बाघा’ यह उपाधी प्राप्त होने के पीछे एक घटना कारण हुई। एक बार उनका सामना एक बाघ (रॉयल बेंगाल टायगर) से हुआ और तब अपने पास रहनेवाले एक चाकू जैसे हथियार से उन्होंने उस बाघ से लडाई की। इस लडाई में वे जख्मी हुए, मगर फिर भी उन्होंने बाघ को परास्त किया। इस घटना के बाद उनकी वीरता की प्रशंसा उन्हें सम्मानित करके की गयी और यहाँ से आगे जतीन्द्रनाथ के नाम के साथ ‘बाघा’ यह उपाधी जोडी जाने लगी।

बताया जाता है कि महाविद्यालयीन शिक्षा के समय ही उन्हें स्वामी विवेकानंद का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था। स्वामी विवेकानंद से उन्हें राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रप्रेम की सीख तो मिली ही थी, साथ ही समाज के दीन-दुखियों की की जानेवाली सेवा से भी वे यहीं पर परिचित हुए थे।

बताया जाता है कि स्वामी विवेकानंद ने युवा जतीन्द्रनाथ में रहनेवाले गुणों को पहचानकर उन्हें बलोपासना के लिए भेज दिया और यहीं पर उनमें रहनेवाले क्रांतिवीर के बीज बोये गये।

अँग्रेज़ों के बारे में जतीन्द्रनाथ के मन में तो असंतोष ङ्गैला ही हुआ था, इसके परिणामस्वरूप अँग्रेज़ों की शिक्षा पद्धति में रहनेवाली सदोषता को जानकर अंततः उन्होंने उनकी शिक्षा पद्धति को ही त्याग दिया।

दार्जिलिंग जाकर उन्होंने अनुशीलन समिति की शाखा ‘बांधव समिति’ इस नाम से स्थापित की। युगान्तर में प्रवेश करने के बाद जतीन्द्रनाथ का कार्य तेज़ी से शुरू हो गया।

अलिपूर बम केस के सिलसिले में युगान्तर के कई क्रांतिवीर अँगे्रज़ों द्वारा गिरफ्तार किये गये। इस दौरान जतीन्द्रनाथ ने भारत के अन्य प्रांतों- जैसे बंगाल, बिहार, उडीसा, उत्तरप्रदेश में स्थित क्रांतिकारियों में कार्य की दृष्टि से संबंध स्थापित करने के प्रयास किये।

सन १९१० में हावडा कॉन्स्पिरसी में शामिल होने के लिए उन्हें अन्य कई क्रांतिकारियों समेत अँग्रेज़ सरकारने गिरफ्तार किया; लेकिन फरवरी १९११ में जतीन्द्रनाथ को रिहा किया गया।

बलशाली अँग्रेज़ सरकार के खिलाफ लडने के लिए क्रांतिवीरों को धन की आवश्यकता थी। शस्त्र-अस्त्रों को खरीदना और वे शस्त्र-अस्त्र चलाने में क्रांतिकारियों को प्रशिक्षित करना इन सभी बातों के लिए धन की आवश्यकता थी ही। अँग्रेज़ सरकार की तिजोरी में जो पैसा था, वह तो भारतीयों का ही था; फिर उसी पैसे को प्राप्त करने का कार्य युगान्तर के सदस्यों द्वारा किया गया, साथ ही खूँख़ार ब्रिटिश अफसरों को मौत के घाट उतारने का भी कार्य किया गया।

सन १९१४ के प्रथम विश्‍वयुद्ध के समय सक्रिय हो चुके ‘बर्लिन कमिटी’ के सदस्यों को जतीन्द्रनाथ मुखर्जी के नेतृत्व में कार्य करनेवाले युगान्तर के क्रांतिवीरों का सक्रिय सहकार्य प्राप्त हो रहा था। लेकिन अँग्रेज़ों को इसकी भनक लगने में ज्यादा समय नहीं गया। वैसे भी अँग्रेज़ सरकार जतीन्द्रनाथ को ढूँढ ही रही थी, अब तो उन्हें एक मौका ही मिल गया।

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