क्रान्तिगाथा-२२

लखनौ की ब्रिटीश रेसिडन्सी में अब तक पनाह लिये हुए अँग्रेज़ों की आशाएँ अब पल्लवित होने लगी थीं। लगभग ८७ दिनों के संघर्ष के बाद लखनौ के कुछ इलाक़ों पर कब्ज़ा कर लेने में बाहर से आयी हुई अँग्रेज़ सेना क़ामयाब हो गयी थी।

इतने दिनों के संघर्ष के बाद भी लखनौ के बाहर से आये अँग्रेज़ों को और रेसिडन्सी में फँसे हुए अँग्रेज़ों को दिलासा देनेवाली कोई भी बात अब तक नहीं घटी थी। नवंबर के मध्य में कोलिन कँपबेल नाम का कमांडर इन ची़फ लखनौ में दाखिल हो चुका था। पिछले संघर्ष में दोनों पक्षों की सेना का का़फी नुक़सान हुआ था। नवंबर के महीने में लखनौ पर आक्रमण कर आयी हुई ब्रिटीश सेना ने लखनौ शहर के ‘दिलखुश बाग़’ तक के इला़के पर कब्ज़ा कर लिया था। अब ब्रिटीश सेना ने इसी जोश से लखनौ शहर में आगे बढ़ना शुरू कर दिया। इस दौरान उन्हें पहला बड़ा संघर्ष करना पड़ा, ‘सिकंदर बाग़’ में। ऊँची दीवार से महफूज़ रहनेवाली इस बाग़ में क्रान्तिवीर युद्ध के लिए सुसज्जित ही थे। प्रबल एवं तीव्र संघर्ष के बाद वहाँ की ज़मीन ख़ून से लथपथ हो गयी।

इस बाग़ में रहनेवाले क्रान्तिकारी जान की बाज़ी लगाकर लड़ रहे थे। मग़र अन्त में लगभग सारे क्रान्तिकारी शहीद हो गये और इस इला़के पर अँग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया।

इसके बाद का संघर्ष शुरू हुआ शाहनजी़फ में। रात होते होते ही यहाँ पर कँपबेल ने अपने हेडक्वार्टर्स की स्थापना कर दी। अब ब्रिटीश रेसिडन्सी बस कुछ ही दूरी पर थी। मग़र वहाँ पहुँचने से पहले अँग्रेज़ों को क्रान्तिकारियों से मोतीमहल में संघर्ष करना पड़ा। यहाँ पर भी क्रान्तिकारियों को सफलता नहीं मिली। क्रान्तिकारियों के हाथ से मोतीमहल छीन लेने के बाद अँग्रेज़ों के लिए ब्रिटीश रेसिडन्सी तक पहुँचना आसान हो गया। लखनौ स्थित अँग्रेज़ों की सहायता करने के लिए बाहर से आयी हुई ब्रिटीश सेना रेसिडन्सी तक पहुँच गयी और वहाँ के अँग्रेज़ों को उन्होंने रिहा कर दिया। नवंबर के मध्य में शुरू हुआ यह संघर्ष चंद कुछ ही दिनों में अँग्रेज़ों के द्वारा लखनौ पर सत्ता स्थापित कर दिये जाने के बाद समाप्त हो गया।

लखनौ पर रहनेवाला क्रान्तिकारियों का वर्चस्व आज इतने लंबे अरसे तक चले संघर्ष के बाद समाप्त हो गया, यह सोचकर अब ब्रिटीश फौज ने बेफिक्र होकर लखनौ में डेरा डाल दिया था।

लखनौ पर पुन: सत्ता प्रस्थापित करने की जीत के उन्माद में रहनेवाले अँग्रेज़ भला भारतीयों की मातृभूमिभक्ति को कहाँ जानते थे! सन १८५८ के आने के बाद भी भारत भर में छोटी बड़ी लड़ाइयाँ चल ही रही थीं। इसी दौरान लखनौ पर पुन: कब्ज़ा करने के काम में क्रान्तिकारी जुट गये थे। अब बेगम हज़रत महल की अगुआई में वे तैयारियाँ कर रहे थे और फैज़ाबाद के क्रान्तिकारी अहमदशाह भी लखनौ को पुनत: जीतने के लिए युद्ध कर रहे थे। १८५८ साल के पहले तीन महीने बीत चुके थे। लखनौ फिर एक बार जूझ रहा था।

लखनौझाँसी। उस समय का मध्य भारत में रहनेवाला एक राज्य। इसपर राज था, राजा गंगाधररावजी का और उनकी पत्नी का नाम था, ‘रानी लक्ष्मीबाई’।

स्वतन्त्रतासमर की अग्निज्वालाएँ झाँसी तक पहुँच ही गयी थीं। झाँसी में कुछ होगा, ऐसा अँग्रेज़ों को नहीं लग रहा था; क्योंकि ‘गोदविधान नामंज़ूर’ करते हुए रानी लक्ष्मीबाई और स्वर्गीय गंगाधरराव के गोद लिये हुए बेटे का झाँसी की राजगद्दी पर का अधिकार अँग्रेज़ों द्वारा पहले ही नामंज़ूर कर दिया गया था। १८५७ में झाँसी में थीं, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और उनके गोद लिये बेटे दामोदर।

रानी लक्ष्मीबाई का बचपन बिठूर में नानासाहब पेशवा और तात्या टोपे के साथ बीता हुआ था और बिठूर में ही उसे युद्ध के दाँवपेंचों का प्रशिक्षण भी मिला था। अब अँग्रेज़ों की बहुत ही थोड़ी सी फौज झाँसी में थी। तो यह थे उस वक़्त झाँसी के हालात।

मेरठ में प्रज्वलित हुई क्रान्ति की चिंगारी जून महीने के पहले ह़फ़्ते में ही झाँसी में भी प्रज्वलित हो गयी। झाँसी में रहनेवाले थोड़े बहुत अँग्रेज़ सैनिकों पर भारतीय सैनिकों ने आक्रमण कर दिया। भारत के विभिन्न प्रदेशों में से मिल रही जानकारी के कारण यहाँ के अँग्रेज़ों ने भी थोड़ी बहुत तैयारी करके रखी थी।

अँग्रेज़ों ने अपनी योजना के अनुसार अपने परिजनों के साथ झाँसी के क़िले में पनाह ले ली। झाँसी की रानी इन क्रान्तिकारियों की सहायता करेगी, यह बात अँग्रेज़ों ने सपने में भी नहीं सोची थी, क्योंकि रानी ने इससे पहले ही अँग्रेज़ों की सहायता करने की बात मान ली थी और व़क़्त आने पर अँग्रेज़ों की सहायता करने हेतु अपनी सेना को बढ़ाने की माँग भी अँग्रेज़ों से की थी। सारांश, स्वयं झाँसी की रानी हमारे पक्ष में है, ऐसी धारणा अँग्रेज़ों के मन में थी।

क़िले में पनाह लिये अँग्रेज़ों पर अब झाँसी के क्रान्तिकारियों ने ज़ोरदार हमला कर दिया। पूर्वयोजना के अनुसार अँग्रेज़ लड रहे थे; लेकिन क्रान्तिकारी अब भी अँग्रेज़ों पर भारी पड़ रहे थे और झाँसी पर क्रान्तिकारियों ने कब्ज़ा कर लिया। महीना था जून का और साल था १८५७।

अँग्रेज़मुक्त हुई झाँसी में अब हक़ीक़त में रानी लक्ष्मीबाई का राज शुरू हो गया था। लेकिन झाँसी के हाथ से निकल जाने से अँग्रेज़ तड़प रहे थे और झाँसी में रानी के अधिपत्य में सभी झाँसीवासी चैन की साँस से रहे थे।

इसी दौरान १८५८ आ गया और ह्यू रोज नाम का अँग्रेज़ अफसर ‘बड़ी आसानी से मैं झाँसी पर कब्ज़ा कर लूँगा’ इस मग़रूरी में वहाँ पर आ गया। लेकिन उसका आमनासामना हुआ एक बिजली से, जिसकी कड़कड़ाहट थी, केवल स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिए!

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