क्रान्तिगाथा-२५

१८५८ के जून महीने की २० तारीख तक क्रान्तिवीरों का अँग्रेज़ों के साथ संघर्ष चल रहा था। आखिर जून २०, १८५८ को अँग्रेज़ों ने ग्वालियर पर कब्ज़ा कर लिया और अँग्रेज़ों को लगा कि भारतीयों के दिमाग़ पर सवार हुआ स्वतन्त्रताप्राप्ति का जुनून शायद उतर गया है। क्योंकि तब तक अनेक वीर शहीद हो चुके थे। हालाँकि अब भी कुछ क्रान्तिवीर लड़ रहे थे, लेकिन अकेले पड़ जाने के कारण वे अपने तरी़के से लड़ने के लिए अपना मूल इलाक़ा छोड़कर अन्य इलाक़ों में जा चुके थे।

जुलाई १८५८ के आसपास क्रान्तिवीरों और अँग्रेज़ों के बीच का संघर्ष समाप्त होता हुआ नज़र आ रहा था। क्रान्तिवीरों के पास ऐसा क्या था कि जिसके बल पर वे अँग्रेज़ों के खिलाफ का यह संघर्ष कर रहे थे? जवाब एक ही – उनके पास थी प्रखर मातृभूमिभक्ति, जो उन्हें जूझने का बल अन्त तक दे रही थी।

१८५७ में भड़क उठे इस स्वतन्त्रतायज्ञ की प्रतिध्वनि भारत की तरह ब्रिटन में भी गूँज उठी। ब्रिटन में अखबारों के माध्यम से भारत की स्थिति को वहाँ की आम जनता तक पहुँचाया जा रहा था। लेकिन वहाँ पर समाचार देनेवाले अँग्रेज़ ही होने के कारण वहाँ के अखबारों में ये सब बातें उन्हीं के नज़रियें से दी जाती थी, इस बात पर हमें गौर करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर- ‘भारत में रहनेवाले अँग्रेज़ों पर, खास कर स्त्रियों और बच्चों पर हो चुके/हो रहे अत्याचार’ जैसे शीर्षक के साथ खबरें छप रही थीं और उसके साथ प्रत्यक्षदर्शियों की यानी भारत में रहनेवाले अँग्रेज़ों की गवाही-सबूत जोड़े जा रहे थे।

लेकिन आग लगाकर खाक कर दिये गये गाँव और उनमें जल कर मर चुके कई बेगुनाह, गाँव के बाहर पेड़ों पर लटकाये गये और स्थानीय जनता के मन का खौ़फ और धाक बढ़ाने के लिए कई दिनों तक उसी स्थिति में लटकते हुए रखे गये वृद्ध और युवाओं के शव, खूँखारपन की परिसीमा जिसे कहा जा सकता है इस क़दर भारतीय नागरिकों पर अँग्रेज़ों द्वारा किये गये अत्याचार और तोप की मुँह में जीवित इन्सानों को बाँधकर उन्हें तोप से उड़ा देने जैसे घोर कर्म, ये सब बातें तो दुनिया के सामने आयी ही नहीं। उनकी दहाड़, उनका आक्रोश उनकी भारतमाता और आसपास के लोगों के अलावा बाहरी दुनिया ने कभी सुना ही नहीं। उनकी दर्दभरी चीखें, उनके करुण स्वर मूक बन गये थे, क्योंकि वे ग़ुलाम थे, उनका देश अंकित हो चुका था और ग़ुलामों की कैफियत सुनने का समय भला किसके पास होता है, उनके आँसू तो हमेशा ही इसी तरह सूख जाते हैं।

सन १८५७ के स्वतंत्रतासंग्राम में अपने से कई ज़्यादा बलवान ऐसे अँग्रेज़ों के साथ क्रांतिकारी लड़ सके, वह केवल प्रखर देशाभिमान के बलबूते पर ही।

लेकिन एक बात अवश्य हुई, १८५७ की क्रान्ति से अँग्रेज़ अब ज़रा ज़्यादा ही चौकन्ने हो गये थे। इसीलिए फिर उन्होंने भारत में सुधार करने की एक लंबी प्रक्रिया शुरू कर दी। उन्हें शायद लग रहा था कि उनके द्वारा किये गये सुधार उनके अत्याचारों को दबा देंगे।

१८५७ के क्रान्तियुद्ध की हानि का अचूक आँकड़ा बहुत ही बड़ा है, लेकिन सब से अधिक हानि हुई थी भारतीय योद्धाओं की ही। कई शहीद हो गये, कई ज़ख्मी हो गये; लेकिन भारतीयों के प्रखरत्व से अँग्रेज़ परिचित हो गये थे।

सब से महत्त्वपूर्ण बात यह हुई कि इसके बाद भारत पर की ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत पूरी तरह खत्म हो गयी।

कई नये कानून बनने जा रहे थे। अँग्रेज़ों ने भारतीयों को अब अपनी सिव्हिल सर्व्हिस में शामिल करना शुरू करने की बात तय कर दी। कई महत्त्वपूर्ण बदलाव होने जा रहे थें और उनमें से ही एक था, भारतीयों की शिक्षा-व्यवस्था में भी आमूलाग्र परिवर्तन करने की नीति अँग्रेज़ों द्वारा अपनायी गयी थी। इस नीति के अनुसार कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास (उस समय के नाम) में युनिव्हर्सिटीज़ की स्थापना की गयी।

जिस आम जनता में से अनेक क्रान्तिवीरों का उदय हुआ, उस आम जनता से हमारा थोड़ा बहुत परिचय होना आवश्यक है, यह ज़रूरत अब अँग्रेज़ों के सामने पेश आ रही थी; लेकिन उनके अपने फायदे के लिए ही।

और जिनका उल्लेख ‘सिपॉय’ करके किया जाता था, जो क्रान्तियुद्ध का आधारस्तम्भ साबित हुए थे, उनकी और उनकी पलटनों की क्या स्थिति हुई?

जो बंगाल आर्मी इस क्रान्तियुद्ध में सब से आगे थी, उसका स्वरूप ही अँग्रेज़ों द्वारा बदल दिया गया। अब ‘सिपॉय’ के रूप में अँग्रेज़ों से एकनिष्ठ रहेंगे ऐसे नेटिव्हज़् की भरती करने का अँग्रेज़ों का रुझान था। अब पलटनों में रहनेवाले भारतीय अफसरों को अधिक ज़िम्मेदारी सौंपने का भी तय किया गया।

अँग्रेज़ों के खिला़फ खड़ी रही रियासतें अब फिर एक बार उनके कब्ज़े में चली गयी। अँग्रेज़ों के पक्ष में लड़ चुकी रियासतों का तो कोई सवाल ही नहीं था। लेकिन सभी रियासतों पर अँग्रेज़ों की कड़ी नज़र थी।

अब भारत पर रहनेवाला ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार समाप्त होकर ब्रिटन की रानी का अधिकार स्थापित हो गया था।

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