त्रिचूर भाग – ४

त्रिचूर के इतिहास में ‘सक्थन थंपुरन’ राजा का स्थान का़फ़ी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उसने त्रिचूर शहर की पुनर्रचना की और उपेक्षित स्थिति में से बाहर निकालकर त्रिचूर को पुनः एक बार ऊर्जितावस्था प्रदान की।

‘सक्थन थंपुरन’

आज हम ‘सक्थन थंपुरन’ राजा के त्रिचूर में स्थित राजमहल की सैर करेंगे। यह राजमहल ‘सक्थन थंपुरन राजा का राजमहल’ अथवा ‘वदक्केकरा पॅलेस’ इन नामों से जाना जाता है। इस राजमहल का निर्माण केरल-डच वास्तुशैली द्वारा इसवी १७९५ में किया गया। राजा रामवर्मा अर्थात् ‘सक्थन थंपुरन’ का जब कोचीन पर शासन था, वह समय कोचीन राज्य का स्वर्णिम समय माना जाता है। इस दो-मंजिला राजमहल की म़जबूत दीवारें, ऊँचा छत, बड़े बड़े दालान और वहाँ का इटालियन मार्बल फ्लोअरिंग इन सब बातों से हम इस राजमहल के स्वरूप के बारे में अनुमान कर सकते हैं। इस राजमहल की बाह्य तथा आभ्यन्तर बनावट बहुत ही सुन्दर है और इतने वर्षों बाद भी यह राजमहल अच्छी स्थिति में है।

फ़िलहाल इस राजमहल की देखभाल केरल राज्य का पुरातत्त्व विभाग कर रहा है और इस राजमहल में स्थित संग्रहालय को सैलानी देख सकते हैं। यहाँ की ब्राँझ गैलरी में १२वी सदी से लेकर १८वी सदी तक के ब्राँझ के पुतलों को रखा गया है। शिल्प विभाग में ९वी सदी से लेकर १७वी सदी तक की ग्रॅनाईट की मूर्तियाँ/शिल्प रखे गये हैं, साथ ही पुराने समय की मुद्राओं-सिक्कों का संग्रह, पुराने हस्तलिखित, राजपरिवार के रो़जाना इस्तेमाल में आनेवाले ब्राँझ तथा तांबे के बर्तन आदि वस्तुएँ भी यहाँ पर रखी गयी हैं।

इस राजमहल के अहाते में ही एक स्थान है। इस स्थान को बहुत ही प्राचीन माना जाता है। यहाँ पर परंपरागत पद्धति से नागपूजा की जाती है। हाल ही में इस राजमहल के पास एक उपवन का निर्माण किया गया और ख़ास बात यह है कि इस उपवन में केरल तथा भारतवर्ष में पाये जानेवाले वृक्षों का संवर्धन एवं जतन करने का कार्य किया जा रहा है।

‘सक्थन थंपुरन’ राजा के इस राजमहल में कईं वस्तुओं का संग्रह किया गया है, साथ ही त्रिचूर शहर में भी एक ‘पुराणवस्तु संग्रहालय’ है। इस संग्रहालय में प्राचीन समय के मन्दिरों की प्रतिकृतियाँ, ऐतिहासिक व्यक्तित्वों की मूर्तियाँ ऐसी कईं वस्तुएँ रखी गयी हैं। यहाँ पर ‘ओलग्रंथगल’ इस नाम से जाने जानेवाले, तालपत्रों पर लिखे गये प्राचीन समय के हस्तलिखितों को जतन किया गया है।

साधारण तौर पर मन्दिर यह शब्द कहते ही हमारी आँखो के सामने श्रीराम के, श्रीकृष्ण के अथवा शिवजी के मन्दिर तुरन्त ही आ जाते हैं। त्रिचूर और उसके आसपास के इला़के में कईं मन्दिर हैं, लेकिन उनमें से एक विशेष मन्दिर का उल्लेख यहाँ पर करना जरूरी है।

श्रीराम के मन्दिर में साधारण तौर पर लक्ष्मणजी और सीताजी श्रीराम के साथ रहते ही हैं, लेकिन मैंने आज तक श्रीराम की पादुका का प्रथम पूजन करनेवाले श्रीराम के बन्धु भरतजी के मन्दिर के बारे में सुना, पढ़ा या देखा नहीं था।

त्रिचूर से लगभग २३ कि.मी. की दूरी पर ‘इरिंजलकुड’ नाम का एक गाँव है और इसी गाँव में ‘भरतजी’ का मन्दिर है। ऐसा कहा जाता है कि भारतवर्ष का यह भरतजी का एकमात्र मन्दिर है। यह मन्दिर ‘कूदलमाणिक्य’ इस नाम से भी जाना जाता है। यहाँ के मन्दिर में एक ही मूर्ति है।

इसी कूदलमाणिक्य मन्दिर से लगभग ६ कि.मी. की दूरी पर स्थित ‘पयम्मल’ इस गाँव में शत्रुघ्नजी का मन्दिर है।

केरल में ‘नालम्बलम्’ यानि कि चार मन्दिरों की यात्रा की जाती है। इस यात्रा में श्रीराम, लक्ष्मणजी, भरतजी और शत्रुघ्नजी इन चार बन्धुओं के मंदिरों की यात्रा की जाती है। इस यात्रा में भाविक ‘त्रिप्रयार’ के श्रीराम मन्दिर के, ‘मुळिक्कुलम’ के लक्ष्मणजी के मन्दिर के, ‘कूदलमाणिक्य’ इस भरतजी के मन्दिर के और ‘पयम्मल’ के शत्रुघ्नजी के मन्दिर के दर्शन करते हैं। श्रीराम मन्दिर के दर्शन करने के साथ इस यात्रा का प्रारंभ होता है और शत्रुघ्नजी के दर्शन के साथ यह यात्रा पूरी हो जाती है।

ऊपर उल्लेखित इन अनोखे मन्दिरों के साथ साथ त्रिचूर और उसके आसपास के प्रदेश में कईं महत्त्वपूर्ण मन्दिर हैं। उनमें से ‘परमक्कवु भगवती मन्दिर’ यह देवी का मन्दिर, ‘थिरुषंबादि श्रीकृष्ण मंदिर’ और ‘पुंकुन्नम’ का ‘शिव मन्दिर’ ये मन्दिर १००० वर्ष पुराने हैं, ऐसा कहा जाता है।

पिछले भाग के अन्त में कहा था कि हमें त्रिचूर के इस प्रवास में एक महत्त्वपूर्ण मन्दिर के बारे में जानकारी प्राप्त करनी है। ऊपर उल्लेखित ये सभी मन्दिर तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, लेकिन त्रिचूर के पास के इस मन्दिर का उल्लेख यदि न किया जाये, तो हमारा त्रिचूर का स़फ़र पूरा नहीं होगा।

यह मन्दिर है, ‘भूलोक वैकुंठ’ अथवा ‘दक्षिण द्वारका’ इन नामों से परिचित ‘गुरुवायूर मन्दिर’। त्रिचूर से मात्र ३२ कि.मी. की दूरी पर स्थित इस ‘गुरुवायूर श्रीकृष्ण मंदिर’ के मुख्य देवता भगवान श्रीकृष्ण हैं, यह तो आप समझ ही चुके होंगे।

इस गुरुवायूर मन्दिर के तथा यहाँ की प्रमुख मूर्ति के विषय में कुछ कथाएँ प्रचलित हैं। उनसे इस स्थान के बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार समाप्त करने से पहले उद्धव द्वारा बृहस्पतिजी को सन्देश भेजा था कि ‘द्वारका को समुद्र में डुबोने से पहले मेरे मातापिता की दैनिक पूजा की बालविष्णु की मूर्ति को यहाँ से ले जाकर सुरक्षित स्थान पर स्थापित कीजिए’। यह सन्देश मिलते ही उसके अनुसार कार्य करने के लिए बृहस्पतिजी काम में जुट गये और शीघ्र ही द्वारका पहुँच गये। मग़र तब तक द्वारका समुद्र में डूब चुकी थी। फ़िर उस मूर्ति को समुद्र में से बाहर निकालने के लिए उन्होंने वायुदेव की सहायता ली। बाद में उस मूर्ति की स्थापना करने के लिए उचित स्थान की तलाश वे कर रहे थे, जिस समय उन्हें एक सरोवर दिखायी दिया और उस सरोवर के तट पर शिवपार्वतीजी उसी बालविष्णु की मूर्ति की प्रतीक्षा कर रहे थे। वायुदेव के साथ जब बृहस्पतिजी वहाँ पहुँच गये, तब शिवजी ने उन्हें उस बालविष्णु की मूर्ति की स्थापना उसी स्थान पर करने के लिए कहा। इस तरह देवों के ‘गुरु’ बृहस्पतिजी और ‘वायु’देव इन दोनों ने मिलकर उस स्थान पर बालविष्णु की मूर्ति की स्थापना की और इसीलिए उस स्थान को ‘गुरुवायूर’ यह नाम प्राप्त हुआ।

इतना प्राचीन इतिहास होनेवाला यह स्थान आठवी सदी तक अज्ञात था। ज्ञात हो जाने के बाद भी उसका उल्लेख ‘कुरुवायूर’ इस तरह से किया जाता था। इस स्थान का नाम ‘गुरुवायूर’ प्रचलित करने में सर्वाग्रणी थे, ‘मेलकुतूर नारायण भट्टतिरी’ ये पूर्वाचार्य।

यह मन्दिर केरल वास्तुशैली का एक बेहतरीन नमूना माना जाता है। ‘श्रीकोविल’ यानि कि जहाँ पर मुख्य देवता की यानि कि बालविष्णु की मूर्ति की स्थापना की गयी है, वह स्थान। इस श्रीकोविल के चहूँ ओर स्थित है, ‘नल्लंबलम्’ यानि कि दीवार जैसी रचना। श्रीकोविल के सामने स्थित है ‘नमस्कार मंडपम्’। इस नल्लंबलम् के बाहर धातुओं के कईं दीप लगाये गये हैं और उन्हें विशेष उत्सव के अवसर पर प्रज्वलित किया जाता है। इस मन्दिर के अहाते में स्थित ७ मीटर ऊँचाई का ‘दीपस्तंभ’ और ३३.५ मीटर ऊँचाई का स्वर्ण का मुलम्मा चढ़ाया गया ‘ध्वजस्तंभ’ ये यहाँ की विशेषताएँ हैं।

गुरुवायूर के साथ केरल के चार प्रमुख सन्तों के नाम जुड़े हुए हैं। इनमें सबसे पहला नाम आता है, ‘मेलकुतूर नारायण भट्टतिरी’, जिनके बारे में इसी लेख में हम जानकारी प्राप्त कर चुके हैं। अन्य तीन सन्त हैं – ‘पुन्नानम् नम्पूतिरी’, ‘बिल्वमंगलम्’ और ‘मानवेदन’। इनमें से ‘मेलकुतूर नारायण भट्टतिरी’ ने इसी गुरुवायूर क्षेत्र में भागवत के दशम स्कंध पर आधारित काव्यरचना की। दस पदों का एक सर्ग इस तरह कुल सौ सर्गों की रचना उन्होंने की, जो काव्य ‘नारायणीयम्’ इस नाम से सुविख्यात है। ऐसा कहा जाता है कि मेलकुतूर भट्टतिरी नामक पूर्वाचार्य ने व्याधिमुक्त हो जाने के लिए गुरुवायूर क्षेत्र में ४१ दिनों तक भजन किया और उसके बाद वे व्याधिमुक्त हो गये। १७ वी सदी में केरल में अत्यन्त भक्तिमय वातावरण था और उसका केन्द्र था, यह गुरुवायूर क्षेत्र।

इस मन्दिर की ख़ासियत है, इस मन्दिर के अपने हाथी। मन्दिर में मनाये जानेवाले उत्सवप्रसंग में निकाली जानेवालीं शोभायात्राओं में इन हाथियों को सजाकर सम्मीलित किया जाता है। गुरुवायूर से कुछ ही दूरी पर स्थित ‘कोट्टपडी’ में एक स्थानीय राजमहल में इन हाथियों की देखभाल की जाती है। इस स्थान को या राजमहल को पहले ‘पुन्नाथूर कोट्ट’ कहते थे। लेकिन आजकल यहाँ पर हाथियों की देखभाल की जाती है, इसलिए इसे ‘अन्नाकोट्ट’ कहा जाता है। फ़िलहाल यहाँ पर ८६ हाथी हैं। इस ‘अन्नाकोट्ट’ में हाथियों की परवरिश, देखभाल और प्रशिक्षण ये तीनों काम किये जाते हैं। यहाँ के सबसे बड़े हाथी की आयु ७५ वर्ष है, ऐसा कहा जाता है।

यह कहना अनुचित नहीं होगा कि भारत के प्राचीन मन्दिर कला के क्षेत्र थे। इसी बात का प्रमाण मिलता है, इस गुरुवायूर के मन्दिर में। इस मन्दिर में ‘कृष्णनट्टम्’ अथवा ‘कृष्णअट्टम्’ यह नृत्यकला प्रस्तुत की जाती है। भगवद्गीता पर आधारित प्रसंगों को यहाँ नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। हाथपैरों के लयबद्ध न्यास, चेहरे के भाव और मुद्राएँ इनके माध्यम से कृष्णचरित्र को सचेतन किया जाता है। इस ‘कृष्णनट्टम्’ में आठ अलग अलग प्रकार के नृत्य प्रस्तुत किये जाते हैं।

दरअसल केरल की ख़ासियत होनेवाली ‘कथकळी’ इस नृत्यशैली का उद्गम इन्हीं ‘कृष्णनट्टम्’ और ‘रामनट्टम्’ इन प्राचीन नृत्यशैलियों में से हुआ है। हालाँकि आज ‘रामनट्टम्’ यह नृत्यप्रकार कथकळी नृत्यशैली में सम्मीलित हो चुका है, मग़र ‘कृष्णनट्टम्’ आज भी गुरुवायूर क्षेत्र में अपना अस्तित्व बनाये हुए है।

केरल की इस सांस्कृतिक राजधानी ने अपने अंतरंग में मन्दिर से लेकर राजमहल तक और हाथी से लेकर स्वर्ण तक सभी को जगह दी है। है ना!

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